Champaran Satyagraha: मेरी धरती कई बार लहूलुहान हुई, आक्रमणकारियों का प्रहार भी हुआ, लेकिन सबसे ज्यादा दिल तब दुखा जब मेरे किसानों के साथ धोखा हुआ, जब उन्हें अंग्रेजों ने लूटा, उनकी नीतियों ने बर्बाद किया। मैं भी असहाय था, कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं, लेकिन तब मेरी धरती पर एक महात्मा आए, उनके बारे में ज्यादा कुछ नहीं पता था, लेकिन हां दक्षिण अफ्रीका में कुछ तो क्रांति करके आए थे। शोषित वर्ग की आवाज उठाना जानते थे, मुझे भी उम्मीद जगी अब न्याय होगा, अब सच की जीत होगी, मैं कह सकता हूं ऐसा हुआ भी, मेरी ही धरती से चंपारण में सबसे बड़ा सत्याग्रह चला…जी हां, मैं बिहार हूं और ये चंपारण की कहानी है-
1917 में बिहार के चंपारण में किसानों को नील की खेती करने को मजबूर किया जा रहा था, दाम कम मिलता था, जमीन को नुकसान अलग हो रहा था। एक बार नील की खेती कर ली तो कोई दूसरी फसल का उस जमीन पर उगना मुश्किल था। इसके ऊपर जातियों का एक ऐसा जाल बुन रखा था कि अमीर किसान कम लगान दे रहे थे तो वहीं गरीब कर्ज तले दबता चला जा रहा था। चंपारण का राजपूत या ब्राह्मण परिवार जितना लगान देता था, उससे 50 या 75 फीसदी ज्यादा किसी कोइरी, कुर्मी या जाटव जाति को देना पड़ता था।
इन्हीं सब अत्याचारों को काफी करीब से एक और किसान देख रहे थे, नाम था राजकुमार शुक्ल। वे भी चाहते थे कि चंपारण की पीड़ा सही आदमी तक पहुंचे, उन्हें किसी ने बताया कि लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा है। अब अधिवेशन का मतलब ही था कि कई मुद्दों पर चर्चा होनी थी, कई अहम प्रस्ताव पारित होने थे और लोकप्रिय नेताओं के भाषण भी। किसी ने सलाह दी तो राजकुमार शुक्ल भी लखनऊ पहुंच गए। अधिवेशन में उन्होंने सभी की बात सुनी, लेकिन नजर सिर्फ एक पर पड़ी थी- नाम था मोहनदास करम चंद्र गांधी।
भरोसा ऐसा जगा कि राजकुमार शुक्ल ने गांधी से गुहार लगाई, उन्हें चंपारण आने का न्योता दिया। अब गांधी एक बड़े बुद्धिजीवी थे, वे इस बात को समझते थे कि जब तक पूरा ज्ञान ना हो, वे किसी मुद्दे पर कोई राय नहीं बना सकते, ऐसे ही कोई बयान जारी नहीं कर सकते। इसी वजह से चंपारण की किसानों का दर्द जान भी गांधी अनजान बन गए, उन्होंने राजकुमार शुक्ल को निराश कर दिया। गांधी ने चंपारण आने से तब मना कर दिया। लेकिन शुक्ल भी मानने को तैयार नहीं थे, पीछे पड़ गए और गांधी भी कहना पड़ा- जब कलकत्ता आऊंगा, तब मिलेंगे।
कुछ जानकार कहते हैं कि गांधी तब टालना चाहते थे, इसलिए ऐसा बोला, लेकिन शुक्ल भी अपने इरादे के पक्के रहे, उन्होंने गांधी का पीछा नहीं छोड़ा। कुछ महीने बीते और राज कुमार शुक्ल के जरिए गांधी को चिट्ठियां लिखना शुरू कर दिया गया। ऐसी ही एक चिट्ठी में लिखा गया-
इस समय चंपारण की 11 लाख दुखी प्रजा श्रीमान के चरण-कमल के दर्शन के लिए टकटकी बैठी हुई है. उन्हें सिर्फ आपसे आशा ही नहीं बल्कि पूरा विश्वास है कि जिस तरह से भगवान श्रीरामचंद्रजी के चरण-स्पर्श से अहिल्या तर गईं, कुछ उसी प्रकार श्रीमान के चंपारण में पैर रखते ही हम 11 लाख प्रजाओं का उद्धार भी हो सकता है।
अब इतनी चिट्ठियों के बाद गांधी भी चंपारण आने के लिए राजी हो गए, एक ट्रेन से वे राजकुमार शुक्ल के साथ ही वहां पहुंचने वाले थे। माना तब तक गांधी की क्रांति बिहार तक नहीं पहुंची थी, लेकिन महात्मा का आगमन एक निर्णायक मोड़ था। इसी वजह से मुज़फ़्फ़रपुर में रह रहे आचार्य कृपलानी को चिंता सताने लगी कि गांधी का स्वागत कैसे किया जाए। अपनी आत्मकथा ‘माई टाइम्स’ में खुद कृपलानी ने बताया कि एक ब्राह्मण छात्र ने सहाल दी थी कि हिंदू रीति रिवाज से गांधी का अभिनंदन करना चाहिए।
