Bihar First CM: बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर राज्य में सियासी पारा चढ़ने लगा है। एनडीए और इंडिया गठबंधन के बीच इस बार सीधी टक्कर होने वाली है लेकिन आज बात वर्तमान राजनीति की नहीं… बल्कि राज्य के पहले सीएम की करते हैं, जो कि श्रीकृष्ण सिन्हा थे। उन्हें बिहार केसरी के नाम से भी जाना जाता है। श्रीकृष्ण सिन्हा को लेकर कहा जाता है कि वे ऐसी शख्सियत थे जिनकी बाद देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू भी नहीं काट पाते थे। उन्हें जन्मदिवस को ‘बिहार केसरी’ की जयंती के तौर पर राजकीय सम्मान के साथ मनाया जाता है।
श्रीकृष्ण सिन्हा के कार्यकाल की बात करें तो वे 1937 से 1961 तक राज्य के सीएम रहे थे। उनके 24 वर्षों के मुख्यमंत्री के काल में बिहार में विकास को नई उड़ान मिली थी और राज्य में विकास की नए सिरे से नींव रखी गई थी। उन्होंने बिहार के हटिया में भारी उद्योग निगम स्थापित किया था। इसके अलावा देश की प्रथम बहुद्देशीय सिंचाई विद्युत परियोजना दामोदर नदी घाटी बांध परियोजना का निर्माण भी श्रीकृष्ण सिन्हा के कार्यकाल में ही हुआ था।
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श्रीकृष्ण सिन्हा के कार्यकाल को विकास कार्यों की नींव के तौर देखा जाता है क्योंकि उनके कार्यकाल में कई आमूलचूल परिवर्तन वाले काम हुए थे। उन्होंने पहला स्टील प्लांट बोकारो में बनवाया था। इसके अलावा बरौनी डेयरी की शुरुआत की। इतना ही नहीं, एशिया का सबसे बड़ा रेलवे यार्ड-गढ़हरा बनाया गया था। गंगोत्री से गंगासागर के बीच गंगा नदी पर पहला रेल और सड़क पुल राजेंद्र पुल का निर्माण भी पहले सीएम के कार्यकाल में ही हुआ था।
इसके अलावा श्रीकृष्ण सिन्हा के कार्यकाल में भागलपुर के सबौर, समस्तीपुर के पूसा और रांची में एग्रीकल्चर कॉलेज भी बनाए गए थे। उन्हें श्रीकृष्ण बाबू के नाम से भी बुलाया जाता था। उनके शासनकाल के दौरान ही कोसी प्रोजेक्ट का निर्माण किया गया था और नेशनल हाईवे के साथ ही स्टेट हाईवे का जाल बिछाया गया, जिससे यातायात आसान हो सके।
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श्रीकृष्ण सिन्हा को आधुनिक बिहार के निर्माता के तौर पर देखा जाता है। उन्होंने देश में सबसे पहले बिहार में जमींदारी प्रथा को खत्म किया था। इसके अलावा जातिवाद को मिटाने के लिए देवघर के प्रसिद्ध बाबाधाम मंदिर में खुद साथ जाकर दलित श्रद्धालुओं का प्रवेश शुरू करवाया था।
बता दें कि आजादी के बाद बिहार में जितने भी उद्योग और शिक्षण संस्थान खुले वे सभी श्री कृष्ण सिन्हा के कार्यकाल में ही खुले। श्रीकृष्ण सिन्हा राजनीति में बड़े विरोधी माने जाते थे। बिहार की राजनीति में जब तक वह सक्रिय रहे उन्होंने परिवारवाद को कोई महत्व नहीं दिया और इस तरह की राजनीति से दूरी बनाकर रखी है, जिसके चलते आज भी उन्हें सराहा जाता है।
श्रीकृष्ण बाबू के पंडित नेहरू के साथ रिश्तों को लेकर उनके प्रपौत्र अनिल कुमार सिन्हा ने बताया था कि उनके पहले पीएम के साथ बहुत अच्छे संबंध थे, जब भी कोई किताब नेहरू जी उनको देते थे तो बताते थे कि नेहरू जी हम यह किताब पढ़ चुके हैं। नेहरू जी श्रीबाबू को इतना पसंद करते थे कि वह उनको अपने मंत्रिमंडल में गृह मंत्रालय तक का पद देने वाले थे लेकिन श्रीकृष्ण सिन्हा ने कहा था कि वे केंद्र में नहीं जाना चाहते हैं, बल्कि बिहार में काम करना चाहते हैं।
