Chandra Shekhar Azad Biography: भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले प्रमुख स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में से एक चंद्रशेखर आज़ाद की आज पुण्यतिथि है। आज़ाद की मृत्यु 27 फरवरी, 1931 को हुई थी और तब उनकी उम्र सिर्फ 24 साल थी। कई बार मन में यह सवाल उठता है कि चंद्रशेखर आज़ाद का पूरा नाम क्या था, उन्होंने अपने नाम के पीछे आज़ाद क्यों लगाया, वह कहां के रहने वाले थे और आज़ादी के आंदोलन में उनकी क्या भूमिका रही थी। आईए, इस बारे में जानते हैं।

चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म 1906 में अलीराजपुर (मौजूदा मध्य प्रदेश) में हुआ था। उनका पूरा नाम चंद्रशेखर सीताराम तिवारी था। चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म बेहद गरीब परिवार में हुआ था और उन्होंने मात्र 15 साल की उम्र में घर छोड़ दिया था।

कुछ वक्त तक बंबई में रहने के बाद चंद्रशेखर बनारस चले गए और संस्कृत के एक विद्यालय में रहने लगे। यह वह वक्त था जब महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन पूरे जोर-शोर से चल रहा था।

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इस दौरान चंद्रशेखर कांग्रेस के द्वारा बनाए गए युवा संगठनों से जुड़ गए। उन्होंने शराब की दुकानों पर धरना दिया और कई धरना-प्रदर्शनों में भी हिस्सा लिया। उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और उन पर सार्वजनिक व्यवस्था में गड़बड़ी करने के आरोप लगे। चंद्रशेखर को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया और यहीं से कुछ ऐसा हुआ कि वह चंद्रशेखर आज़ाद बन गए।

इतिहासकार अपर्णा वैदिक ने Waiting for Swaraj: Inner Lives of Indian Revolutionaries (2021) में लिखा है कि जब जज ने चंद्रशेखर से उनका नाम और उनके परिवार के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि उनका नाम आज़ाद है, पिता का नाम स्वतंत्रता है और उनके घर का पता जेल की कोठरी है। चंद्रशेखर की इस बात से जज बुरी तरह भड़क गए और चंद्रशेखर को 15 बेंत मारने का आदेश दिया।

रिहा होने के बाद चंद्रशेखर ने अपना ब्राह्मण जाति वाले नाम को त्याग दिया और आज़ाद की उपाधि धारण कर ली। उन्होंने यह भी संकल्प लिया कि वह कभी भी जिंदा अंग्रेजी हुकूमत के हाथ नहीं आएंगे। फरवरी, 1922 में जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन खत्म कर दिया तो आज़ाद इससे परेशान हो गए और दूसरे रास्ते पर चल पड़े।

NMML Papers के मुताबिक, आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले मन्मथनाथ गुप्ता कहते हैं, ‘यही वह मोड़ था, जहां से हमारे जैसे कई लोगों, चंद्रशेखर आज़ाद और मेरे जीवन में नया बदलाव आया। पहले हम गांधी के कट्टर समर्थक थे, अचानक दूसरी राह पर चले गए और क्रांतिकारी आंदोलन के भंवर में समा गए।’

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जल्द ही, आज़ाद राम प्रसाद बिस्मिल और सचिंद्रनाथ सान्याल की हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी (HRA) से जुड़ गए, जहां उन्होंने सशस्त्र विद्रोह करने के लिए पैसे जुटाने के मकसद से कई राजनीतिक डकैतियों को अंजाम दिया। इनमें सबसे प्रसिद्ध 1925 का काकोरी ट्रेन कांड था। इस घटना में शामिल सभी क्रांतिकारियों में से सिर्फ चंद्रशेखर आज़ाद ही पुलिस के हाथ नहीं आए। आज़ाद झांसी भाग गए और मुकदमे की कार्यवाही पूरी होने तक वहीं छिपे रहे।

इसके बाद आज़ाद ने फिर से अपना संगठन शुरू किया और इसी दौरान उनकी मुलाकात भगत सिंह से हुई। भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद ने उस दौर में यूनाइटेड प्रोविंस और पंजाब से आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले लोगों को इकट्ठा किया और 1928 में Hindustan Socialist Republican Association (HSRA) का गठन किया।

भगत सिंह HSRA के राजनीतिक विचारक थे जबकि आज़ाद इसके मिलिट्री लीडर थे। आज़ाद ही रणनीति और योजना बनाते थे और कार्रवाई को अंजाम देने में भूमिका निभाते थे।

आज़ाद ने दिसंबर, 1928 में लाहौर में ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जॉन सॉन्डर्स की हत्या की योजना बनाई और उसे अंजाम भी दिया। भगत सिंह और राजगुरु ने सॉन्डर्स को गोली मारी, जबकि आज़ाद ने पीछा कर रहे एक पुलिस कांस्टेबल को मार गिराया। सॉन्डर्स की हत्या के बाद HSRA की ओर से जारी एक पर्चे में लिखा गया था, ‘सॉन्डर्स की मौत के साथ लाला लाजपत राय की हत्या का बदला ले लिया गया है। आज दुनिया ने देख लिया है कि भारत के लोग मुर्दा नहीं हैं, उनका खून ठंडा नहीं पड़ा है।’

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HSRA ने एक और बड़ा क्रांतिकारी कदम उठाया। 1929 में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली में सेंट्रल असेंबली में बम विस्फोट कर दिया। इसके बाद ब्रिटिश हुकूमत ने इस संगठन के खिलाफ अभियान छेड़ दिया और उसके सभी प्रमुख लोगों को गिरफ्तार कर लिया। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को सॉन्डर्स की हत्या के आरोप में 23 मार्च, 1931 को फांसी दे दी गई।

अपने साथियों के चले जाने के बाद भी चंद्रशेखर आज़ाद अंडरग्राउंड होकर लगातार काम करते रहे। उन्होंने अपने साथी भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना पर फोकस किया लेकिन 27 फरवरी, 1931 को जब आज़ाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अपने साथी क्रांतिकारी सुखदेव राज से मिलने जा रहे थे, तभी पुलिस को उनके बारे में पता लगा और उन्हें घेर लिया गया।

आज़ाद ने पुलिस से संघर्ष किया लेकिन इस दौरान वह बुरी तरह घायल हो गए। चूंकि उन्होंने संकल्प लिया था कि वह कभी भी जीवित नहीं पकड़े जाएंगे इसलिए उन्होंने खुद के सिर में गोली मार ली। हालांकि कुछ लोगों का कहना है कि घायल होने की वजह से उनकी जान गई। जिस पार्क में उनकी जान गई थी, उसका नाम आज़ाद के नाम पर रखा गया है।

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