अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का उद्देश्य वैश्विक आर्थिक स्थिरता को बढ़ावा देना और आर्थिक संकट में फंसे देशों को सहायता प्रदान करना है। मगर जब यह यह आतंकवाद को पालने-पोसने वाले देश को बार-बार भारी कर्ज देती है, तो इसकी निष्पक्षता, दीर्घकालिक रणनीति और उसकी मंशा पर सवाल उठना स्वाभाविक है। भारत के स्पष्ट विरोध और वैश्विक आतंकवाद के केंद्र के रूप में पाकिस्तान की व्यापक पहचान के बावजूद मुद्राकोष से पिछले दिनों उसे नया कर्ज मिलना इस बहस को और गहरा करता है।

भारत ने मुद्राकोष और अन्य वैश्विक मंचों पर स्पष्ट रूप से विरोध दर्ज कराया था कि आतंकवाद को संरक्षण देने वाले देशों को बिना किसी उत्तरदायित्व के आर्थिक मदद नहीं दी जानी चाहिए। इसके बावजूद पाकिस्तान को बार-बार सहायता मिलना यह स्पष्ट संकेत है कि मुद्राकोष की प्राथमिकताएं अब आर्थिक नहीं, बल्कि राजनीतिक भी हैं। पश्चिमी शक्तियों की भू-राजनीतिक विवशताएं पाकिस्तान को ‘अस्थिर लेकिन उपयोगी मोहरा’ बनाए रखती हैं और भारत की चिंताओं को केवल ‘क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता’ के चश्मे से देखा जाता है, जबकि ये चिंताएं वैश्विक सुरक्षा से जुड़ी होती हैं।

वैश्विक वित्तीय संस्थानों का उद्देश्य किसी भी देश को आर्थिक संकट से उबारना होता है, लेकिन जब ये संस्थान बार-बार एक ही देश को मदद देते हैं और वह देश न तो सुधार करता है, न ही पारदर्शिता दिखाता है, तब सवाल उठेंगे ही। मुद्राकोष की शर्तें न तो सार्वजनिक की जाती हैं और न ही उनका पालन सुनिश्चित होता है। उसकी सहायता से पाकिस्तान अपनी सामाजिक योजनाओं के बजाय सैन्य खर्च और आतंकी संजाल को मजबूत करता रहा है। जम्मू-कश्मीर में आतंकी घुसपैठ, पुलवामा और पहलगाम जैसे हमले तथा आइएसआइ की गतिविधियां मुद्राकोष की ओर से अप्रत्यक्ष रूप से वित्तपोषित की गई सैन्य ताकत का दुष्परिणाम हैं। हैरानी है कि बार-बार आर्थिक मदद मिलने के बावजूद पाकिस्तान की आर्थिक हालत बदतर हो रही है। ताजा सहायता राशि से पहले भी मुद्राकोष ने पाकिस्तान को कई बार राहत पैकेज दिए हैं।

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पाकिस्तान को वर्ष 1958 से लेकर 2024 तक मुद्राकोष ने भारी-भरकम सहायता दी है, पर न तो यह देश अपनी वित्तीय संरचना सुधार पाया और न ही आतंकी गतिविधियों पर अंकुश लगा सका है। वहीं भारत ने मुद्राकोष से वर्ष 1991 में संकट के समय एकमुश्त सहायता ली थी। उसके बाद देश की आर्थिक नीतियों और वैश्विक सहभागिता ने उसे विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक बना दिया है। आज जब पड़ोसी मुल्क में महंगाई दर 30 फीसद के पार है, विदेशी मुद्रा भंडार मुश्किल से दो महीने के आयात के लायक बचा है और पाकिस्तानी रुपया ऐतिहासिक गिरावट का सामना कर रहा है, तब मुद्राकोष की ‘नरम’ नीति पर प्रश्नचिह्न लगाना जरूरी हो जाता है।

