कभी उत्तर प्रदेश में बड़ी ताकत मानी जाने वाली बीएसपी, इस समय बिखरी हुई मालूम पड़ती है। पिछले कई चुनावों में मिली असफलता ने बीएसपी कैडर का मनोबल तोड़ दिया है। पार्टी का हर पुराना कार्यकर्ता ‘बहनजी’ के इस तरह असक्रिय होने की वजह नहीं समझ पा रहा है। बिजनौर में बीएसपी जिला कार्यालय में टूटी हुई कुर्सी पर बैठे पार्टी के सीनियर वर्कर 74 साल के अमर सिंह याद करते हुए द इंडियन एक्सप्रेस को बताते हैं कि साल 1989 में बिजनौर से लोकसभा चुनाव के दौरान उन्होंने मायावती को जीप में घुमाया गया था। तब मायावती को यह उनकी पहली चुनावी जीत मिली थी।
वह कहते हैं, “यहीं से बीएसपी की चुनावी सफलता की शुरुआत हुई थी। बहनजी ने बहुत मेहनत की थी, वह घर – घर गईं। उन्होंने एक पब्लिक में ऐलान किया ‘पंडितजी की बेटी इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बन गई। अब एक चमार की बेटी बनेगी’। ‘चमारी हूं, तुम्हारी हूं’ वाला नारा समर्थकों में उत्साह भर देता था।” अमर सिंह याद करते हुए बताते हैं कि कभी बिजनौर में पार्टी के पास सिर्फ पांच कार्यकर्ता हुआ करते थे और चुनाव सिर्फ 80,000 रुपये में लड़ा था। इसमें से भी 5,000 रुपये बच गए थे। वो बताते हैं कि कांशीराम ने कहा था कि अगर उनके पास एक लाख रुपये होते, तो वो 1987 में हरिद्वार भी जीत लेते।
अमर सिंह के साथी 70 वर्षीय रामनाथ सिंह जमीनी स्तर पर हुई लामबंदी को याद करते हैं, जिसने बीएसपी के उत्थान में अहम भूमिका निभाई। कांशीराम और मायावती साइकिल चलाकर गांव-गांव गए थे और हर समर्थक से दो – दो रुपये जमा किए थे। वो बताते हैं कि बिजनौर में एक भी गांव ऐसा नहीं था, जहां मायावती रात में न रुकी हों।
Mayawati BSP Decline: ‘पैसे, परिवार और कुछ चुनिंदा नेताओं…’ BSP की खराब हालत से दुखी हैं मायावती के कई पूर्व सहयोगी
1970 के दशक में बहुजन आंदोलन ने एक नई राजनीतिक चेतना को जन्म दिया था। 1984 में बीएसपी के गठन ने इस दृष्टिकोण को संस्थागत रूप दिया, जिसके परिणामस्वरूप मायावती 1990 के दशक और 2000 के दशक की शुरुआत तक तीन बार यूपी की सीएम बनीं। साल 2007 में मायावती ने पहली बार यूपी में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। पार्टी ने विधानसभा चुनाव में 206 सीटें जीतीं और फिर 2009 लोकसभा चुनाव में 21 सीटों पर पार्टी के प्रत्याशी जीते। इस जीत के पीछे मायावती की सोशल इंजीनियरिंग – दलितों, गैर-यादव ओबीसी, ब्राह्मणों और मुसलमानों का गठजोड़ बताया जाता है।
हालांकि फिर इसके बाद से बीएसपी लगातार कमजोर होती जा रही है। हैरान करने वाली बात यह थी कि मायावती खुद इस गिरावट को रोकने के लिए बहुत ज़्यादा कोशिश नहीं करती दिखीं। अधिक हैरानी की बात ये है कि उन्होंने अपनी पार्टी के कई लोगों को बोलने के लिए निकाल दिया। हाल ही में उन्होंने अपने भतीजे और कभी उत्तराधिकारी रहे आकाश आनंद को दो साल में दूसरी बार पार्टी से निकाल दिया। 90 के दशक में जो पार्टी बीजेपी की हिंदुत्व राजनीति के खिलाफ एक मजबूत दीवार थी, अब उसके पास कोई स्पष्ट विरोधी या सहयोगी नहीं है।
