विधानसभा से लेकर संसद और सड़क तक, सियासत इन दिनों असंतोष और असमंजस से घिरी नजर आ रही है। सुप्रीम कोर्ट ने तेलंगाना में विधायकों की दल-बदल पर राज्य सरकार को फटकार लगाई, तो दूसरी ओर समाजवादी पार्टी दलित राजनीति के जरिए राजपूतों से सीधा टकराव लेने की तैयारी में दिख रही है। उत्तराखंड में त्रिवेंद्र रावत की बयानबाज़ी और महाराष्ट्र में धनंजय मुंडे की नाराजगी सत्ता के भीतर उबलते असंतोष की कहानी कह रही है। इसी बीच राज्यसभा के सत्र का अनोखा अंत और पूर्व सीएम की जुबानी जंग ने देश की राजनीति को और गर्मा दिया है। सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र के इस मौसम में संविधान की मर्यादा और दलों का संयम बच पाएगा?
रेवंत रेड्डी को सुप्रीम कोर्ट से भी फटकार लग गई। बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने तेलंगाना के विधायकों के दल-बदल के मामले की सुनवाई के दौरान तेलंगाना सरकार के वकील से कहा कि विधानसभा के भीतर अध्यक्ष की मौजूदगी में संविधान की दसवीं अनुसूची का मजाक उड़ाया गया। लोकतंत्र में इसे सहन नहीं किया जा सकता। रेड्डी ने कहा था कि बीआरएस के जो विधायक कांगे्रस के साथ आए हैं, उन्हें उपचुनाव नहीं लड़ना पड़ेगा। बीआरएस की तरफ से ऐसे बागी विधायकों को सदन की सदस्यता से अयोग्य घोषित करने के लिए विधानसभा अध्यक्ष को प्रत्यावेदन दिया गया था। डेढ़ साल बीत चुका है पर अध्यक्ष ने अपना फैसला नहीं सुनाया। मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। अदालत अध्यक्ष की गरिमा का ध्यान रखते हुए उन्हें खुद कोई निर्देश देने से बच रही है। बीआरएस के एक बागी विधायक तो कांगे्रस के टिकट पर पिछला लोकसभा चुनाव भी लड़ चुके हैं। अगर कोई विधायक दूसरी पार्टी में शामिल होता है तो सदस्यता से इस्तीफा देकर नई पार्टी के उम्मीदवार की हैसियत से उपचुनाव लड़ता है। लगता है कि रेड्डी उपचुनाव से डर रहे हैं। कांगे्रस में शामिल होने से पहले रेवंत छात्र संगठन विद्यार्थी परिषद के पदाधिकारी थे। राहुल गांधी तो संविधान की दुहाई देते नहीं थकते और उनके एक मुख्यमंत्री उसी संविधान की धज्जियां उड़ा रहे हैं।
रामजी लाल सुमन के बयान पर समाजवादी पार्टी सरकार के खिलाफ आक्रामक है। रामजी लाल सुमन पुराने समाजवादी ठहरे। वे दलित हैं। इसे राजपूत बनाम दलित के मुद्दे के रूप में उभारना मंशा लगती है सपा की। अखिलेश यादव खुद संसद में कह चुके हैं कि रामजी लाल सुमन के बयान पर चर्चा होनी चाहिए। रामजी लाल सुमन ने राणा सांगा पर जो भी कहा, सोच समझकर ही कहा होगा। उनके इस बयान के बाद आगरा में उनके घर पर करणी सेना से जुड़े राजपूतों ने हमला किया था। इस हमले से जुड़े किसी भी आरोपी को पुलिस ने अभी तक गिरफ्तार नहीं किया है। मायावती के कमजोर होने के बाद अखिलेश यादव की निगाह सूबे के करीब 20 फीसद दलित वोटों पर है। वे समझ गए हैं कि योगी के मुख्यमंत्री रहते राजपूत तो सपा के साथ आने से रहे। हां, रामजी लाल सुमन को उभारकर दलितों में जरूर पैठ बनाई जा सकती है।
