दुनिया चाहे जिस भी स्वरूप में हो, मनुष्य को जीवन चलाने के लिए खाद्यान्न की जरूरत होती ही है। चाहे आधुनिक प्रगति के नवीनतम प्रतिमानों के आधार पर आगे बढ़ चुके विकसित देश हों या फिर ऐसे प्रतिमानों को छूने के प्रयास में आगे बढ़ रहे विकासशील देश, सभी जगह नागरिकों को जीने के लिए भोजन चाहिए। यह दुखद है कि प्रगति की रफ्तार के साथ देश-दुनिया में खेती-किसानी दोयम दर्जे का काम बन कर रह गया है। इसी का नतीजा है कि खाद्यान्नों, प्रसंस्करित खाद्य पदार्थों और यहां तक कि पेय पदार्थों में भी जरूरी पोषक तत्त्व खत्म होते जा रहे हैं। बीते चार-पांच दशकों में जिस गति से देश की आबादी बढ़ी है उसी गति से प्राकृतिक कृषि में कमी भी आई है। ढांचागत विकास जैसे रेलवे, सड़क परिवहन, कारखाना स्थलों, हवाईअड्डों, बस अड्डों, स्कूल-कालेजों, अस्पतालों व नगरों-महानगरों में आवासीय भवनों के विस्तार के कारण ग्राम्य क्षेत्रों की वानिकी और कृषि भूमि सिकुड़ती गई है। नतीजतन, कृषि कार्य भी सिकुड़ता गया।

आधुनिक जीवन का ऐसा अभ्यास कम-ज्यादा मात्रा में पूरी दुनिया में हो रहा है और बीते चार-पांच दशकों में तो इस अभ्यास में बहुत ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। इसके विपरीत, इसी दौरान देश-दुनिया की आबादी में बहुत ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। इतनी बड़ी आबादी की खाद्य जरूरतें तो बनी ही हुई हैं। इनमें कमी का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। बड़ी जनसंख्या की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकारों के माध्यम से कृषि क्षेत्र और कृषकों पर पैदावार बढ़ाने और इसके लिए रासायनिक उर्वरकों, खाद एवं फसलों में बढ़ोतरी के लिए दूसरे रसायनों के इस्तेमाल का दबाव बीते चालीस-पचास वर्षों से बना हुआ है।

मगर अब रासायनिक उर्वरक, खाद और दूसरे रसायन पैदावार बढ़ाने के जरूरी घटक बन गए हैं। अब किसान चाह कर भी इनका इस्तेमाल बंद नहीं कर सकते हैं। रासायनिक खादों की मदद से पैदा होने वाले अनाज में जरूरी पोषक तत्त्व तो पूरी तरह खत्म हो चुके हैं, लेकिन सिकुड़ती कृषि भूमि में बड़ी आबादी की जरूरत के हिसाब से ज्यादा पैदावार करने का मौका किसानों के हाथ लग गया है।

चार दशक से किसान कृषि अभ्यास में पूरी तरह निपुण हो चुके हैं। साथ ही वे ऐसी खेती-किसानी से ज्यादा फायदे की स्थिति में हैं। ऐसी किसानी के बाद पैदावार बढ़ रही है। सरकारी गोदामों में अनाज के अंबार लगे हुए हैं। फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य साल-दर-साल बढ़ ही रहा है। किसानों को खाद, बीज, रसायन और दूसरी चीजें सरकारी रियायत पर मिल रही हैं। कुछ वर्षों से तो कई तरह की सबसिडी भी किसानों को मिल रही है। देखा जाए तो आधुनिक खेती-किसानी किसानों, सरकारों और अनाज की सबसिडी पाने वाले गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों के लिए सीधे-सीधे सुविधाजनक प्रतीत होती हैं, लेकिन इस खेती के अन्न को खाकर लोग असाध्य और लाइलाज बीमारियों की चपेट में भी आ रहे हैं। चिकित्सा क्षेत्र और सरकारों के लिए यह स्थिति चिंताजनक इसलिए नहीं है क्योंकि यहां भी वे आपदा में अवसर ढूंढ़ लेते हैं। बीमारियों के बढ़ने से चिकित्सा अनुसंधान, चिकित्सीय उपकरणों, दवाइयों, साजो-सामान के व्यवसाय एवं कारखाने फलते-फूलते हैं।

