कुछ अरसे से महंगे हवाई किराए को लेकर विभिन्न स्तरों पर चिंता जताई जा रही है। जब भी यह मुद्दा उठता है, सरकार अपनी ‘उड़ान योजना’ का नारा- ‘हवाई चप्पल वालों को हवाई यात्रा’ जोर-शोर से दोहराने लगती है। विपक्ष का जवाब होता है- ‘हवाई चप्पल में हवाई जहाज, यह सब हवाबाजी’। दावों-प्रतिदावों के शोर में आम आदमी का हवाई जहाज में उड़ने का सपना टूट रहा है। दरअसल, विमानन कंपनियों को मांग आधारित किराया प्रणाली लागू करने की छूट है, जिससे उनको मनमानी करने में सुविधा हो रही है।
सरकार कहती है कि टिकटों की कीमत की ऊपरी सीमा तय की जाएगी, लेकिन ऐसा होता नहीं है। हवाई सेवाओं में निजी कंपनियों को इसलिए प्रवेश दिया गया था कि उससे प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी, कीमतें कम होंगी और लाभ उपभोक्ताओं को मिलेगा। कुछ अरसे तक ऐसा हुआ भी। लेकिन कोरोना काल के बाद राहत देने के मकसद से सरकार ने विमानन कंपनियों को टिकट की दरों में कुछ बढ़ोतरी की इजाजत दे दी। राहत के नाम पर यह बढ़ोतरी पैंतालीस फीसद तक की बढ़ोतरी हो गई है। विमान सेवा अब तेजी से बेहद महंगी और बहुत सारे लोगों की पहुंच से बाहर होती जा रही है।
जाहिर है, विमानन कंपनियों के इस तरह मुनाफा कमाने पर कोई लगाम नहीं है। प्रमुख त्योहारों के समय, शादियों के मौसम में या छुट्टियों के दौरान कहीं जाने वालों से मुनाफाखोरी होने पर भी नागर विमानन मंत्रालय आंखें मूंदे रहता है। नतीजा यह कि यात्रियों के हितों को नजरअंदाज करते हुए ज्यादातर कंपनियां अंतिम समय में बेहिसाब किराया बढ़ा देती हैं। हैरत है कि सरकार न तो हस्तक्षेप करती है और न ही कोई दिशा-निर्देश जारी करती है।
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लोकसभा में एक चर्चा के तहत देश में हवाई यात्रा के किराए के विनियमन के लिए उचित उपाय के संदर्भ में इन्हीं मसलों पर सवाल उठ रहे हैं। हालत यह है कि मांग आधारित किराए की व्यवस्था में जब तीन-चार हजार का टिकट अठारह या बीस हजार का हो जाए, तो हवाई सफर सपना ही बनने लगता है। मांग बढ़ने पर या अंतिम समय में टिकट चाहने वालों से मनमाना किराया वसूलने के पीछे आखिर क्या आधार होते हैं? आखिर सरकार विमान किराए में पारदर्शिता लाने, मनमानी और मुनाफाखोरी पर अंकुश लगाने में क्यों विफल हो रही है?