Delhi Election 2025 News: ‘मैं दिल्ली हूं’ सीरीज के चौथे पार्ट में बात 2003 चुनाव की जब शीला दीक्षित के सामने चुनौती सत्ता वापसी की थी, बीजेपी के सामने चैलेंज खुद को फिर साबित करने का था और गुटबाजी तो दोनों ही तरफ से जमकर चल रही थी। दिल्ली के इतिहास का ऐसा चुनाव मे जिसमें ना कांग्रेस एकजुट दिखी थी ना बीजेपी एकजुट हो पाई थी। इस चुनाव ने दिल्ली की राजनीति को बदलकर रख दिया था। एक तरफ बीजेपी को उसकी असल कमजोरियों का अहसास हुआ तो वहीं दूसरी तरफ शीला दीक्षित के सामने सच्चाई का आईना आया।

पांच साल तक एक सफल सरकार चलाने के बाद शीला दीक्षित पूरे दमखम के साथ चुनाव में उतरी थीं। शहरी विकास और दूसरी बुनियादी सुविधाओं के दम पर वे दिखाना चाहती थीं कि उन्होंने दिल्ली का स्वरूप बदल दिया। वे पूरी तरह विकास के मुद्दे पर अग्रसर थीं, उन्हें विश्वास था दिल्ली वाले उन्हें दोबारा मौका जरूर देंगे। लेकिन दिल्ली कांग्रेस में ही शीला दीक्षित को लेकर खटपट काफी रही। यह बात तो एक सच्चाई रही कि शीला दिल्ली के बाहर से आईं नेता थीं, उन्हें तो उत्तर प्रदेश अनुभव था। यह तो सोनिया की रणनीति रही और दिल्ली में शीला का आगाज हुआ।

लेकिन शीला को ही बाहरी बताते हुए सज्जन कुमार, जगदीश टाईटलर, जयप्रकाश अग्रवाल और रामबाबू शर्मा ने काफी हंगामा किया, दुनिया को दिखाते रहे सब एक हैं, लेकिन अंदरखाने सियासी साजिशें बननी शुरू हो चुकी थीं। शीला को हर कीमत पर रोकना ही मकसद था। अब वो मकसद सफल भी रहता अगर दिल्ली कांग्रेस को गांधी परिवार का समर्थन मिलता, अगर सोनिया भी ऐसा ही सोचने लग जातीं। लेकिन सोनिया का करीबी होना ही शीला दीक्षित के लिए सत्ता में बने रहने की गारंटी थी।

इसी गारंटी के साथ वे दिल्ली चुनाव में उतरी थीं, 2003 में सत्ता वापसी की उम्मीद लगाए बैठी थीं। अब कांग्रेस जानती थी वो एकजुट नहीं है, लेकिन बीजेप में भी हालात कोई बहुत बेहतर नहीं थे। 1993 से 1998 तक तीन-तीन सीएम बदलने वाली बीजेपी जानती थी कि वो भी बंटी हुई है, वहां भी नेताओं में जलन की भावना है, वहां भी सभी को साथ लाना पहली चुनौती है।

दिल्ली की राजनीति में उस समय मदन लाल खुराना बेसब्री से अपनी वापसी का इंतजार कर रहे थे। सीएम पद छोड़ने के बाद से ही बीजेपी के साथ भी उनके रिश्ते उतार-चढ़ाव वाले रहे। पार्टी ने तो एक कदम आगे बढ़कर उन्हें राजस्थान का राज्यपाल बना दिया, जानकारों ने माना कि उन्हें दिल्ली की राजनीति से ही दूर करने का काम हुआ। लेकिन खुराना भी तेज थे, उन्हें पता था फिर सियासत में वापसी करनी है तो दिल्ली को ही कर्मभूमि बनाना पड़ेगा। फिर क्या था, प्रेशर पॉलिटिक्स शुरू हुई और बीजेपी ने दिल्ली चुनाव में फिर खुराना को सबसे आगे कर दिया।

अब मदन लाल खुराना का दिल्ली आना बीजेपी के ही नेताओं को रास नहीं आ रहा था। विजय कुमार मल्होत्रा, विजय गोयल और साहिब सिंह वर्मा कुछ ऐसे दूसरे चेहरे थे जो दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे थे, उनके लिए मदन लाल खुराना का वापस आना एक चुनौती था, कॉम्पटीशन था। इसी वजह से बीजेपी अपने प्रचार एकजुट कभी नहीं दिखी, काफी सोच-समझकर खुराना एक रथ यात्रा की, लेकिन सारे बड़े नेता नदारद। खुराना अकेले ही जमीन पर मेहनत करते रहे, लेकिन चारों तरफ दबाव इतना रहा कि कोई स्वतंत्रर फैसला नहीं, उम्मीदवार तक मजबूत नहीं चुने जा सके।

नतीजा यह हुआ दिल्ली के 2003 वाले निधानसभा चुनाव में शीला दीक्षित की वापसी हो गई। 47 सीटें जीतकर कांग्रेस ने जीत का जश्न मनाया और कमजोर उम्मीदवारों के साथ उतरी बीजेपी 20 सीटों पर सिमट कर रह गई। बीजेपी के वापसी वाले सपने चकनाचूर हो गए और जीतकर भी शीला दीक्षित काफी अकेली दिखाई पड़ी। जो गुटबाजी चुनाव से पहले कांग्रेस में जारी थी, उसका अगला स्टेज नतीजों के बाद दिखा। पूरा हफ्ता बीत गया, लेकिन दिल्ली को मुख्यमंत्री नहीं मिल पाया।

शीला के चेहरे पर वोट पड़े, उनके काम ने फिर सत्ता दिलवाई, लेकिन दिल्ली कांग्रेस के कई नेताओं ने दीक्षित को बाहरी बताकर मुख्यमंत्री बदलने की बात कर दी। यह ड्रामा कई दिनों तक ऐसे ही चलता रहा, शीला दीक्षित भी समझ नहीं पा रही थीं कि उनकी पार्टी में उनका विरोध उन्हीं के नेताओं के द्वारा क्यों हो रहा था। लेकिन शीला दीक्षित के पक्ष में एक बात गई, कांग्रेस आलाकमान का समर्थन, सोनिया गांधी का समर्थन। उस समर्थन ने तमाम विवादों के बावजूद शीला दीक्षित की फिर से ताजपोशी करवाई और दिल्ली को उनका मुख्यमंत्री 15 दिसंबर 2003 को मिल गया। अगर जानना चाहते हैं कि 1998 के दिल्ली चुनाव में क्या हुआ था, यहां क्लिक करें