देश की उच्च शिक्षा व्यवस्था उदारीकरण के बाद आगे तो बढ़ी, लेकिन उसी गति से उसमें गुणवत्ता विकसित नहीं हो पाई। उदारीकरण के तीन दशक पूरे हो चुके हैं, मगर इसका लाभ उच्च शिक्षा में केवल कमाई के अवसर के रूप में देखा गया। खास यह भी है कि तकनीकी शिक्षा के लिए आल इंडिया काउंसिल आफ टेक्निकल एजुकेशन (एआइसीटीई) को मानक तय करने के लिए 1987 में बनाया गया था।

इसके नियमों की खूब अवहेलना हुई। समय के साथ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) भी नकेल कसने में कम ही कामयाब रहा। आकर्षक विज्ञापनों और चमचमाते सपनों के साथ युवाओं के हाथ में उच्च शिक्षण संस्थाओं ने डिग्रियां तो खूब थमाईं, पर कौशल के मामले में वे खोखले ही रह गए। यूजीसी की वेबसाइट को खंगालें, तो मौजूदा समय में सभी प्रारूपों में 1200 से अधिक विश्वविद्यालय हैं, जिनमें 57 केंद्रीय और 502 राज्य विश्वविद्यालय हैं।

ये सभी उच्च शिक्षण संस्थान और इनसे जुड़े कालेज हर साल तकरीबन चार करोड़ से अधिक युवाओं की तकदीर बनाते हैं। ऐसे संस्थान स्थापित करने के लिए बहुत बड़ी राशि की आवश्यकता पड़ती है। निराशा की बात यह है कि इनमें कई संस्थान शिक्षा को धन उगाही का जरिया बना लेते हैं और डिग्रियां बांटना एक तरह से कारोबार बन जाता है।

असल में शिक्षा कोई रातों-रात विकसित होने वाली व्यवस्था नहीं है। वैश्वीकरण के बाद उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कई दरवाजे खुले। मगर व्यावहारिक तौर पर अब ये विफल दिखाई देते हैं। भारत में विगत तीन दशकों से शिक्षा संस्थानों के प्रति काफी नरमी बरती जा रही है और शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट की मुख्य वजह भी यही है। भारत सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश है। संसार की सबसे बड़ी युवा आबादी यहीं है।

जिस गति से शिक्षा लेने वालों की संख्या यहां बढ़ी, शिक्षण संस्थाएं उससे तालमेल नहीं बैठा पार्इं। कुछ क्षेत्रों में बिना किसी नीति के कमाने वाली शिक्षण संस्थाओं की बाढ़ आ गई। इंजीनियरिंग कालेज इसी तर्ज पर विकसित हुए और यह बात तब और पुख्ता हो जाती है, जब आंकड़े बताते हैं कि देश में इंजीनियरिंग की सफलता दर आम तौर पर दस फीसद से अधिक नहीं होती है जबकि हर साल 15 लाख इंजीनियरिंग स्रातक कालेजों से निकलते हैं। इतना ही नहीं वर्ष 2024 में 40 फीसद आइआइटी स्नातक भी नौकरी पाने में असफल रहे। ‘इंडियाज ग्रेजुएट स्किल्स इंडेक्स’ के अनुसार, देश में लगभग 57 फीसद स्नातकों के पास आवश्यक कौशल नहीं है।

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सवाल उठता है कि शैक्षणिक वातावरण हमारे यहां कैसा है। अब शिक्षण संस्थानों को सुशासन के मार्ग की ओर ले जाने की जरूरत है। उच्च शिक्षा को लेकर दो प्रश्न उभरते हैं। पहला यह कि क्या विश्व परिदृश्य में तेजी से बदलते घटनाक्रम के बीच उच्चतर शिक्षा, शोध और ज्ञान के विभिन्न संस्थान स्थिति के अनुसार बदल रहे हैं? दूसरा क्या अर्थव्यवस्था, दक्षता और प्रतिस्पर्धा के प्रभाव में शिक्षा को तकनीक से जोड़ने का कोई बड़ा लाभ मिल रहा है।

यदि हां, तो सवाल यह भी है कि क्या परंपरागत मूल्यों और उद्देश्यों का संतुलन इसमें बरकरार है? विभिन्न विश्वविद्यालयों में शुरू में ज्ञान के सृजन का हस्तांतरण भूमंडलीय हिस्सेदारी के आधार पर हुआ था। धीरे-धीरे बाजारवाद के कारण शिक्षा गुणवत्ता के मामले में पिछड़ती गई। वर्तमान में तो इसे बाजारवाद और व्यक्तिवाद के संदर्भ में परखा और जांचा जा रहा है। तमाम ऐसे कारकों के चलते उच्च शिक्षा सवालों में घिरती चली गई। देश में उच्च शिक्षा की स्थिति चिंताजनक क्यों हुई, इसे समझना होगा।

