Bihar Elections 2025: मैं बिहार हूं, कई दिग्गज नेताओं की कहानी अपने अंदर समाए बैठा हूं। मैंने सभी को मौका दिया है, कोई असफल रहे तो कोई इतने सफल कि सालों साल तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे रहे। लेकिन उन सफल नेताओं का संघर्ष भी मैंने देखा है, उनकी हार को करीब से महसूस किया है, उनके गम में शरीक हुआ हूं। हां मैं नीतीश कुमार की बात कर रहा हूं, कितने सालों से सीएम हैं, सभी जानते हैं, लेकिन जब कुछ नहीं थे, तब की कहानी बताता हूं, मैं बिहार हूं, बिहार की कहानी बताता हूं-

बात 1970 के दशक की है, बिहार में लालू ने अपना सियासी कद बनाना शुरू कर दिया था। 1977 में पहले लोकसभा चुनाव जीता, फिर 1980 में सोनपुर से विधानसभा चुनाव भी अपने नाम किया। 1985 में भी लालू यादव ने जीत दर्ज की, यानी कि उनकी शुरुआती बेहतरीन रही, स्ट्राइक रेट किसी को भी प्रभावित कर देता। लेकिन दूसरी तरफ खड़े थे नीतीश कुमार जो अपने पहले दोनों चुनाव बुरी तरह हार गए थे।

1977 में जनता पार्टी की लहर पूरे देश में थी, आपातकाल के बाद हो रहे चुनाव में कांग्रेस की हालत एकदम पतली, मजाक में ही सही, ऐसा कहा जा रहा था कि कांग्रेस के उम्मीदवारों को कोई भी इस समय हरा देगा। तब जनता पार्टी ने नीतीश कुमार को भी हरनौर सीट से अपना उम्मीदरवार बना दिया था। अब एक बात तो सही निकली, कांग्रेस उस सीट पर हार गई, लेकिन हैरानी इस बात की रही कि निर्दलीय उम्मीदवार भोला प्रसाद सिंह वहां से जीत गए। नीतीश कुमार को जनता पार्टी की टिकट पर हार का सामना करना पड़ा।

दिलचस्प बात यह रही कि जिस भोला प्रसाद सिंह ने नीतीश कुमार को हराया था, वो उनके खासा करीबी थे। नजदीकियां ऐसी कि जब नीतीश कुमार की मंजू के साथ शादी हुई थी, जिस व्हाइट फीएट में बैठकर दोनों आए थे, वो भोला प्रसाद की थी। मजे की बात यह थी कि भोला प्रसाद ही ड्राइव कर रहे थे, पीछे जोड़ा शांत बैठा था और प्रसाद लगातार बात करते रहे। अब अपने उस दोस्त से पहले ही चुनाव में हार जाना दर्द तो देता। लेकिन तब तक नीतीश कुमार ने हार नहीं मानी थी, उन्होंने फिर 1980 में चुनाव लड़ा, फिर हरनौर सीट से उन्होंने अपनी किस्मत आजमाई।

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यहां भी राजनीति का खेल ऐसा रहा कि भोला प्रसाद खुद चुनाव नहीं लड़े, लेकिन अपने दोस्त अरुण कुमार सिंह के लिए बैटिंग करते रहे। उस चुनाव में अरुण कुमार सिंह भी निर्दलीय चुनावी मैदान में उतरे थे, सामने जनता पार्टी (सेकुलर) की टिकट से नीतीश कुमार थे। नतीजे आए और नीतीश कुमार लगातार दूसरी बार हार गए। पहली बार भोला प्रसाद से और दूसरी बार उनके समर्थक उम्मीदवार अरुण कुमार से। दोनों ही चुनाव में एक चीज कॉमन रही- कुर्मी जाति के लोग नीतीश कुमार के साथ जुड़ नहीं पा रहे थे। कुर्मी जाति के ही लोग कह रहे थे कि नीतीश कुमार उनके लिए खड़े नहीं होते।

1977 में बेलची हत्याकांड के बाद से ही कुर्मी बनाम दलित की राजनीति शुरू हो चुकी थी। दलितों पर अत्याचार हुआ था, कुर्मी जाति वालों पर आरोप लगा था और अपने सिद्धांतों की वजह से नीतीश इस मामले में ज्यादा सख्त कभी दिखाई नहीं दिए। उनके विरोधियों ने कुर्मियों का समर्थन कर वोट हासिल कर लिया और नीतीश फंसते चले गए। अब उस समय नीतीश कुमार बहुत मायूस हो चुके थे, उन्हें भी लगने लगा था उनके साथ किसी जमाने में छात्र राजनीति करने वाले लोग आगे बढ़ते जा रहे थे और वे लगातार दो बार चुनाव हार चुके थे।

