Nalanda University History: मैं बिहार हूं, मैं ही ज्ञान की धरती हूं, मैं ही शांति की भूमि हूं और मैं ही साजिशों से घिरा एक ऐसा राज्य हूं जिसने भारत का गौरव सदियों तक संभालकर, संजोकर रखा। लेकिन एक सनकी, क्रूर और अत्याचारी ने मेरे इतिहास को, भारत के गौरव को धूमिल करने की कोशिश की। वो उसमें सफल भी हुआ, 6 महीने तक मेरा सबसे प्रिय नालंदा जलता रहा, बचाने वाला कोई नहीं था, हजारों किताबें राख बन गईं, लाखों खोजें अतीत के पन्नों में गुम हो गईं और नजाने कितने मासूम बच्चे, कितने महा विद्वान शिक्षक उस आग में स्वाहा हो गए। उस काले अध्याय की पूरी कहानी बताता हूं, नालंदा विश्वविद्यालय की दास्तां बताता हूं।

बख्तियार खिलजी की तबीयत खराब चल रही थी, वो काफी बीमार पड़ चुका था। नीम हकीमों ने उसका कई बार इलाज किया, लेकिन कोई असर नहीं। सारी दवाइयां बेअसर थीं और बख्तियार की तबीयत हर बीतते दिन के साथ बिगड़ती जा रही थी। बख्तियार क्रूर था, मूर्ति पूजन से नफरत करता था। हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति उसे समझ नहीं आती थी। इसी वजह से कई दिनों तक उसका इलाज भी सिर्फ नीम हकीमों ने ही किया क्योंकि वो उसके अपने धर्म के थे। लेकिन फिर बख्तियार खिलजी को किसी ने नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में बताया। उसे जानकारी मिली कि वहां पर एक बड़ा मेडिसिन विभाग है, वहां शोध चलता है। अब खिलजी के पहचान वाले ने बताया था कि नालंदा में मेडिसिन विभाग के प्रमुख राहुल श्री बद्री के पास उनकी बीमारी का इलाज था।

लेकिन कट्टर विचारधारा वाला बख्तियार साफ कर चुका था कि किसी भी ऐसी दवा से वो अपना इलाज नहीं करवाएगा जिसके तार भारत से जुड़ते हों। अब राहुल श्री ब्रदी ने खिलजी को कहा कि वो सिर्फ कुरान की आयतें पढ़े और वो ठीक हो जाएगा। अब बख्तियार ने पूरी शिद्दत के साथ कुरान पढ़ी और कुछ ही दिनों में वो ठीक हो गया। बख्तियार हैरान था कि आखिर जिस बीमारी को नीम हकीम ठीक नहीं कर पाए, नालंदा के एक प्रमुख ने कैसे ये मुमकिन कर दिया। बाद में बख्तियार को पता चला कि राहुल श्री बद्री ने असल में अपनी औषधि कुरान के पन्नों पर लगा दी थी। उन्हें पता था कि बख्तियार कुरान पढ़ते वक्त अपनी अंगुली जीब पर लगाता था। उसी तरह से औषधि भी उसके शरीर तक पहुंची और वो ठीक हो गया।

लेकिन बख्तियार के मन में नफरत पैदा हो गई, वो सहन नहीं कर पाया कि एक आचार्य ने उसे ठीक कर दिया। उसकी हिंसक नजरें नालंदा की तरफ टिक गईं। ये वो नालंदा था जो पूरी तरह भगवान बुद्ध के सिद्धांतों पर चलता था। उसी वजह से नालंदा में जगह-जगह भगवान बुद्ध की मूर्तियां और स्तूप भी बनाए गए थे। दुनिया भर से वहां छात्र पढ़ने आते थे, उतने ही कुशल शिक्षक उन्हें पढ़ाते थे। पूरी दुनिया के लिए नालंदा सही मायनों में ज्ञान का दीपक बन चुका था, वहां अलग-अलग चीजों पर शोध होता था, विज्ञान की बात होती थी। लेकिन बख्तियार खिलजी को सिर्फ एक चीज दिखी- नालंदा में पढ़ने वाले छात्र और पढ़ाने वाले शिक्षक मूर्ति पूजक थे, मूर्तियों के प्रति उनकी आस्था थी।