बजट सत्र के अंतिम दिन शुक्रवार को दो बार के स्थगन के बाद दोपहर एक बजे राज्यसभा की कार्यवाही शुरू हुई। सभापति जगदीप धनखड़ ने बताया कि इस सत्र में एक दिन कार्यवाही सुबह 11 बजे शुरू होकर अगले दिन सुबह 4:02 बजे तक चली। ऐसा इतिहास में पहली बार हुआ। इसके बाद सभापति ने राष्ट्र गीत के लिए सदस्यों को खड़े होने के लिए कहा। राष्ट्र गीत के खत्म होने के बाद सभापति आसन के पीछे चले गए। तभी उनके मार्शलों ने उन्हें इशारा किया और उन्होंने वापस आकर सदन के अनिश्चितकाल के लिए स्थगन की घोषणा की। इसके साथ ही सदन ठहाकों से गूंज उठा। सभापति ने कहा कि मैं सदन की कार्यवाही को जारी रखने के लिए बहुत उत्सुक था।
उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत सूबे की अपनी ही सरकार पर वार करने से नहीं चूक रहे। रावत इस समय हरिद्वार से पार्टी के सांसद हैं। पिछले दिनों उन्होंने लोकसभा में सूबे के अवैध खनन का मुद्दा उठाकर धामी सरकार की किरकिरी करा दी। यह सूबे के अंदर विपक्षी पार्टी के लिए हथियार बन गया। पार्टी में नाराजगी के बाद रावत ने सफाई भी दी कि फिर मुख्यमंत्री बनने की उनकी कोई हसरत नहीं है और उन्होंने किसी को व्यक्तिगत निशाना नहीं बनाया। उनका संकेत मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की तरफ ही था। संसद में सूबे के अवैध खनन की चर्चा पर विभाग के सचिव ब्रजेश कुमार संत ने अपनी सफाई देते हुए इसका खंडन कर दिया। जो त्रिवेंद्र सिंह रावत को अखरा। पत्रकारों के पूछने पर उन्होंने कह दिया कि शेर कुत्तों का शिकार नहीं करते। रावत के इस पलटवार के बाद सूबे की नौकरशाही भी उबल पड़ी। आइएएस एसोसिएशन ने भी नौकरशाहों की गरिमा का वास्ता देते हुए बयान जारी किया। पर रावत तो यही सफाई दे रहे हैं कि उनके लिए अपने संसदीय क्षेत्र के पर्यावरण का संरक्षण बड़ा मुद्दा है। वे सिर्फ पर्यावरण के हित में अपनी आवाज उठा रहे थे। खनन सचिव संत ठहरे दलित। सो विपक्षी कांगे्रस को भाजपा नेताओं की इस जुबानी जंग में टांग अड़ाने का मौका मुफ्त में मिल गया है। यह मुद्दा शांत होने के बाद रावत अपना विरोध जताने के लिए दूसरा मुद्दा भी खोज ही लेंगे।
मंत्री पद से त्यागपत्र के बाद धनंजय मुंडे कोपभवन में चले गए हैं। भाजपा के कद्दावर नेता रहे गोपीनाथ मुंडे के भतीजे धनंजय इस समय अजित पवार की राष्ट्रवादी कांगे्रस पार्टी में हैं। पिछले दिनों एक सरपंच की हत्या में करीबी की गिरफ्तारी के बाद धनंजय मुंडे विवादों में घिर गए थे। अजित पवार ने कोशिश की थी कि उन्हें इस्तीफा न देना पड़े। पर बीड़ इलाके में हत्या को लेकर बढ़ रहे जन आक्रोश को देखते हुए देवेंद्र फडणवीस ने अजित पवार पर दबाव बनाया था कि मुंडे से इस्तीफा लें। मुंडे ने बेमन से इस्तीफा दे दिया और फिर सार्वजनिक कार्यक्रमों से किनारा कर लिया। हद तो तब हो गई जब इसी हफ्ते अजित पवार बीड़ के दौरे पर गए तो धनंजय मुंडे नहीं दिखे। वे मुंबई आ गए। अजित पवार से पत्रकारों ने वजह पूछी तो कह दिया कि उनकी तबियत ठीक नहीं है और कार्यक्रम में न रह पाने की सूचना उन्होंने पहले ही दे दी थी। पर जानकार तो इसे अजित पवार से मुंडे की नाराजगी का संकेत ही बता रहे हैं। अजित पवार के लिए यह मसला पेचीदा तो हो गया है।