Yadav-Brahmin Controversy: उत्तर प्रदेश के इटावा में हुए कथावचक वाले विवाद पर यूपी की राजनीति गर्म हो गई है। यादव कथावाचक का आरोप ये कि ब्राह्मण यजमान ने उन्हें ‘यादव’ होकर कथावाचन करने के लिए पीटा उनकी चोटी काटी, उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया। दूसरी ओर ब्राह्मण यजमान का कहना है कि कथावाचकों ने भोजन के दौरान उनके घर की महिला के साथ बदसलूकी की थी। ये मामला पुलिस थाने तक पहुंच गया है। सरकार ने जांच के आदेश दे दिए लेकिन इस मुद्दे को कानून नहीं बल्कि राजनीति के चश्मे से देखते हुए ‘यादव बनाम ब्राह्मण’ बना दिया है।
इटावा में हुई घटना के बाद जमकर विरोध प्रदर्शन देखने को मिले। यादव बहुल गांवों में ब्राह्मणों से कथा करने को लेकर नए-नए फरमान जारी किए जा रहे हैं। इटावा के जिस दांदरपुर गांव में ये कथावाचक कांड हुआ, उसमें अहीर रेजिमेंट के लोग उसमें घुसने की कोशिश कर रहे हैं। इसके चलते पुलिस ने उन्हें रोका फिर भी नहीं माने तो ताबड़तोड़ लाठीचार्ज कर दिया। सीधे तौर पर कहें तो राज्य यादव बनाम ब्राह्मण की राजनीति पूरे उफान पर है।
आज की बड़ी खबरें
अखिलेश यादव खुलकर इस मुद्दे पर यादव समाज को दबाए जाने का मुद्दा उठा रहे हैं, वे ब्राह्मणों को लेकर सीधे कुछ नहीं बोल रहे लेकिन योगी सरकार को निशाने पर लेकर पूरे मामले में एक पक्ष पर अड़ गए हैं। अखिलेश इस मुद्दे पर एक तरफ खड़े तो हो गए है लेकिन असल में ये उनके लिए एक दोधारी तलवार सरीखा है। इसकी वजह यह है कि अखिलेश यादव समेत पूरे विपक्ष ने 2017 के बाद से बीजेपी की सरकार पर आरोप लगाए कि योगी सरकार में ब्राह्मणों की अनदेखी हो रही है। इसके जरिए विपक्ष ब्राह्मण बनाम ठाकुर नेरेटिव चला रहा था लेकिन उसका विपक्ष को कोई खास फायदा नहीं मिला।
अखिलेश यादव खुलकर अपने PDA में A को अल्पसंख्यक तो कहते ही हैं, लेकिन अगड़ा भी बताते हैं। मतलब ये कि वे ब्राह्मण वोट बैंक में सेंधमारी भी करना चाहते हैं। अब अखिलेश के लिए चुनौती ये है कि अगर वे ब्राह्मण यादव विवाद में ब्राह्मणों का पक्ष नहीं लेते, तो उन्हें ब्राह्मणों से नाराजगी का सामना करना पड़ सकता है लेकिन यादव उनका मुख्य वोट बैंक हैं। अगर वे उसे नाराज करते हैं, तो उनका अपना वोट बैंक भी छिटक सकता है। इसके चलते अखिलेश भले ही इस मुद्दे पर एकतरफा चल रहे हो, लेकिन यह सपा के लिए 2027 के विधानसभा चुनाव के लिहाज से चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
यूपी में कौन भड़का रहा है ब्राह्मण बनाम यादव का संघर्ष? किसे होगा इसका राजनीतिक फायदा- OPINION
बात सत्ताधारी बीजेपी के लिहाज से करें 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने एक नेरेटिव केवल यादव पॉलिटिक्स को लेकर चलाया था। बीजेपी ने उस दौरान आरोप लगाए थे कि उस वक्त की अखिलेश यादव की सरकार में यादव समाज के लोगों को ज्यादा तवज्जों मिलती है। बीजेपी को इस नेरेटिव का फायदा भी मिला था। नॉन यादव ओबीसी से लेकर सवर्ण तक अपनी पहुंच बनाने में कामयाब नजर आई बीजेपी को 2017 और काफी हद तक 2022 में इस रणनीति का फायदा मिला था।