आज यूपी विधानसभा में बीएसपी के पास सिर्फ एक विधायक है और लोकसभा चुनाव में वह खाता खोलने में असफल रही। साल 2007 में जिस बीएसपी का यूपी में वोट शेयर 30% था, वह 2024 में घटकर 8% पर आ गया। यूपी में दलित 20% बताए जाते हैं लेकिन चुनावी परिणाम देखकर लगता है कि उनकी भी बीएसपी से मोहभंग हो गया है। अमर सिंह कहते हैं कि पार्टी की ये हालत देखकर दुख होता है। साहब (कांशीराम) ने हमें हमारी शक्ति का अहसास करवाया, हमें सशक्त बनाया और हमें सत्ता में पैर जमाने का मौका दिया।
द इंडियन एक्सप्रेस ने जब बीएसपी के नेशनल कोऑर्डिनेटर रणधीर सिंह बेनीवाल से पार्टी चुनावों को फिर से पैरों पर खड़ा करने के लिए किए जा रहे प्रयासों के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने कहा, “इस दिशा में व्यापक योजना बनाई जा रही है। बहनजी से चर्चा के बाद ही इसे शेयर किया जाएगा।” रणधीर सिंह बेनीवाल को मायावती ने हाल ही में अपने भाई आनंद कुमार की जगह नियुक्त किया है। पार्टी के सिकुड़ते जनाधार पर वो कहते हैं, “मैं नया-नया नियुक्त हुआ हूं। एक व्यापक स्टडी की जाएगी और उसपर बहनजी के साथ चर्चा की जाएगी।”
इस बारे में जब द इंडियन एक्सप्रेस ने मायावती के दफ्तर और नेशनल जनरल सेक्रेटरी सतीश चंद्र मिश्रा को मैसेज भेजे तो कोई जवाब नहीं मिला।
कभी कांशीराम द्वारा दलितों के साथ गैर यादव ओबीसी और मुस्लिम वोटरों को लेकर एक जिस गठबंधन की नींव रखी गई थी, वह आज जमीन पर लगातार कमजोर होता दिखाई दे रहा है। बीएसपी के मजबूत होने में गैर यादव ओबीसी मतदाताओं की बड़ी भागीदारी थी लेकिन वह अन्य दलों की तरफ चले गए हैं। कभी बीएसपी में रहे और बीएसपी द्वारा बढ़ाए गए बाबू सिंह कुशवाह, स्वामी प्रसाद मौर्य, ओम प्रकाश राजभर और डॉ.संजय निषाद जैसे नेताओं ने या तो अपनी पार्टी बना ली है या फिर वो बीजेपी के साथ चले गए हैं।
नगीना (बिजनौर के बराबर वाली लोकसभा) में बीएसपी के नेता रहे हरज्ञान सिंह प्रजापति कहते हैं, “ओबीसी में अलग से राजनीतिक चेतना नहीं है। कांशीराम के आंदोलन ने इस खाई को पाट दिया था, लेकिन सत्ता में आने के बाद पार्टी ने धीरे-धीरे उन्हें दरकिनार करना शुरू कर दिया और शशांक शेखर जैसे जाट सत्ता के केंद्र बन गए। बाबू सिंह कुशवाह जैसे लोगों की कोई नहीं सुनता था। पार्टी में ओबीसी कार्यकर्ताओं को अपना काम करवाने में दिक्कत होती थी, इसलिए वे समाजवादी पार्टी और बाद में बीजेपी में चले गए।”
हरज्ञान सिंह प्रजापति अब चंद्रशेखर की पार्टी आजाद समाज पार्टी कांशीराम में है। चंद्रशेखर ने लोकसभा चुनाव 2024 में नगीना से जीत हासिल की है। इस सीट को कभी बीएसपी का गढ़ माना जाता था। नगीना लोकसभा में चंद्रशेखर के प्रतिनिधि विवेक सैन कभी बीएसपी में थे। वह कहते हैं, “ओबीसी नेताओं ने कभी पार्टी नहीं छोड़ी, उन्हें पार्टी छोड़ने पर मजबूर किया गया। ऐसे हालात पैदा किए गए और बहनजी ने किसी को रोका नहीं।”
जैसे-जैसे ओबीसी नेता बीएसपी से दूरी बनाते गए, वैसे- वैसे मुस्लिम भी दूर होते गए। नगीना लोकसभा सीट में आने वाले धामपुर के बंदूकचियान बाजार में 76 साल के व्यापारी मोहम्मद शफीक याद करते है कि कैसे मायावती ने 1990 के बिजनौर दंगों के दौरान मुसलमानों की रक्षा के लिए कई किलोमीटर तक पैदल मार्च किया था। वो कहते हैं, “एक समय था जब बहनजी समाज के मुद्दों पर बात करती थीं। आज जब मुसलमानों को हर रोज अपमानित किया जा रहा है, तो वे चुप हो गई हैं। समाज उनके साथ क्यों रहेगा?”