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इस प्रकार रासायनिक खाद्यान्न के उत्पादन, इसके बुरे प्रभावों और इस कारण पैदा होने वाली बीमारियों के इलाज के लिए अस्पतालों के चक्कर काटने में बीत रही आम आदमी की जिंदगी के प्रति सरकारें अनुदार हो चुकी हैं। मानवीय जीवन का अर्थ अब केवल आर्थिक प्रगति की परिधि में सिमट कर रह गया है। इस कारण लगातार उत्पन्न होने वाली विसंगतियों के मकड़जाल से बाहर निकलना दिनोंदिन असंभव होता जा रहा है। मानव जीवन पर छाए ऐसे संकट के बीच खबर है कि भारत विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। मगर इस परिप्रेक्ष्य में आर्थिक प्रगति के वास्तविक लक्ष्यों की प्राप्ति में वाकई कितनी कामयाबी मिली है, यह भी विचारणीय होना चाहिए।

अगर चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की उपलब्धि हासिल करने के लिए हमें आयात शुल्क, उपभोक्ता खरीद, आबादी के उपभोग, सेवा क्षेत्रों, इत्यादि कारकों पर ज्यादा निर्भर रहना पड़ा है, तो यह हमारी पूरी तरह संतुलित आर्थिक स्थिति नहीं हो सकती। हमें दुनिया के सामने एक नया आदर्श कायम करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। हम अपनी आर्थिक प्रगति का सबसे बड़ा आधार अपनी कृषि को बनाएं। भारत की पूरी आबादी का साठ फीसद से ज्यादा हिस्सा रोजगार के लिए अब भी कृषि क्षेत्र पर आश्रित है। चाहे कृषि अप्राकृतिक तरीके से ही क्यों न हो रही हो अथवा सबसिडी के रूप में बहुत बड़ी आबादी को कई वर्षों से मुफ्त अनाज और मानदेय ही क्यों न दिया जा रहा हो, इससे सिद्ध होता है कि ज्यादातर लोगों का आर्थिक जीवन कृषि पर ही निर्भर है।

दुनिया में आर्थिक रूप से तरक्की करने के लिए भारत को अपने बचे-खुचे कृषि क्षेत्र पर नए सिरे से विचार करना होगा। इसके लिए सबसे पहले पूरे कृषि क्षेत्र की जमीन का इस आधार पर संरक्षण हो कि भविष्य में इसका उपयोग केवल और केवल कृषि के लिए ही हो। दूसरा, रासायनिक और अप्राकृतिक उर्वरक-खाद पर आधारित कृषि को धीरे-धीरे त्यागना होगा। तीसरा, विशुद्ध प्राकृतिक खेती की दिशा में लगातार प्रयास करने होंगे। पैदावार को हर स्तर पर, हर रूप से और हर बार प्राकृतिक पोषक तत्त्वों से संचित करने के उपक्रम करने होंगे। दुनिया में मौजूद सभी उपभोक्ता सामग्रियों में सबसे ज्यादा और बार-बार खाद्य सामग्रियों का उपभोग होता है। यह विलासी जरूरत नहीं है, बल्कि यह जीवन के लिए सबसे ज्यादा अनिवार्य है।

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यदि भारत अपनी कृषि पैदावार के तरीकों में क्रांतिकारी बदलाव कर इसे प्राकृतिक स्वरूप दे दे, तो दुनिया में प्राकृतिक रूप से पैदा हुई खाद्य सामग्रियां ऊंचे दामों में बिक सकती हैं। आज कई ऐसे देश हैं जिनके लोगों के पास आर्थिक प्रगति के आधार पर अर्जित धन तो खूब है, लेकिन वे प्राकृतिक रूप से उपलब्ध खाद्य सामग्रियों से वंचित हैं। प्राकृतिक खेती का बहुत बड़ा महत्त्व व्यावहारिक रूप से तब दिखेगा, जब इसकी पैदावार के उपभोग से पली-बढ़ी एक पीढ़ी दुनिया को बहुत ज्यादा स्वस्थ और संतुलित दिखाई देगी।

देश-दुनिया को हर कीमत पर एक आदर्श स्थान बनाने के लिए सबसे बड़ा योगदान मानव के स्वस्थ तन-मन का होगा और यह लक्ष्य प्राकृतिक खेती-बाड़ी की उपज के उपभोग से हासिल होगा। कृत्रिम, रासायनिक और जहरीले खाद्यान्न के सेवन से तन-मन से अस्थिर, बीमार ज्यादातर इंसान कब तक दवाइयों और इलाज पर निर्भर रहेंगे। वे प्राकृतिक खाद्य पदार्थ चाहते हैं। इस दृष्टि से विचार करें, तो भविष्य में प्राकृतिक खाद्यान्न उत्पादों की ही मांग ज्यादा होगी। यदि भारत आज से ही प्राकृतिक कृषि के वास्तविक क्रियान्वयन में रुचि दिखाए, तो इसी एकमात्र क्षेत्र की उन्नति द्वारा हम निर्धारित अवधि से पहले ही दुनिया की तीसरी और फिर पहली अर्थव्यवस्था भी बन जाएंगे।