जब विस्थापन और भुखमरी जैसी कोई परिस्थिति लोगों को अपनी जड़ों से बिछुड़ने को विवश करती है, तो वैश्विक प्रतिक्रिया हमेशा उन्हें बचाने की होती है। मगर वर्तमान में हालात नियंत्रण से बाहर होते जा रहे हैं। दुनिया में जबरन विस्थापितों की संख्या आठ करोड़ चालीस लाख से ज्यादा हो चुकी है। इनमें चार करोड़ अस्सी लाख तो अपने-अपने देशों में ही विस्थापन के दिन काट रहे हैं। कुल अंतरराष्ट्रीय प्रवासियों की संख्या सत्ताईस करोड़ बीस लाख हो चुकी है। इनमें से नौ करोड़ पचास लाख निम्न और मध्यम आय वाले देशों में रह रहे हैं। वे विस्थापन और भूख के मोर्चे पर एक साथ जूझ रहे हैं।
जलवायु आपदा, भूकम्प, हिंसक झड़पों, युद्ध, महंगाई-बेरोजगारी, राजनीतिक परिस्थितियों, सूखा और बाढ़ के चलते दुनिया में विस्थापितों की संख्या ग्यारह करोड़ से अधिक हो चुकी है, जिनमें 40 फीसद बच्चे हैं। वे राष्ट्रीयता, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आवागमन की आजादी जैसे बुनियादी अधिकारों से वंचित हो चुके हैं। विस्थापन पर दिसंबर 2024 तक की एक ताजा रपट में बताया गया है कि बीता वर्ष लाखों आंतरिक विस्थापितों की दृष्टि से सबसे चुनौतीपूर्ण रहा है।
जरा सोचिए, कि ये आंकड़े विस्थापन की कैसी भयावहता और बदसूरती बयान कर रहे हैं। सीरिया के विस्थापित लोगों की चुनौतियां अब जटिल नागरिक संघर्षों में बदल गई हैं। यूक्रेन के कुल विस्थापित एक करोड़ तेरह लाख लोगों में से पचास लाख से ज्यादा लोग विस्थापित हो गए हैं। तिरसठ लाख लोग अब पोलैंड, रोमानिया, स्लोवाकिया, हंगरी और बेलारूस जैसे पड़ोसी देशों में शरणार्थी हैं। यूक्रेन में एक करोड़ से अधिक लोग भूख से जूझ रहे हैं।
अफगानिस्तान के कुल विस्थापित लोगों में से कई खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहे हैं। अफगानिस्तान में लगभग एक करोड़ नब्बे लाख लोग गंभीर रूप से भूखों की श्रेणी में पहुंच चुके हैं। वेनेजुएला के विस्थापित लोगों में से 23 लाख भूख के गंभीर स्तर का सामना कर रहे हैं। बच्चे तेजी से भूख और कुपोषण के कारण मर रहे हैं। दक्षिण सूडान के विस्थापित पैंतालीस लाख लोगों में से 22 लाख विस्थापन की जिंदगी बिता रहे हैं। म्यांमा से विस्थापित और अपनी नागरिकता से वंचित सत्रह लाख लोग ‘दुनिया में सबसे ज्यादा सताए जाने वाले अल्पसंख्यक’ के रूप में जाने जा रहे हैं।
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युद्ध, उत्पीड़न या पर्यावरणीय आपदा से बचने के लिए एक पल की सूचना पर लोगों को घरों से भागने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। लगभग नौ करोड़ लोग ठीक से समझते हैं कि वह क्षण कैसा लगता है। इनमें से ज्यादातर शरणार्थी हैं, जिन्हें सुरक्षा, भोजन और नौकरी की तलाश में अपना देश छोड़ना पड़ा है। सीमा पार विस्थापितों में से दो तिहाई लोग सीरिया, वेनेजुएला, अफगानिस्तान, दक्षिण सूडान, और म्यांमा के हैं। विस्थापन में रह रहे एक करोड़ दस लाख शरणार्थी बच्चों पर विचित्र तरह के प्रभाव देखने को मिल रहे हैं।
पांच वर्ष से कम आयु के लाखों बच्चे कुपोषण के कारण बौनेपन का शिकार हुए हैं। दुनिया इस समय सबसे बड़ी शरणार्थी आबादी से जूझ रही है, जिसमें दो करोड़ पचास लाख से अधिक लोग अपने घरों से उजड़ कर विदेशों में मेजबान समुदायों में रह रहे हैं। इसमें से एक करोड़ दस लाख बच्चे हैं। पिछले दस वर्षों में यह संख्या दोगुनी हो गई है। बीते वर्ष 2024 में लगभग 15 करोड़ लोग भुखमरी से बेहाल रहे। कोविड के बाद से अब तक इस संख्या में 15 करोड़ का और इजाफा हो चुका है। अध्ययनों में अनुमान जताया गया है कि 2030 तक 67 करोड़ लोगों को भुखमरी का सामना करना पड़ सकता है।
