India Pakistan Indus Water War: साल 1947 के अगस्त में जब भारत पाकिस्तान का बंटवारा हुआ था नक्शे में लकीर खींचने वाले सिरिल रेडक्लिफ को पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना से काफी आलोचना सुनने को मिली थी। पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना ने सीमा आयोग के अध्यक्ष से कहा कि उन्हें हिंदुओं की तरफ सींचे गए उपजाऊ खेतों की बजाय रेगिस्तान चाहिए। दूसरी ओर जवाहरलाल नेहरू की फटकार संयुक्त हिंदू-मुस्लिम फटकार के तौर पर सामने आई थी।
पंजाब में देरी से मानसून आया था और भीषण गर्मी से जूझते हुए क्षेत्र में रेडक्लिफ के सामने समस्या ये थी कि उन्हें दोनों ही देशों को सिंचाई प्रणाली का नियंत्रण सौंपना था, जिसे “ब्रिटिश प्रेरणा से मुख्य रूप से सिखों के पैसे, डिजाइन और मेहनत से बनाया गया था, जिससे विस्तृत नहरों की एक प्रणाली के माध्यम से नदी के पानी को शुष्क पश्चिम की ओर ले जाया जा सके। इससे प्रांत भारत के अन्न भंडार के रूप में उभरा था।
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इस क्षेत्र में पानी की आपूर्ति करने वाली पांच नदियां पूर्व में थीं और अनिवार्य रूप से भारत के अधीन आती थीं, जिस भूमि पर वे सिंचाई करती थीं वह अधिकांशतः पश्चिम में थी, जो पाकिस्तान बन गई। रेडक्लिफ ने महसूस किया कि विभाजन ने बेहतरीन जल नेटवर्क को खतरा पहुंच रहा है। रैडक्लिफ़ ने वायसराय के माध्यम से जिन्ना और नेहरू के पास एक प्रस्ताव रखा: क्या दोनों नेता इस नदी-नहर प्रणाली को भारत-पाकिस्तान संयुक्त रूप से इस्तेमाल करने के लिए सहमत होंगे, या नहीं।
इसको लेकर ब्रिटिश लेखक लियोनार्ड मोस्ले ने 1962 में अपनी किताब ‘द लास्ट डेज़ ऑफ़ द ब्रिटिश राज’ में लिखा कि दोनों नेता स्पष्ट रूप से उनसे नाराज़ थे। उनके सुझाव के लिए उन्हें हिंदू-मुस्लिम दोनों ने मिलकर फटकार लगाई। जिन्ना ने उनसे कहा कि वे अपना काम जारी रखें और यह अनुमान लगाया कि उन्हें हिंदुओं के सौजन्य से सींचे जाने वाले उपजाऊ खेतों की बजाय पाकिस्तान के रेगिस्तान पसंद हैं। नेहरू ने उन्हें रूखेपन से बताया कि भारत अपनी नदियों के साथ जो कुछ भी करता है, वह भारत का मामला है। मोस्ले के अनुसार, यह सीमा आयोग के अध्यक्ष के रूप में रैडक्लिफ का एकमात्र रचनात्मक सुझाव देने का प्रयास था। दोनों पड़ोसियों के बीच साझा जल का मुद्दा तब से ही विवादास्पद बना हुआ है।
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नहरों पर संयुक्त नियंत्रण के सवाल से बाहर होने के कारण दिसंबर 1947 में एक “स्थिर समझौते” के रूप में एक अस्थायी समाधान पाया गया था, जिससे समाधान के लिए बातचीत करने के लिए मार्च 1948 तक का समय मिल जाए। हालांकि किसी भी पक्ष ने समयसीमा बढ़ाने के लिए कोई पहल नहीं की, और भारत ने 1 अप्रैल, 1948 को पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में दीपालपुर नहर को सतलुज पर भारतीय पंजाब के फिरोजपुर हेडवर्क्स से पानी की आपूर्ति बंद कर दी। इसने सिंधु प्रणाली के पानी के बंटवारे को लेकर औपचारिक भारत-पाकिस्तान विवाद को भी शुरू कर दिया।
वहीं एक महीने बाद 30 अप्रैल को, नेहरू ने पूर्वी पंजाब सरकार को पानी की आपूर्ति फिर से शुरू करने का आदेश दिया। 4 मई को हस्ताक्षरित एक समझौते में, भारत ने आश्वासन दिया कि बिना किसी पूर्व सूचना और वैकल्पिक स्रोतों को बनाने के लिए, समय दिए बिना पानी नहीं रोका जाएगा। दूसरी ओर पाकिस्तान ने भारतीय पंजाब में संसाधनों के विकास के लिए भारत की वैध आवश्यकता को मान्यता दी थी।
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हालांकि, दो साल बाद पाकिस्तान ने कहा कि उसने मई 1948 के समझौते को “मजबूरी” में स्वीकार किया और दबाव में हस्ताक्षर किए। जवाब में नेहरू ने लिखा कि इससे ज़्यादा असाधारण बयान मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने कभी सुना हो। आपकी सरकार को यह पता लगाने में दो साल लग गए कि समझौते पर दबाव में हस्ताक्षर किए गए थे।
विश्व बैंक की पहल से 1951 में यह गतिरोध टूट गया और 1960 में सिंधु जल संधि पर हस्ताक्षर होने से पहले समझौते पर पहुंचने में नौ साल लग गए लेकिन पाकिस्तान भारत के प्रति सतर्क बना रहा था। आधी सदी बाद पाकिस्तान ने 2011 में किशनगंगा जलविद्युत परियोजना के खिलाफ नीदरलैंड के हेग में स्थायी मध्यस्थता न्यायालय (पीसीए) का दरवाजा खटखटाया, जिसमें पक्षों के बीच विश्वास की भारी कमी और 1948 के ऐतिहासिक अनुभव का हवाला दिया गया था।
इन सबके बीच जम्मू कश्मीर आतंकवादी घटनाओं के बढ़ने के बाद अब भारत ने सिंधु जल समझौते को पूरी तरह से रद्द करने का ऐलान किया है, जो कि पाकिस्तान के लिए एक बड़े संकट की वजह बन सकता है।