नगीना में मुस्लिम भाईचारा कमेटी के अध्यक्ष परवजे पाशी कहते हैं, “बहनजी दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों जैसे कमजोरों के लिए लड़ती थीं। जब वो माइक थामती थीं तो दहाड़ती थीं। सत्ता में न होने पर भी अधिकारी उनसे डरते थे। बाद में बहनजी ने पार्टी बनाने वाले लोगों को नजरअंदाज करना शुरू कर दिया। फिर वो अपने वोटर्स को भूल गईं।”
दलितों में भी मायावती के रुख पर नाराजगी देखी जा सकती है। बिजनौरके अदोपुर गांव के प्रधान जोगिंदर सिंह (जाटव) कहते हैं, “लोग खुद को कटा हुआ महसूस करते हैं। वह अब खुलकर नहीं बोलतीं, न ही उनके नेता समुदाय से मिलते हैं। अगर आप लोगों से जुड़ेंगे ही नहीं तो वोट की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? अगर मैं गांव के लिए कुछ नहीं कर पाया तो लोग नए प्रधान की तलाश करेंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैंने पहले क्या किया है।”
जोगिंदर सिंह दावा करते हैं कि गांव में दलितों का एक वर्ग अब बीजेपी की तरफ जा चुका है। वो कहते हैं, “बीजेपी के पास संगठनात्मक ताकत है। हम पहले सिर्फ आरएसएस के बारे में सुनते थे, लेकिन अब उनका गांव में दफ्तर है। वे शाखाएं लगा रहे हैं। बीएसपी क्या कर रही है?”
नगीना लोकसभा का हिस्सा धामपुर तहसील में आने वाले गांव जैतारा में दिहाड़ी मजदूर मुकेश कुमार सिंह (50 वर्षीय) कहते कि उन्होंने पूरी जिंदगी सिर्फ बीएसपी के लिए वोट किया है लेकिन वो अपनी निराशा नहीं छिपाते। मुकेश कहते हैं, “बहनजी ने हमारे सम्मान के लिए बहुत कुछ किया है। इसलिए मैं सम्मान की वजह से उन्हें वोट देता हूं। लेकिन समुदाय बीएसपी से दूर होता जा रहा है। उन्होंने हमारे लिए हाल ही में क्या किया है? यहां तक कि सफाई कर्मचारियों की नौकरी भी दूसरों ने ले ली है। दूसरी तरफ, जब सपा सरकार सत्ता में आई, तो सभी पुलिस स्टेशनों पर यादव थे। बीजेपी भले ही नौकरी न दे रही हो, लेकिन कम से कम मुफ्त राशन तो देती ही है।”
लखनऊ में रिजर्व मोहनलालगंज विधानसभा सीट में आने वाले जलालाबाद गांव में 30 वर्षीय किसान और मजदूर राजेश कुमार कहते हैं कि 2012 में सत्ता खोने के बाद से ही बीएसपी गायब है। वे कहते हैं, “हम यहां सपा और बीजेपी के नेताओं को देखते हैं, बीएसपी को शायद ही कभी देखते हैं। अगर कोई पार्टी सत्ता में आने की कोशिश नहीं करती है तो दलित उससे क्यों जुड़े रहेंगे। हर कोई सत्ताधारी पार्टी या ऐसी पार्टी के साथ रहना चाहता है जिसमें जीतने की संभावना हो।” वे आगे कहते हैं कि उनका परिवार, जो परंपरागत रूप से बीएसपी समर्थक है, अब बीजेपी को वोट देता है। वो कहते हैं, “बीएसपी की जीत के लिए काम करना वोटरों की जिम्मेदारी नहीं है। यह नेताओं की जिम्मेदारी है।”
बीएसपी के कुछ नेता और कुछ पूर्व नेताओं का मानना है कि जमीन से मायावती की लगातार बढ़ती दूरी पार्टी के पतन का कारण बन रही है। वो मानते हैं कि महत्वपूर्ण मुद्दों पर चुप्पी और वंशवाद की राजनीति को अपनाना भी इसकी वजह हैं। इनके अलावा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हिंदुत्व की राजनीति का प्रभाव एक बड़ा एक्सटर्नल फैक्टर है।