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जबरन विस्थापित लोगों की बुनियादी जरूरतों के लिए चिंतित स्वयंसेवी संगठन और एजंसियां इसलिए चाहती हैं कि प्रवासन की महाविपदा जैसे दौर में, उनकी आवाजाही से प्रतिबंध हटा दिए जाएं। विश्व में विस्थापित शरणार्थी शिविरों के अनुभव बताते हैं कि लगातार दशकों तक निम्न गुणवत्ता वाला भोजन करने से बड़ी संख्या में गर्भवती महिलाएं कुपोषण का शिकार हो रही हैं। भोजन की असुरक्षा का सामना करने पर वे स्थानीय परिवारों और समुदायों से भोजन मांगते हैं। कई जगहों से तो ऐसी भी सूचनाएं हैं कि खाद्य आपूर्ति खत्म हो जाने और अगली फसल आने के समय के बीच, भूख मिटाने के लिए उन जंगली फलों पर निर्भर हो जाते हैं, जिन्हें सिर्फ जानवर खाते हैं। वे अपने बच्चों, परिवारों के साथ झाड़ियों तक में रहने को मजबूर हैं। नदियों का प्रदूषित पानी पी रहे हैं। भोजन के लिए जलाशयों के पौधे उबालते हैं। अधपकी फसलों से काम चलाते हैं, जो बीमार कर देती है। आपात स्थितियों में अगली फसल के रखे बीज खा जाते हैं।
विस्थापित तीन हजार से अधिक परिवारों का एक सर्वेक्षण बताता है कि जीवित बचे रहने की कोशिश में वे खाद्य के लिए मुर्गियां, बकरियां और गायें बेच कर पैसे जुटाते हैं। आपात हालत में 65 फीसद परिवार और 54 फीसद बच्चे भूखे रह जाते हैं। ज्यादातर महिलाएं भोजन करना ही छोड़ देती हैं और अकाल मौत की शिकार होती रहती हैं। कई लोग कई-कई दिन बिना भोजन के गुजार देते हैं। ऐसे परिवारों के बच्चे बौनेपन का शिकार होने लगे हैं। परिवार को महीनों बेसहारा छोड़ कर भोजन की तलाश में आटे के साथ खाया जाने वाला जंगली कसावा इकट्ठा करने के लिए वे कई-कई दिन तक दलदली इलाकों में चलते रहते हैं।
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एक ताजा रपट के मुताबिक, वर्ष 2023 में भारत में करीब पांच लाख लोग विस्थापित हुए। आंतरिक विस्थापन निगरानी केंद्र (आइडीएमसी) का सूचना के मुताबिक वर्ष 2022 के अंत तक करीब सात लाख लोग विस्थापित हो चुके थे, जिनमें ज्यादातर पूर्वोत्तर असम, मिजोरम, जम्मू-कश्मीर, मेघालय और त्रिपुरा के हैं। दुनिया के कुल विस्थापितों में से 20 फीसद भारत से बताए गए हैं। ‘डाउन टू अर्थ स्टेट आफ इंडियाज एनवायरमेंट’ की रपट तो दावा करती है कि संघर्ष और हिंसा के कारण लगभग 85 लाख लोग विस्थापित हुए हैं।
भारत में आंतरिक विस्थापन के कारणों की प्रकृति, आवृत्ति और सीमा इतनी भिन्न है कि उनकी निगरानी करना बहुत कठिन है। राज्य स्तर पर राजनीतिक संवेदनशीलता विस्थापन की सटीक प्रकृति और सीमा पर डेटा जारी करने से रोकती है। यद्यपि आंतरिक विस्थापितों की कुल संख्या पांच लाख से अधिक बताई जा रही है। दिल्ली स्थित भारतीय सामाजिक संस्थान के अनुसार यह संख्या दो करोड़ 13 लाख है तथा वैश्विक डीआइपी परियोजना के अनुसार यह संख्या तीस करोड़ नब्बे लाख है।
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विकास-प्रेरित विस्थापन ने भारी प्रभाव डाला है। सेंटर फार साइंस एंड एनवायरनमेंट की एक रपट बताती है कि बाढ़, चक्रवात और भूस्खलन के कारण भारत में बड़े पैमाने पर बार-बार विस्थापन हो रहे हैं। दुखद है कि देश में शरणार्थी समाधान के लिए कोई राष्ट्रीय नीति और कानूनी संस्थागत ढांचा नहीं है। राज्यों के विस्थापन परिणामों के लिए जवाबदेही लगभग नदारद है। मुद्दों का कोई तात्कालिक समाधान नहीं नजर आता है। देश के पहाड़ी और समुद्र तटवर्ती क्षेत्रों के अलावा बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड से तो लगातार विस्थापन देखा जा रहा है।