ऐसा इसलिए हुआ कि इस क्षेत्र में उन मानकों को कहीं अधिक ढीला छोड़ दिया गया, जिसे लेकर एक निश्चित नियोजन होना चाहिए था। उच्च शिक्षा में गुणवत्ता तभी आती है, जब इसे शोधपरक बनाने का प्रयास किया जाता है न कि रोजगार जुटाने मात्र का जरिया बनाया जाता है। निजी विश्वविद्यालय फीस वसूलने में पूरा दम लगाए रखते हैं, पर उच्च शिक्षा के प्रति इनकी प्रतिबद्धता कम ही दिखती है। कोई दो मत नहीं कि यहां शिक्षा एक व्यवसाय है, इसका अपना एक आकर्षण है। ऐसा लगता है कि अब तो ऑनलाइन व्यवस्था में शिक्षण संस्थान मोबाइल और लैपटाप में सिमट चुके हैं।

तीन नवंबर 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय में विश्वविद्यालयों के दूरस्थ शिक्षा पाठ्यक्रमों पर सवाल उठाया था। शीर्ष अदालत ने उड़ीसा हाईकोर्ट के इस फैसले को कि पत्राचार के जरिए तकनीकी शिक्षा सही है, उसे खारिज करते हुए स्पष्ट कर दिया था कि किसी भी प्रकार की तकनीकी शिक्षा दूरस्थ पाठ्यक्रमों के माध्यम से उपलब्ध नहीं कराई जा सकती। शीर्ष अदालत के इस फैसले से मेडिकल, इंजीनियरिंग और फार्मेसी समेत कई अन्य पाठ्यक्रम जो तकनीकी पाठ्यक्रम की श्रेणी में आते हैं, उन्हें लेकर विश्वविद्यालय अब मनमानी नहीं कर सकते।

इतना ही नहीं, इस फैसले से पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के उस निर्णय को भी समर्थन मिलता है जिसमें कंप्यूटर विज्ञान में पत्राचार के माध्यम से ली गई डिग्री को नियमित तरीके से हासिल डिग्री की तरह मानने से इनकार कर दिया गया था। कचोटने वाली बात यह भी है कि उच्च शिक्षा के नाम पर चौतरफा अव्यवस्था फैली हुई है। बीते दो दशक में दूरस्थ शिक्षा को लेकर गली-मोहल्लों में दुकानें खुलने का सिलसिला आज भी जारी है।

उत्तर प्रदेश के कई नामी-गिरामी विश्वविद्यालय भी इस मोह से नहीं बच पाए। स्नातक और परास्नातक समेत कई व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को लेकर दूरस्थ माध्यम से बिना किसी खास कसौटी के न केवल केंद्र खोलने की अनुमति दी गई, बल्कि स्वयं के साथ इससे जुड़े ठेकेदारों को भी फायदा पहुंचाने लगे। इतना ही नहीं, बीटेक से लेकर एमबीए तक की डिग्रियां भी दूरस्थ माध्यम से ऐसे केंद्रों से सहज रूप से उपलब्ध होने लगी।

दरअसल, शिक्षण संस्थाओं ने व्यवसाय अधिक किया, जबकि नैतिक धर्म का पालन करने में कोताही बरती है। हमारे छह पुराने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान आमतौर पर राष्ट्रीय रैंकिंग में सबसे आगे रहते हैं, उन्होंने मूल्यांकन प्रक्रिया की पारदर्शिता पर चिंताओं का हवाला देते हुए लगातार पांचवें वर्ष ‘टाइम्स हायर एजुकेशन वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग’ का बहिष्कार जारी रखा है। वैश्विक स्तर पर, आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय लगातार नौवें वर्ष शीर्ष स्थान पर बना हुआ है, जबकि एमआइटी स्टैनफोर्ड को पछाड़ कर दूसरे स्थान पर पहुंच गया है।

ऐसे में हमारी शिक्षा व्यवस्था किस मुकाम पर है? जाहिर है जब तक उच्च शिक्षण संस्थान चलाने वाले गंभीर नहीं होंगे, शिक्षा के महत्त्व को नहीं समझेंगे और शोध के मामले में गंभीर नहीं होंगे, तब तक यह व्यवस्था हांफती रहेगी और इसमें सुशासन की दरकार बनी रहेगी।