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नीतीश कुमार ने हताश होकर कह दिया था- कुछ तो करें, ऐसे कैसे जीवन चलेगा। अब यहां नीतीश राजनीति में अपने लिए अवसर नहीं तलाश रहे थे, वे तो राजनीति छोड़ने की बात कर रहे थे, वो तो कोई दूसरी नौकरी पकड़ने की बात कर रहे थे। उनके पास ऐसा सोचने की कई वजह मौजूद थी। मंजू के साथ उनकी शादी तो हो गई थी, लेकिन आर्थिक चुनौतियां बढ़ती जा रही थीं। सात साल हो चुके थे, लेकिन नीतीश घर पैसा नहीं ला पा रहे थे, उस समय वे बख्तियारपुर में रहा करते थे।

अपनी पत्नी मंजू के लिए भी ऐसा जीवन आसान नहीं था, उन्होंने कभी इस बारे में सोचा भी नहीं था। पढ़ने वाले परिवार से आती थीं, पिता खुद प्रोफेसर थे और शादी हुई थी इंजीनियर नीतीश कुमार से। सोचा था उन्होंने शादी के बाद जैसे मिडिल क्लास वाले लोग रहते हैं, वैसे रहेंगे। लेकिन नीतीश कुमार की राजनीतिक हारों ने सबकुछ बदल दिया था। वे घर तो आते थे, लेकिन राजनीति का बोझ उनके साथ रहता था। पत्नी के साथ बातचीत काफी कम हो गई थी। बख्तियारपुर में नीतीश कुमार के ही एक पुराने दोस्त ने कहा था- उस जमाने में दोनों पति-पत्नी में कहासुनी भी हुआ करती थी। नीतीश बात नहीं करते थे, गुस्सा करते रहते थे।

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नीतीश कुमार के दोस्त नरेंद्र सिंह ने उस समय उनके साथ काफी समय बिताया था। नीतीश ने भी उनके सामने कहा था- कुछ तो करें, ऐसे जीवन कैसे चलेगा। जो दो चुनाव भी नीतीश कुमार हारे थे, उसकी जिम्मेदारी नरेंद्र सिंह ने ही ले रखी थी। अब नरेंद्र खुद कह रहे थे कि नीतीश को आर्थिक रूप से स्टेबल बनना होगा। उन्हें अपने बुजुर्ग मां-बाप और पत्नी का ध्यान रखना होगा। उस समय नीतीश ने भी सोच लिया कि अब राजनीति छोड़ सिविल कॉन्ट्रैक्टर बन जाते हैं। लेकिन उस समय नीतीश के एक और दोस्त सामने आए, नाम था विजय कृष्णा।

विजय कृष्णा ने नीतीश को कर्पूरी ठाकरे के संघर्षों के बारे में बताया, उन्होंने जोर देकर कहा कि वे भी पूरे जीवन में कभी पैसे नहीं कमा पाए, लेकिन उन्होंने समाज की सेवा करना नहीं छोड़ा, वे कभी भी अपने दायित्वों से भागे नहीं। नीतीश कुमार को भी यह बात दिल पर लग गई और उन्होंने फिर सक्रिय राजनीति में जाने का फैसला किया। वक्त आ गया था 1985 चुनाव का। नीतीश कुमार ने फिर हरनौत सीट से ही चुनाव लड़ा। इस बार उन्होंने एक कसम भी खा ली थी, अगर ये वाला चुनाव हारे तो राजनीति हमेशा के लिए छोड़ देंगे।

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पत्नी मंजू देवी ने भी नीतीश कुमार को इस चुनाव में 20 हजार रुपये की सहायता की थी। उस आश्वासन पर ये पैसा मिला था कि अगर चुनाव हारे तो राजनीति छोड़ दी जाएगी। अब नीतीश कुमार के लिए दांव पर काफी कुछ लगा था और खूब मेहनत की, दिल्ली के चक्कर तक काटे, चंद्रशेखर के साथ करीबी बढ़ाई और नतीजा सामने था- नीतीश कुमार ने अपना पहला चुनाव जीत लिया, 22 हजार से ज्यादा के मार्जिन से हरनौत की सीट उन्होंने अपने नाम की। उसके बाद ना नीतीश कभी हारे और ना किसी ने उनसे राजनीति छोड़ने की बात की।

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(REFERENCE: THE BROTHERS BIHARI, BY- SANKARSHAN THAKUR)