केंद्र सरकार ने हाल ही में वर्ष 2025-26 के खरीफ सत्र के लिए धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 69 रुपए बढ़ा कर 2,369 रुपए प्रति कुंतल करने की घोषणा की। इसी तरह अन्य कई फसलों की एमएसपी भी बढ़ाई गई। सरकार का दावा है कि हर फसल के लिए लागत के साथ 50 फीसद को ध्यान में रखा गया है। वहीं किसानों के लिए ब्याज छूट बनाए रखने का फैसला भी किया गया है। किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) पर दो लाख तक का कर्ज चार फीसद ब्याज पर मिलता रहे, इसकी भी व्यवस्था की गई है।

गौरतलब है कि देश में 7.75 करोड़ से अधिक किसान क्रेडिट कार्ड खाते हैं। इससे अब छोटे और सीमांत किसानों को बड़ा फायदा हो सकेगा। यह योजना तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समय शुरू की गई थी। इससे किसानों के लिए कर्ज लेना आसान हो गया है। इस योजना में दो लाख तक के कर्ज पर कोई गारंटी नहीं ली जा रही है।

अधिकतर फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य अब लागत के लगभग डेढ़ गुना तक हो चुका है। इसकी मांग लगातार हो रही थी। समर्थन मूल्य बढ़ाने के लिए किसान लंबे समय तक और लगातार आंदोलन करते रहे हैं। अब सवाल यह है कि क्या एमएसपी बढ़ने से आंदोलन नहीं होगा। सरकार का दावा है कि किसानों के हित में लगातार फैसले लिए जा रहे हैं और उन्हें सशक्त बनाने की दिशा में काम किया जा रहा है। उसका कहना है कि खरीफ फसलों के समर्थन मूल्य में वृद्धि से उत्पादकों को उनकी उपज के लिए लाभकारी मूल्य सुनिश्चित किया जा सकेगा।

खास बात यह है कि अधिकतर फसलों की एमएसपी अब लागत के लगभग डेढ़ गुना तक हो चुकी है। इसकी मांग लगातार हो रही थी। गौरतलब है कि एमएसपी बढ़ाने के लिए किसान लगातार आंदोलन करते रहे हैं। अब सवाल यह है कि क्या इस बार एमएसपी बढ़ने से अगली बार आंदोलन नहीं होगा?

असल में एमएसपी सरकार द्वारा किसानों से तय दर पर फसल खरीदने की गारंटी है। इसका उद्देश्य किसानों को उनकी फसल पर कम से कम एक निश्चित राशि देना है। समर्थन मूल्य की वजह से किसानों को बाजार के उतार-चढ़ाव से सुरक्षा मिलती है। एमएसपी की शुरुआत वर्ष 1967 में हुई थी।

कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि एमएसपी की कानूनी गारंटी देश की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के साथ महंगाई को भी नियंत्रित करेगी। इससे किसानों को बिचौलियों के शोषण से बचाया जा सकेगा। वहीं इंडियन काउंसिल फार रिसर्च आन इंटरनेशनल रिलेशंस-आर्गनाइजेशन फार इकोनामिक कोआपरेशन एंड डेवलपमेंट का अध्ययन बताता है कि खेती की कीमतों को कृत्रिम रूप से कम रखने की पक्षपाती सरकारी नीतियों के कारण देश के किसान वर्ष 2000 के बाद से लगातार घाटा उठा रहे हैं।

अध्ययन बताता है कि पक्षपातपूर्ण सरकारी नीतियों और कृषि कीमतों के कारण किसानों को वर्ष 2022 में 14 लाख करोड़ रुपए और वर्ष 2000-2017 के दौरान 2017 की कीमतों पर 45 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। इसके चलते किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हैं। वहीं सरकार का दावा है कि वर्ष 2022-23 में किसानों से छह करोड़ मीट्रिक टन से अधिक धान और दो करोड़ साठ लाख मीट्रिक टन गेहूं की खरीद कर करोड़ों रुपए हस्तांतरित किए गए।