बहुत सारे पूर्व बीएसपी नेताओं का मानना है कि टिकटों की बिक्री एक बड़ी वजह है। कभी बीएसपी में रहे ओमपाल बालियान कहते हैं, “बहनजी ने पार्टी को बाजार बना दिया। लोकल नेता और कार्यकर्ता 5 साल तक पार्टी की जमीन तैयार करने में लगे रहते हैं, लेकिन जब चुनाव आते हैं तो बाहर से पैसे वाले किसी व्यक्ति को टिकट मिल जाता है। यह निराश करने वाला था। ओमपाल बताते हैं कि जब वो नौवीं क्लास में थे, तभी बीएसपी से जुड़ गए थे। उनके पिताजी ने कांशीराम के साथ काम किया था लेकिन अब वो चंद्रशेखर की पार्टी में हैं।
बिजनौर में बीएसपी के पार्टी दफ्तर पर एक पार्टी कार्यकर्ता कहते हैं, “पहले बहनजी ओबीसी, ऊंची जाति या मुस्लिम को टिकट देती थीं, यह इस बात पर निर्भर करता था कि उम्मीदवार को अपने समुदाय में कितने वोट मिले हैं। इसमें दलित वोट भी जोड़ दें तो उम्मीदवार जीत जाता था।”इसके अलावा पार्टी के कुछ नेता मायावती के पहुंच से बाहर होने की भी शिकायत करते हैं। उनका मानना है कि साल 2003 की शुरुआत में पार्टी ने एक ऐसी व्यवस्था शुरू की, जिसमें कुछ वरिष्ठ पार्टी नेता पार्टी सुप्रीमो तक पहुंच को नियंत्रित करते थे। वो कहते हैं कि इस सिस्टम की वजह से ही कई कद्दावर नेता बीएसपी छोड़ गए, जिनमें नसीमुद्दीन सिद्दीकी (अब कांग्रेस में), आर के चौधरी, राम अचल राजभर, लालजी वर्मा, इंद्रजीत सरोज (अब सपा में) और स्वामी प्रसाद मौर्य (राष्ट्रीय शोषित समाज पार्टी के अध्यक्ष) शामिल हैं।
गौतमबुद्धनगर में स्थित मायावती के पैतृक गांव बादलपुर में रहने वाले दयानंद सिंह जाटव (बीएसपी के समर्थक) बताते हैं कि कुछ समय पहले गांव के कुछ बुजुर्ग गांव की कुछ समस्याएं लेकर मायावती से मिलने के लिए लखनऊ गए थे लेकिन वो नहीं मिलीं। दयानंद के पड़ोसी संदीप सिंह (दलित) बताते हैं कि पिछले 15 सालों में मायावती एक बार भी अपने गांव नहीं आई हैं। वो कहते हैं, “सपा नेताओं को देखिए, वो अपना गांवों में रहते हैं।”
ओमपाल बालियान कहते है कि ऐसा हमेशा नहीं था। वो कहते हैं, “बहनजी कभी कार्यकर्ताओं को बहुत महत्व देती थीं। नसीमुद्दीन सिद्दीकी बाहर बैठे होते और वे बिजनौर के कार्यकर्ताओं से मिलती थीं। हालांकि 2007 की सफलता के बाद मायावती ने ब्राह्मणों को लुभाकर न सिर्प पार्टी की विचारधारा से छेड़छाड़ की, बल्कि जमीनी स्तर से भी कट गईं। वो कहते हैं, “सत्ता पाने के बाद क्या आपने कभी किसी गरीब दलित को राखी बांधी? क्या आपने कभी अपने समुदाय के साथ बैठकर खाना खाया? क्या आपने कभी किसी मोची या रिक्शा चालक पर स्नेह बरसाया? ये सब राजनीतिक स्टंट लग सकते हैं, लेकिन ये मायने रखते हैं।”
बादलपुर गांव के संदीप सिंह कहते हैं कि परिवार के सदस्यों को पार्टी के वफादारों की जगह चुनने से कार्यकर्ताओं में असंतोष पैदा हुआ। वो कहते हैं, “कांशीराम को मायावती को नियुक्त करने में कभी कोई डर नहीं लगा। लेकिन उन्हें चंद्रशेखर आज़ाद को लेकर असुरक्षा महसूस हुई। इसके बजाय उन्होंने अपने भतीजे को चुना, जिसने कभी दलितों के गांव में कदम नहीं रखा।”
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लखनऊ में रहने वाले बीएसपी के एक सीनियर कार्यकर्ता कहते हैं, “मैं तब चुप हो जाता हूं जब वोटर मुझसे पूछते हैं कि मायावती बीजेपी के प्रति इतनी नरम क्यों हैं। वह कभी भी बीजेपी सरकारों की विफलताओं पर हमला नहीं करती हैं, बल्कि विपक्ष को निशाना बनाती हैं। और जब वह बीजेपी का ज़िक्र करती हैं, तो बेहतर शासन के लिए सुझाव देने के लिए। इससे गलत संदेश जाता है।”
