Darul Uloom Haqqania Explosion: पाकिस्तान में एक इस्लामिक मदरसे दारुल उलूम हक्कानिया के परिसर में बनी मस्जिद में हुए आत्मघाती हमले में छह लोगों की मौत हो गई। यह हमला रमजान के शुरू होने से ठीक पहले हुआ और आत्मघाती हमलावरों ने इसे अंजाम देने के लिए शुक्रवार का दिन चुना।

इस मदरसे का संबंध भारत से भी है। लेकिन बड़ी बात यह है कि इस स्कूल को ‘यूनिवर्सिटी ऑफ जिहाद’ कहा जाता है। इस हमले में जिन लोगों की मौत हुई उनमें इस मदरसे का मुखिया हामिद उल हक भी शामिल था। हामिद उल हक तालिबान से जुड़ा था। न सिर्फ तालिबान के चीफ मुल्ला उमर बल्कि इस संगठन से जुड़े कई और आतंकियों ने भी दारुल उलूम हक्कानिया मदरसे में ट्रेनिंग ली थी।

आइए समझते हैं कि दारुल उलूम हक्कानिया को ‘यूनिवर्सिटी ऑफ जिहाद’ क्यों कहा जाता है और इसका क्या इतिहास है?

दारुल उलूम हक्कानिया पेशावर से लगभग 55 किमी. दूर अकोरा खट्टक में है। यहां लगभग 4,000 छात्र रहते हैं, जिन्हें मदरसे की ओर से मुफ्त में खाना, कपड़े और तालीम दी जाती है।

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दारुल उलूम हक्कानिया की स्थापना 1947 में मौलाना शेख अब्दुल हक ने की थी। मौलाना शेख अब्दुल हक ने भारत में इस्लामिक तालीम के लिए मशहूर मदरसे दारुल उलूम देवबंद से तालीम हासिल की थी। देवबंदी आंदोलन सहारनपुर के देवबंद में 1866 में शुरू हुआ था और इसका मकसद इस्लाम के मूल सिद्धांतों की ओर लौटना था। भारत के बंटवारे के बाद, देवबंदी विचारधारा का फैलाव पाकिस्तान-अफगानिस्तान के अलावा दक्षिण एशिया में भी हुआ और इस विचारधारा को मानने वाले कई मदरसे बने। इन्हीं मदरसों में से एक बड़ा नाम दारुल उलूम हक्कानिया का था।

इन मदरसों में इस्लाम की बेहद कठोर तालीम दी जाती थी। दारुल उलूम हक्कानिया कुछ ही वक्त में देवबंदी विचारधारा को मानने वालों का एक प्रमुख केंद्र बन गया। 1980 के दशक तक इस स्कूल को बहुत ज्यादा लोग नहीं जानते थे। टीआरटी वर्ल्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक, मौलाना शेख अब्दुल हक की मौत के बाद उसके बेटे सामी उल हक ने 1988 में इस मदरसे की कमान संभाली और जिहाद को हर मुसलमान के लिए जरूरी बताया।

हक ने इस मदरसे को तालिबान लड़ाकों के लिए एक ऐसे ट्रेनिंग ग्राउंड में बदल दिया जो अफगानिस्तान में सोवियत यूनियन के खिलाफ लड़ सकें। इस दौरान पाकिस्तान और अमेरिका ने भी इस मदरसे का इस्तेमाल सोवियत यूनियन के खिलाफ लड़ने वाले लड़ाकों की भर्ती और ट्रेनिंग देने के लिए किया।

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इस मदरसे की एक बड़ी बात यह है कि तालिबान का संस्थापक मुल्ला उमर, हक्कानी नेटवर्क की स्थापना करने वाला जलालुद्दीन हक्कानी और अल-कायदा की दक्षिण एशिया विंग का पूर्व प्रमुख असीम उमर भी यहां से तालीम हासिल कर चुके हैं।

वाशिंगटन पोस्ट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सोवियत संघ जब अफगानिस्तान से चला गया तो इस मदरसे को चलाने वालों ने तालिबान के नेताओं से संपर्क बनाए रखा। 2001 में जब अमेरिका ने अफगानिस्तान से तालिबान की हुकूमत को हटाया, उस दौरान भी इस मदरसे से कई लड़ाके निकले और अमेरिका के द्वारा समर्थित अफगानिस्तान की सरकार के खिलाफ जंग लड़ी थी।

सामी उल हक को उनके कट्टरपंथी विचारों के कारण ‘Father of Taliban’ कहा जाने लगा था। 2018 में सामी उल हक की हत्या के बाद उसके बेटे हामिद उल हक ने इस मदरसे की जिम्मेदारी संभाली लेकिन ताजा आत्मघाती हमले में उसकी भी मौत हो गई।

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