असल में एमएसपी को लेकर किसानों ने कई बार आंदोलन किया है। वे हर फसल को एमएसपी पर खरीदने की मांग कर रहे हैं। इसके लिए पिछली बार उन्होंने लगभग सभी फसलों की सूची सरकार को सौंपी थी। समर्थन मूल्य बढ़ाने को लेकर केंद्र सरकार का तर्क है कि इससे किसानों की आय बढ़ेगी। हालांकि किसान नेता सरकार के इस दावे से सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि किसानों की आय बढ़ाने के लिए सरकार के कई उपाय हो सकते हैं। इसमें एक है मूल्य स्थिरता कोष का गठन यानी जब फसलों की बाजार कीमत एमएसपी से नीचे चली जाए, तो सरकार इसकी भरपाई करे।

वहीं किसानों को धान-गेहूं की फसल की बजाय ज्यादा कीमत देने वाली फसलों को पैदा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। किसानों को फल, सब्जी, मवेशी और मछली पालन के लिए बढ़ावा दिया जाना चाहिए। उनका कहना है कि अनुबंध खेती की आड़ में किसानों को कंपनियों के भरोसे नहीं छोड़ा जाना चाहिए।

इस साल की शुरुआत में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रदर्शनकारी किसानों से बातचीत न करने और उनकी शिकायतों का समाधान न करने के लिए केंद्र सरकार की आलोचना की थी। अदालत ने केंद्र से एमएसपी के लिए विधिक गारंटी की मांग वाली नई याचिका पर जवाब देते हुए किसानों की मांगों पर विचार करने का आग्रह किया था। यह घटनाक्रम पंजाब-हरियाणा सीमा पर किसान समूहों द्वारा लंबे समय से चल रहे विरोध प्रदर्शन से संबंधित था। याचिका में कृषि कानूनों को निरस्त करने के बाद वर्ष 2021 के किसान विरोध प्रदर्शन के दौरान किए गए वादों के आधार पर फसलों पर एमएसपी के लिए विधिक गारंटी की मांग की गई थी।

इस याचिका में मांग की गई थी कि कृषि उत्पादकों के लिए स्थिर आय सुनिश्चित करने के क्रम में एमएसपी को विधिक अधिकार के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए। असल में किसानों का विरोध प्रदर्शन वर्ष 1991 के आर्थिक उदारीकरण से संबंधित लंबे समय से चली आ रही शिकायतों से प्रेरित है, जिसमें कृषि की तुलना में औद्योगीकरण को प्राथमिकता दी गई थी।

यद्यपि सरकार कई फसलों के लिए एमएसपी निर्धारित करती है, लेकिन इसका क्रियान्वयन सीमित है तथा इसके तहत ज्यादातर खरीद चावल और गेहूं की ही होती है। किसान विशेषकर गैर-प्रमुख फसल क्षेत्रों के संदर्भ में अक्सर उत्पादन लागत से कम कीमत पर फसल बेचने पर मजबूर होते हैं। हालांकि एमएसपी पर बार-बार कहा गया है कि इसके लिए कानूनी गारंटी देना अव्यावहारिक होगा, क्योंकि इसमें लाजिस्टिक चुनौतियां और खरीद की उच्च लागत शामिल है।

सरकार ऐसी नीति के आर्थिक प्रभावों को लेकर भी चिंतित है, जिसमें खाद्य महंगाई और बजटीय बाधाएं शामिल हैं। देश भर में सभी फसलों पर एमएसपी लागू करना अपर्याप्त बुनियादी ढांचे के कारण कठिन है, जैसे कि मंडी प्रणाली। एमएसपी के कारण खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ सकती हैं, जिससे उपभोक्ता प्रभावित हो सकते हैं।

असल में एमएसपी तय करने के लिए कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) की रपट का इस्तेमाल किया जाता है। आयोग उत्पादन लागत, बाजार के रुझान और मांग-आपूर्ति के हिसाब से एमएसपी तय करता है। एमएसपी की गणना के लिए सीएसीपी खेती की लागत को तीन हिस्सों में बांटता है। इसमें फसल उत्पादन के लिए किसानों के नकदी खर्च के साथ-साथ पारिवारिक श्रम का भी हिसाब लगाया जाता है। एमएसपी में बढ़ोतरी से किसानों को लाभकारी मूल्य मिलता है। आयोग ने अपनी मूल्य नीति रपट में एमएसपी पर एक कानून बनाने का सुझाव दिया था।