उसने अपनी सेना को आक्रमण का आदेश दे दिया और नालंदा के परिसर में सबसे भयंकर खूनी खेल हुआ। सैकड़ों की संख्या में छात्र और शिक्षक मारे गए। बाहर से दरवाजों को बंद कर दिया गया जिससे कोई बच भी ना पाए। अपनी सनक में खिलजी ने हैवानियत की सारी हदें पार कीं और भारत के गौरव को तार-तार कर दिया। बाद में उसने नालंदा के पुस्तकालय को भी आग के हवाले कर दिया। अनगिनत ज्ञान की किताबें भस्म हो गईं, 6 महीने तक आग धधकती रही, कोई बुझाने वाला नहीं था, कोई मदद करने वाला भी नहीं दिखा। नालंदा विश्वविद्यालय इतिहास बन गया, ज्ञान का केंद्र सिर्फ एक खंडहर के रूप में दिखने लगा।

बौद्ध धर्म के ग्रंथ बताते हैं कि नालंदा में भगवान बुद्ध ने भी अपना उपदेश दिया था, आगे चलकर उनके शिष्य शार्य पुत्र ने ही नालंदा में एक स्तूप का निर्माण करवाया। जैन धर्म वाले भी बताते हैं कि महावीर ने भी नालंदा में उपदेश दिया था। मतलब यह है कि नालंदा की भूमि सही मायनों में शांति की सबसे बड़ी प्रतीक थी, यहां से मिली शिक्षा पूरी दुनिया को अहिंसा का रास्ता दिखाती थी। गुप्त काल में नालंदा में एक बौद्ध मठ का निर्माण हुआ था। कुमार गुप्त नाम के शासक ने उसे बनवाया, आगे चलकर उस मठ ने ही नालंदा विश्वविद्यालय का स्वरूप ले लिया। गुप्त काल के जो दूसरे शासक रहे उन्होंने भी छठी शताब्दी तक नालंदा के इस क्षेत्र को खूब विकसित किया, उसी वजह से वो एक बड़ा शिक्षा केंद्र बनकर खड़ा हो गया।

नालंदा विश्वविद्यालय के निर्माण में एक बड़ा हाथ कन्नौज के राजा हर्षवर्धन का भी था, उन्होंने बकायदा एक बड़ा अनुदान दिया था, वहां तीन मंदिरों का भी निर्माण करवाया। इतना सबकुछ इसलिए हो रहा था क्योंकि उस जमाने में शिक्षा की कीमत थी, उसकी अहमियत समझ आती थी। नालंदा यूनिवर्सिटी को ऐसे आदर्शों के साथ तैयार किया गया था कि वहां चीन, तुर्की, इंडोनेशिया तक से छात्र पढ़ने आया करते थे। लेकिन विदेशी छात्रों को वहां एडमिशन मिलना काफी मुश्किल रहता। पुरानी कहानियां बताती हैं कि सिर्फ 100 विदेशी छात्रों में से 20 को नालंदा में पढ़ने का मौका दिया जाता था। वहां भी कई पड़ाव पार करने के बाद किसी को पढ़ने दिया जाता।

उस जमाने में नालंदा ने अपनी यूनिवर्सिटी फंडिंग का एक अलग ही तरीका चुन रखा था। 100 गांव यूनिवर्सिटी के अधीन होते थे, फिर उस गांव के 200 परिवार समय-समय पर जिम्मेदारी उठाते और खाने-पीने से लेकर पढ़ने के सामान तक का खर्चा उनके जिम्मे रहता। तिब्बत में भी आगे चलकर जो बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ, उसमें नालंदा की अहम भूमिका रही। चीनी यात्री नसांग 637 ईसवी में नालंदा आए थे और पांच साल वहीं पर रहे। उन्हें नालंदा से बौद्ध ग्रंथों की प्रतिलिप चाहिए थी। अब ऐसा हुआ भी और चीनी यात्री कई सारे बौद्ध धर्म से जुड़े अवशेष अपने साथ ले गए। उनके वापस आते ही नालंदा की ख्याति ऐसी फैली की पूरी दुनिया को इसकी ताकत का अहसास हो गया।

कई सदियों तक नालांदा ऐसे ही दुनिया को शिक्षित करता रहा, समय का चक्र बीता और 12वीं शताब्दी में बख्तियार खिलजी की एंट्री हुई। बख्तियार किसी जमाने में मोहम्मद घोरी के दरबार में मुलाजिम हुआ करता था। लेकिन 1192 में पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद बख्तियार दिल्ली आ गया और फिर कई हमले कर उसने बंगाल तक अपने कब्जे में लिया। आगे चलकर उसी ने अपनी कट्टर विचारधारा की वजह से नालंदा पर भी आक्रमण किया और दुनिया के सबसे बड़े शिक्षा केंद्र को जला डाला। वर्तमान में नालंदा की ख्याति बताते कई अवशेष मौजूद हैं, यूनेस्को तक ने उसे हेरिटेज साइट का दर्जा दे रखा है।

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