वर्ष 2023 में मुद्राकोष ने पाकिस्तान को तीन अरब डालर की राहत दी थी। उस समय पाकिस्तान ने अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपनी साख खो दी थी। तब देश में खाद्य वस्तुओं की भारी किल्लत थी और सैन्य खर्च कम करने के बजाय जनता पर कर बढ़ाए जा रहे थे। मुद्राकोष ने जिन कथित शर्तों के साथ वह राशि दी, वे न तो पारदर्शी थीं, न ही पाकिस्तान ने उनका अनुपालन सुनिश्चित किया। इसके बाद पाकिस्तान को हाल में उसने 8500 करोड़ रुपए (लगभग एक अरब डालर) की सहायता ऐसे समय में दी, जब वह न केवल दिवालिया हो चुका है, बल्कि पहलगाम आतंकी हमले में उसकी संलिप्तता भी जगजाहिर है। ऐसे में सवाल उठता है कि मुद्राकोष ऐसे देश को सहायता क्यों देता है, जो आतंकवाद को प्रश्रय देता है। पाकिस्तान की सैन्य नीति और आतंकवादी संगठनों के साथ उसका संबंध किसी से छिपा नहीं है। ‘फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स’ (एफएटीएफ) की निगरानी सूची से हटाए जाने के बावजूद पाकिस्तान की गतिविधियों में कोई ठोस सुधार नहीं दिखता।

अमेरिका और कुछ पश्चिमी देशों के लिए पाकिस्तान, अफगानिस्तान, चीन और मध्य एशिया के समीकरण में एक ‘महत्त्वपूर्ण’ खिलाड़ी है, जिसे आर्थिक रूप से जिंदा रखना उनकी रणनीति का हिस्सा हो सकता है। इसके अलावा मुद्राकोष का नीति-निर्माण अभी भी अमेरिका और यूरोपीय देशों के नियंत्रण में है। भारत, चीन और ब्राजील जैसे विकासशील देशों की आवाज अपेक्षाकृत कमजोर रहती है। मुद्राकोष मानता है कि पाकिस्तान को सहायता न देने से उसकी पूरी अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो सकती है, जिससे क्षेत्रीय अस्थिरता और प्रवासन का संकट उत्पन्न हो सकता है।

भारत मुद्राकोष और विश्व बैंक का एक सक्रिय भागीदार है, न कि कोई आश्रित देश। भारत अब तक मुद्राकोष को पांच अरब डालर से अधिक की सहायता दे चुका है और वैश्विक दक्षिण की प्रखर आवाज है। भारत की वैश्विक कूटनीति स्पष्ट और उद्देश्यपरक रही है। चाहे जी20 की अध्यक्षता हो, ब्रिक्स में भूमिका हो या संयुक्त राष्ट्र में विकासशील देशों की आवाज उठाना हो, भारत की नीतियां समावेशी, न्यायोचित और विवेकशील रही हैं। भारत मुद्राकोष में अपनी भूमिका को अब केवल योगदानकर्ता के रूप में नहीं, नीति निर्धारक के रूप में देख रहा है।

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पाकिस्तान को मुद्राकोष से मिलने वाली सहायता पर आलोचना इसलिए भी होती है, क्योंकि यही संस्था भारत जैसे देश से कठोर आर्थिक अनुशासन की अपेक्षा रखती है। उदाहरण के तौर पर देखें तो 1991 में भारत को मुद्राकोष सहायता तभी मिली थी, जब इसने अपने सोने के भंडार को गिरवी रखा था। इसके अलावा भारत को व्यापक आर्थिक सुधार, निजीकरण और राजकोषीय अनुशासन लागू करना पड़ा था। दूसरी ओर, पाकिस्तान को 2023 में बिना किसी कड़ी शर्त के सहायता मिली, जबकि यह देश उस समय एफएटीएफ की सूची में जाने के कगार पर था। यह दोहरा मापदंड मुद्राकोष की निष्पक्षता पर गंभीर प्रश्न उठाता है।

गौरतलब है कि भारत अब केवल मुद्रा कोष का ग्राहक नहीं, बल्कि उसका नीति निर्धारक बनने की दिशा में अग्रसर है। ऐसे में भारत की यही मांग है कि अब सभी वैश्विक संस्थान आतंकवाद को प्रायोजित करने वाले देशों को सहायता देने से पहले वैश्विक सुरक्षा, पारदर्शिता और मानवाधिकारों की कसौटी पर उन्हें परखा जाए। मुद्राकोष को अब यह समझना होगा कि इक्कीसवीं सदी में आर्थिक सहायता केवल ऋण नहीं, बल्कि उत्तरदायित्व, रणनीति और वैश्विक स्थिरता का उपकरण है। भारत दृढ़ता से, तथ्यों के साथ और एक जिम्मेदार शक्ति की तरह इसी वैश्विक संतुलन की वकालत करता है। बहरहाल, मुद्राकोष को अब यह तय करना होगा कि क्या वह वाकई वैश्विक स्थिरता के लिए काम करता है या केवल कुछ राष्ट्रों की रणनीतिक आवश्यकताओं का उपकरण भर बन कर रह गया है।