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श्रीकृष्ण सिन्हा को लेकर कहा जाता है कि बरौनी में जो रिफाइनरी है, वो केंद्र सरकार बिहार में नहीं देना चाहती थी, और उर्वरक फैक्ट्री भी बिहार के अलावा किसी अन्य राज्य में लगने वाली थी। इसको लेकर श्री कृष्ण सिन्हा ने केंद्र सरकार का विरोध किया था और कहा था कि अगर ये प्रोजेक्ट्स बिहार में नहीं आएंगे तो वह पद से इस्तीफा दे देंगे। पूर्व सीएम प्रपौत्र बताते हैं कि इसके लिए श्रीकृष्ण सिन्हा ने केंद्र सरकार के खिलाफ अनशन भी किया, तब जाकर बरौनी में दोनों कारखाने खोले गए और पंडित नेहरू की सरकार उनकी बात काट न सकी।
बता दें कि श्रीकृष्ण सिन्हा का जन्म 21 अक्टूबर 1887 को बंगाल प्रेसीडेंसी के मुंगेर जिले (आज के बिहार) के बरबीघा के मौर गांव में एक भूमिहार परिवार में हुआ था, जो कि अब शेखपुरा जिले का हिस्सा है। जब वे पांच साल के थे तब उनकी मां प्लेग से मर गईं। उनकी शिक्षा गांव के स्कूल और मुंगेर के जिला स्कूल में हुई। 1906 में उन्होंने पटना कॉलेज में दाखिला लिया, जो उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय से संबद्ध था। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से मास्टर डिग्री और फिर पटना विश्वविद्यालय से कानून की डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की और 1915 से मुंगेर में प्रैक्टिस शुरू की थी।
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श्रीकृष्ण सिन्हा की पहली मुलाक़ात महात्मा गांधी से 1916 में सेंट्रल हिंदू कॉलेज, बनारस में हुई थी। उन्होंने गांधी के असहयोग आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए 1921 में वकालत छोड़ दी थी। 1922 में उन्हें पहली बार गिरफ़्तार किया गया और कांग्रेस सेवा दल को अवैध घोषित कर दिया गया। इसके लिए उन्हें बिहार केसरी के नाम से जाना जाता था। 1923 में उन्हें जेल से रिहा किया गया और तुलसी जयंती के दिन खड़गपुर के सेंट्रल स्कूल में भारत दर्शन नाटक में अभिनय किया । उसी वर्ष वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य बन गए।
इसके बाद 1927 में वे विधान परिषद के सदस्य बने और 1929 में बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी (BPCC) के महासचिव बने। 1930 में, उन्होंने गढ़पुरा में नमक सत्याग्रह में भाग लिया। गिरफ्तारी के दौरान उनके हाथ और सीने में गंभीर चोटें आईं, उन्हें छह महीने की कैद हुई और फिर सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान उन्हें दोबारा गिरफ्तार कर लिया गया और दो साल की कैद हुई।
गांधी-इरविन समझौते के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया और उन्होंने फिर से अपने राष्ट्रवादी काम और किसान सभा के साथ काम करना शुरू कर दिया। 9 जनवरी 1932 को उन्हें दो साल के कठोर कारावास और 1,000 रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई गई। उन्हें अक्टूबर 1933 में हजारीबाग जेल से रिहा किया गया। वे 1934 के नेपाल-बिहार भूकंप के बाद राहत और पुनर्वास में शामिल थे।