ऐसे में रेलवे स्टेशन पर आरती की थाल, ढेर से सारे फूलों के साथ गांधी का इंतजार हुआ। उनके आते ही आरती भी उतरी, पुष्प वर्षा भी कर दी गई। अब गांधी को आगे कैसे लेकर जाया जाए, ये सवाल भी कृपलानी को परेशान कर रहा था। तब पता चला कि जिस ट्रेन से गांधी आए हैं, उसी में उनका एक जमींदार दोस्त भी मौजूद था। स्टेशन के बाहर उस दोस्त की बग्घी भी खड़ी थी। बस फिर क्या था, दोस्त से बोला गया और गांधी के लिए बग्घी का इंतजाम हो गया।
अब गांधी को खुश करने की चाह ऐसी रही कि कई नौजवान लड़के उस बग्घी को खींचने के लिए आगे आ गए, घोड़े वहां पर मौजूद थे, लेकिन फिर भी सम्मान में ही सही, वो युवा ही बग्घी खींचने की बात करने लगे। तब गांधी जी ने भी कह दिया था कि अगर लड़के उनकी बग्घी खींचेंगे, वे पैदल चलना बेहतर समझेंगे। खैर बग्घी आगे बढ़ी, मंजिल तक पहुंची और पता चला कि उन लड़कों ने ही उसे खींचा। गांधी जी नाराज हुए, लेकिन उदेश्य बड़ा तो आगे बढ़ चले।
अब गांधी जी आगे बढ़ चले, लेकिन राजकुमार शुक्ल सोच रहे थे कि उन्हें रात में कहां ठहराया जाए। तब फैसला होता है कि राजेंद्र प्रसाद ( आगे चलकर देश के पहले राष्ट्रपति बने) के घर पर ले जाते हैं। अब राजेंद्र प्रसाद घर मौजूद थे नहीं, उनके नौकर वहां जरूर थे। नौकरों को अंदाजा ही नहीं था कि गांधी जी को बड़े आदमी हैं, ऐसे में उन्हें बाहर ही बिस्तर बिछाने की जगह दे दी गई। पता नहीं वो नौकर क्या सोच रहे थे, गांधी को क्या समझ रहे थे, उन्हें ना कुएं से पानी भरने दिया गया ना ही घर का शौचलय इस्तेमाल करने की इजाजत मिली।
अब गांधी की ताकत उस समय भी इतनी तो थी कि वहां के डीएम को एक नोटिस जारी करना पड़ा। नोटिस में कहा गया कि गांधी चंपारण में नहीं रह सकते, जो भी पहली ट्रेन मिले उसे पकड़ उन्हें जाना होगा। गांधी की गांधीवादी सोच पहली बार पूरी दुनिया ने देखी, उन्होंने डीएम के आदेश का पालन नहीं किया। पालन नहीं किया तो कोर्ट का समन भी गया। कोर्ट के सामने गांधी पेश भी हुए, एक बार फिर वहां डीएम ने कहा कि अगर आप चंपारण छोड़ देंगे, आप पर दर्ज केस वापस ले लिया जाएगा।
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लेकिन गांधी ने ऐसा करने से साफ मना कर दिया। उन्होंने चंपारण को अपना घर बताया और वहां पर लोगों की सेवा करने की बात कही। अब इतने सारे किसान जो गांधी से आस लगाए बैठे थे, उन्होंने उस कोर्ट के बाहर भीड़ लगा दी। गांधी को छोड़ने के लिए नारेबाजी शुरू हुई। अंग्रेजी हुकूमत के सामने ऐसे कम मौके आए जब लोग इस तरह से एकजुट हुए। लेकिन गांधी के लिए सभी ने एक सुर में अंग्रेजों के खिलाफ भी बगावत की। पुलिस के भी तब हाथ पैर फूल गए, गांधी जी को कहना पड़ा- अगर आपकी इच्छा हो तो मैं उनसे बात कर सकता हूं। फिर गांधी ने उन किसानों से बात की, अहिंसा का पाठ पढ़ाया और वो देख प्रशासन की भी आंख खुली और गांधी पर कोई केस दर्ज नहीं हुआ।
अब गांधी ने चंपारण के कई गांवों का दौरा किया, 8000 के करीब किसानों से बात की, बकायदा वहां रुक कर उनका दर्द समझा। वो दर्द समझ ही गांधी ने निष्कर्ष निकाला कि इन किसानों की जिस तरह से उपेक्षा की गई, इस वजह से ही वे नाराज हैं। ऐसे में उनकी तरफ से कई संगठन बनाए गए, उनका सिर्फ एक ही उदेश्य रहा- किसानों के बीच जागरूकता पैदा करना। उस समय की सरकार को भी गांधी की ताकत का अहसास होने लगा, ऐसे में उन्होंने भी एक कमेटी का गठन किया, गांधी को उसकी अगुवाई करने को कहा और सिर्फ कुछ ही महीनों में Champaran Agrarian Bill पारित हो गया। चंपारण के किसानों को बड़ी राहत मिली, देश की आजादी में चंपारण सत्याग्रह अमर हो गया। उस समय पहली बार राजकुमार शुक्ल ने गांधी को ‘बापू’ कहकर संबोधित किया और देश को अहिंसा का सबसे बड़ा हथियार मिल गया।
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