Bihar Elections: मैं बिहार हूं, आदर्शों-संस्कारों की भूमि हूं, लेकिन इस राजनीति के खेल ने मेरे दामन पर भी दाग लगाए हैं। कभी हत्या, कभी किडनैपिंग, कभी वसूली, कभी धमकी, मैंने सब देखा है, पिछले कई सालों से देख रहा हूं। लेकिन बात 1957 की है जब मैंने पहली बार चुनाव के वक्त आसमान में उड़ता उड़नखटोला देखा था, जब पहली बार मैंने बूथ कैप्चरिंग का खेल समझा था। मैं बिहार हूं और आज आपको इसके दूसरे चुनाव की कहानी बताता हूं

मुख्यमंत्री रहते हुए कृष्ण सिंह अपने काम से संतुष्ट थे, जमीन पर कुछ समीकरण भी ऐसे बन चुके थे कि उन्हें ज्यादा किसी की चुनौती मिल नहीं रही थी। उस जमाने में कृष्ण सिंह को अपने ही साथी अनुग्रह नारायण सिंह से टक्कर मिलती थी। दोनों ही बिहार में जबरदस्त लोकप्रिय थे और कांग्रेस की भी उन पर काफी निर्भरता। लेकिन पहले चुनाव के बाद दूसरे चुनाव आते-आते एक बड़ा बदलाव हो चुका था।

राजेंद्र प्रसाद सक्रिय राजनीति से अलग होकर देश के राष्ट्रपति बन चुके थे, उनका बिहार से बाहर निकलना अनुग्रह नारायण के लिए राहत की बात थी। लेकिन वहीं दूसरी तरफ अुनुग्रह के करीबी माने जाने वाले जय प्रकाश नारायण यानी कि जेपी ने खुद को तब दलीय रजानीति से अलग कर लिया। वे समय की नजाकत देखते हुए विनोबा भावे द्वारा तेलंगाना से आरंभ किए गए सर्वोदय कार्यक्रम में सक्रिय हो गए। यानी कि बिहार का दूसरा चुनाव कुछ बदला-बदला सा था। सिर्फ एक चीज समान थी- कांग्रेस की पकड़।

पहले चुनाव में 239 सीटें जीतने वाली कांग्रेस को 1957 में 210 सीटों से संतोष करना पड़ा था। वहीं दूसरी तरफ प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को 31 सीटें, छोटा नागपुर संथल प्रगनास जनता पार्टी को 23 सीटें मिली थीं। उस जमाने में झारखंड पार्टी भी 31 सीटें जीतने में कामयाब रही थी। वहीं CPI भी तब 7 सीटें लाने में कामयाब हो गए थी। लेकिन 1957 के बिहार चुनाव में एक खास बात थी, क्षेत्रीय दलों का उदय पूरी तरह से नहीं हो पाया था, राष्ट्रीय पार्टियों का ही ज्यादा बोलबाला देखने को मिला।

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यहां भी कांग्रेस बिहार में विकास के बड़े-बड़े दावे कर रही थी। लोगों के बीच जाकर बताया जा रहा था कि राज्य में 300 पुलियों का निर्माण, 161 नए बेसिक स्कूल, 43 प्राइमरी स्कूल बना दिए गए थे। इसके ऊपर उस चुनाव में कांग्रेस इस बात को भी अपनी उपलब्धि बता रही थी कि उसकी सरकार ने जमींदारी उन्मूल, अस्पृश्यता निवारण जैसे कई क्रांतिकारी विधेयक संसद से पारित करवाए थे। अब विकास दावों के बीच कांग्रेस की वजह से ही बिहार को अपने दूसरे ही चुनाव में सबसे बड़ी धांधली का शिकार होना पड़ गया था।

पहली बार लोगों ने बूथ कैप्चरिंग होते हुए देखी थी। चुनाव के दौरान यह घटना बिहार के बेगूसराय के रचियारी गांव में हुई थी। उस दौरान कछारी टोली बूथ पर लोकल लोगों ने ही अपना कब्जा जमा लिया था। असल में जिस समय कई जिलों के लोग वोट डालने के लिए जा रहे थे, सैंकड़ों की संख्या में कुछ संदिग्धों ने लाठी-डंडों से हमला कर दिया और किसी को भी वोट डालने नहीं दिया। जब लोगों ने इस तनाहशाही का विरोध किया तो उन गुंडों ने वोटर्स की जमकर पिटाई की, उन्हें यातनाएं दीं।

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बाद में पता चला कि जिन गुंडों ने बूथ कैप्चर करने की कोशिश की थी, वो सभी उस समय के कांग्रेस उम्मीदवार सरयुग प्रसाद के समर्थक थे। जब बवाल ज्यादा बढ़ा तो उपद्रवियों ने बैलेट बॉक्स ही उठाकर कुएं में फेंक दिया था। बताया जाता है कि उस जमाने में बेगूसराय में कामदेव नाम का माफिया सक्रिय था, उसके कांग्रेस नेता सरयुग प्रसाद से भी अच्छे संबंध थे। ऐसे में उस माफिया की मदद से ही देश ने पहली बार किसी चुनाव में बूथ कैप्चरिंग होते हुए देखी थी।

वैसे बिहार के जिस दूसरे चुनाव ने पहली बार बूथ कैप्चरिंग देखी थी, उसी चुनाव ने पहली बार चुनावी प्रचार में हेलीकॉप्टर भी दस्तक भी देखी। यह उस जमाने की बात है जब सबसे शक्तिशादी कांग्रेस पार्टी के नेताओं के पास भी हेलीकॉप्टर खरीदेने के पैसे नहीं हुआ करते थे, चुनाव में उनका जुगाड़ करना तो बहुत दूर की बात रहती। लेकिन 1957 में हजारीबाग जिले के रामगढ़ के राजा कामाख्या नारायण सिंह का अलग ही रसूख था, वे खुद तो तब चुनाव लड़ते ही थे, उनके छोटे भाई बसंत नारायण भी राजनीति में सक्रिय थे।

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उस जमाने में नारायण सिंह ने अपने उम्मीदवारों के चुनावी प्रचार के लिए रूस से दो हेलीकॉप्टर का इंतजाम किया था। उनके उम्मीदवार स्वतंत्र पार्टी के चिन्ह से चुनाव लड़ते थे। उस चुनाव में हेलीकॉप्टर का उतरना ही एक बड़ा चुनावी मुद्दा था, लोगों के लिए तो आकर्षण का केंद्र भी रहता था। जैसे ही उन्हें वो हेलीकॉप्टर दिखता, भीड़ वहीं इकट्ठा हो जाती।

लोगों के लिए उस चुनाव में हेलीकॉप्टर का दिखना बड़ी बात इसलिए भी थी क्योंकि तब बैलगाड़ी, साइकिल और पैदल यात्रा के जरिए ही नेता प्रचार किया करते थे। चाहे कोई अमीर उम्मीदवार हो या फिर कोई कम अमीर, लेकिन जरिया यही रहता था। लेकिन उस सादगी वाले प्रचार के बीच में देश को सबसे बड़े उड़नखटोला के दर्शन नाराणय सिंह ने करवा दिए थे।

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