यादव और मुस्लिमों को ज्यादा तवज्जों देने के आरोपों के चलते अखिलेश यादव ने 2024 के लोकसभा चुनाव में केवल 5 यादव नेताओं को प्रत्याशी बनाया था, जो कि सभी उन्हें घर के थे। वहीं कांग्रेस उनके साथ थी तो मुस्लिम वोट बैंक के बंटने की संभावनाएं भी कम हो गई थी। अखिलेश ने 2024 में बीजेपी की पिच पर आकर नॉन यादव पॉलिटिक्स की थी, जिसका उन्हें फायदा भी मिला था। वहीं इटावा कथावाचक कांड के बाद एक बार फिर ‘यादव’ समाज को लेकर समाजवादी पार्टी लाइमलाइट में आ गया है। बीजेपी उम्मीद कर रहे हैं कि इस विवाद के चलते यादव समाज के खिलाफ 2017 की तरह सवर्ण से लेकर नॉन यादव ओबीसी वर्ग लामबंद हो सकते हैं, जिसका उसे फायदा मिल सकता है।
इटावा उपद्रव मामला: अहीर रेजिमेंट के अध्यक्ष समेत 170 पर FIR, पुलिस ने हत्या की कोशिश समेत कई धाराएं लगाई
यूपी की पॉलिटिक्स में यादव हो या ब्राह्मण दोनों की ही आबादी 10 प्रतिशत के आसपास है। आम तौर पर यह माना जाता है कि यूपी में ब्राह्मणों का 70-80 प्रतिशत वोट भाजपा को जाता है जबकि यादव वोट अखिलेश यादव की झोली में गिरता है। ब्राह्मण सवर्ण में आते हैं, जिनका पूरा वोट पिछले 10-15 साल से बीजेपी के लिए एकतरफा पड़ रहा है, ओबीसी वोट बंट जाता था।
अखिलेश यादव ने जब 2024 के लोकसभा चुनाव में अपनी नॉन यादव ओबीसी पॉलिटिक्स को धार देते हुए, यादव प्राथमिकता को पर्दे के पीछे किया तो उन्हें फायदा जरूर हुआ, लेकिन फिर ओबीसी वोट बैंक आज की स्थिति में बंटता नजर आता है। मौजूदा वक्त में समाजवादी पार्टी और एनडीए की बराबर की पकड़ इस OBC वोट बैंक पर है। बीजेपी एक तरफ इटावा कांड के जरिए न केवल ब्राह्मणों को बल्कि नॉन यादव पॉलिटिक्स को लामबंद करने की कोशिश में है, जिसके चलते 2027 का रण दिलचस्प हो सकता है।
‘जाति की राजनीति…’, इटावा चोटी कांड पर धीरेंद्र शास्त्री का बड़ा बयान
CSDS का डाटा बताता है कि 2017 में ब्राह्मणों के 83 फीसदी वोट बीजेपी को और 7 फीसदी एसपी को मिले थे। बात 2022 की करें तो ब्राह्मणों ने एकतरफा 89 फीसदी वोट एनडीए की तरफ गया था। खास बात यह भी है कि अखिलेश यादव को साल 2017 के चुनावों में यादवों का 68 फीसदी और बीजेपी को 10 फीसदी वोट मिला था। 2022 में यह आंकड़ा सपा के 83 फीसदी और बीजेपी के पास 12 फीसदी तक गया था।
यूपी के ओवरऑल जातीय समीकरण की बात करें तो यहां सवर्ण 18 प्रतिशत, ओबीसी 42 प्रतिशत, दलित 21 फीसदी और मुस्लिम 19 फीसदी हैं। इस पूरे खेल में बीजेपी अपना सवर्ण वोट बचाने की कोशिश में है, जबकि उसकी प्लानिंग 42 फीसदी ओबीसी नॉन यादव ओबीसी वोटर्स को लुभाने की भी है। इसके अलावा दलित पॉलिटिक्स में बीजेपी लगातार मायावती के वोट बैंक में सेंधमारी कर रही है, इस फॉर्मूले के तहत ही बीजेपी 2017 और 2022 में सत्ता हासिल करने में कामयाब रही है।
ध्यान देने वाली बात यह भी है कि भले ही अखिलेश यादव ये आरोप लगाते रहें कि बीजेपी ब्राह्मणों को प्राथमिकता नहीं देती, जबकि असलियत ये भी है कि 2022 के चुनाव में सबसे ज्यादा जिस जाति के विधायक जीते थे वो ब्राह्मण जाति ही थी। NDA से 46 ब्राह्मण विधायक बने थे जबकि समाजवादी पार्टी से महज 5 ब्राह्मण विधायक थे। जहां तक यादवों का सवाल है तो NDA के 3 यादव विधायक हैं जबकि समाजवादी पार्टी में 24 यादव विधायक 2022 में जीतकर विधानसभा पहुंचे थे।
Odisha News: ‘पैर तोड़ दो…’, कांग्रेस कार्यकर्ताओं को रोकने के लिए ACP ने दिया निर्देश, वीडियो वायरल
‘ब्राह्मण बनाम यादव सियासी घमासान’ के बीच शुभांशु शुक्ला के घर पहुंचे अखिलेश, सपा चीफ क्या देना चाहते हैं सोशल मैसेज