वो कहते हैं कि सीतापुर में बीजेपी के खिलाफ भाषण देने पर आकाश आनंद को फटकार लगाई गई। इससे पार्टी कैडर और वोटर भ्रमित हो गए। वो कहते हैं, “आकाश बीएसपी के एकमात्र नेता थे जो बीजेपी से लोहा ले रहे थे। उन्हें पार्टी से निकालने से यह संदेश गया है कि बहनजी किसी तरह के दबाव में हैं।”
ओमपाल बालियान कहते हैं, “आप इतनी डरी हुई हैं कि आप बाहर ही नहीं आतीं, आप बोलती नहीं हैं? आज भी अगर मायावती सामने आकर बीजेपी को चुनौती दें तो पूरा समाज उनके पीछे खड़ा हो जाएगा। उन्हें किस बात का डर है? किसी में हिम्मत नहीं है कि उन्हें छू सके।”
बीएसपी के पतन के साथ ही दलितों की राजनीति में चंद्रशेखर का उदय हो रहा है। धामपुर में पूर्व बीएसपी विधायक रामेश्वरी देवी के घर के लिविंग रूम की दीवारों पर दलित महापुरुषों ज्योतिबा फुले, छत्रपति शाहू जी महाराज, अंबेडकर, कांशीराम और हाल ही में शामिल हुए चंद्रशेखर आजाद की तस्वीरें लगी हैं। पहले यह जगह मायावती की थी।
साल 1989 में मायावती ने नगीना लोकसभा सीट पर जीत हासिल की थी रामेश्वरी देवी तब बीएसपी के टिकट पर नगीना विधानसभा सीट जीती थीं। रामेश्वरी और उनके पति दोनों ही अखिल भारतीय पिछड़ा एवं अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी महासंघ (बामसेफ) के दिनों से बहुजन आंदोलन से जुड़े रहे हैं, जिसकी स्थापना कांशीराम ने 1971 में की थी।
बहुजन आंदोलन के उस संघर्ष को याद करते हुए रामेश्वरी और उनके पति मायावती की बिजनौर के एक कस्बे सियोहरा में हुई उस सभा के बारे में बताते हैं, जब “कोई भी कुर्सी देने को तैयार नहीं था”। वो बताते हैं कि आखिरकार बैठक तब हुई जब उन्होंने मायावती के बैठने के लिए ईंटों का इंतजाम किया। वो कहती हैं, “शुरुआती दिनों में हमने मिशन के लिए निस्वार्थ भाव से काम किया। लेकिन चीजें बदल गईं। लालच हावी हो गया। अब चंद्रशेखर आज़ाद हमें उम्मीद की किरण दिखा रहे हैं।”
हालांकि अभी भी बिजनौर स्थित बीएसपी दफ्तर में और कई अन्य जगहों पर भी आशा की एक किरण बाकी है। एक कार्यकर्ता द इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में कहते हैं, “बहनजी को आज भी बहुत सम्मान मिलता है। अगर वह आगे आएं, अपनी गलतियों को स्वीकार करें और लड़ें, तो लोग वापस लौट आएंगे।”
मोहनलालगंज में एक सीनियर पार्टी कार्यकर्ता कहते हैं कि बहनजी को वोटर्स को यह विश्वास दिलाने के लिए सार्वजनिक रूप से बीजेपी सरकार पर हमला करना शुरू करना होगा कि वह उनसे मुकाबला कर रही हैं। उन्हें पूरे राज्य में यात्रा करनी होगी… अगर वह ऐसा करती हैं, तो बीएसपी मुसलमानों सहित अन्य वोटर्स का विश्वास भी जीत लेगी।
बादलपुर में मायावती के कार्यकाल में स्थापित एक सूखे पड़े मछली पालन केंद्र के रखवाले सत्येंद्र सिंह कहते हैं, “अगर और निवेश किया जाए तो केंद्र को पुनर्जीवित किया जा सकता है। प्रशासन को इस पर फैसला लेना होगा।”
यही बात मायावती की बीएसपी के लिए भी सच है। वह यह फैसला लेती हैं या नहीं, यह पार्टी के भविष्य के लिए निर्णायक सवाल बना हुआ है।
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