देश में सूदखोरी एक ऐसी सामाजिक और आर्थिक समस्या है, जो संस्थागत बैंकिंग तंत्र की सीमाओं, गरीबी और तत्काल वित्तीय आवश्यकताओं की वजह से गहरे जड़ें जमा चुकी है। सूदखोरी में उधार देने की प्रक्रिया औपचारिक वित्तीय नियमन के दायरे से बाहर, अत्यधिक ब्याज दरों पर आधारित। ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में विशेष रूप से, कृषि ऋण, आपातकालीन स्वास्थ्य व्यय और पारिवारिक आयोजनों की तत्काल आवश्यकता के समय, जब औपचारिक ऋण सुलभ नहीं होता, तब गरीब और निम्न मध्यवर्ग के लोग गैर-संस्थागत सूदखोरों पर निर्भर हो जाते हैं।
राष्ट्रीय पतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) के सत्तरवें दौर (2013) के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में 36 फीसद और शहरी क्षेत्रों में 17 फीसद परिवार गैर-संस्थागत ऋण पर आश्रित थे। राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2022 की रपट के अनुसार, ऋण न चुका पाने के कारण 5,554 आत्महत्याएं हुईं, जिनमें कई मामलों में गैर-संस्थागत कर्जदाता जिम्मेदार थे।
ग्रामीण भारत में सूदखोरी के चलन में अक्सर यह शर्त शामिल होती है कि यदि ऋण समय पर वापस नहीं किया गया, तो कर्जदार को अपनी संपत्ति का बैनामा कर्जदाता के नाम कराना पड़ेगा। कई बार सूदखोर ऋण देने के समय ही एक वापसी बैनामा (रिवर्स डीड) तैयार करा लेते हैं, ताकि ऋण की अदायगी न होने पर बिना अतिरिक्त कानूनी प्रक्रिया के, तुरंत संपत्ति पर स्वामित्व का दावा किया जा सके।
कर्ज अदायगी में विफलता केवल आर्थिक हानि तक सीमित नहीं रहती, बल्कि कई बार कर्जदार को ऋण की राशि से कहीं अधिक मूल्य की संपत्ति गंवानी पड़ती है, जिससे उसकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति पर गहरा आघात पहुंचता है। राष्ट्रीय ग्रामीण जीवन सर्वेक्षण और विभिन्न राज्य सरकारों की भूमि विवाद रपटों के अनुसार, यह स्थिति विशेष रूप से आर्थिक रूप से कमजोर और सीमांत किसानों के बीच अधिक प्रचलित पाई गई है।
ग्रामीण समाज में सूदखोरी का एक जटिल पक्ष यह भी है कि कर्जदार प्राय: अपने तबके के व्यक्तियों से ही ऋण लेते हैं। इस तरह, एक ही तबके के कुछ आर्थिक रूप से सक्षम व्यक्तियों का क्षेत्रीय समुदाय और अर्थव्यवस्था पर प्रभुत्व स्थापित हो जाता है। यह प्रभुत्व केवल आर्थिक नहीं, सामाजिक और राजनीतिक रूप से भी स्थापित हो जाता है। राष्ट्रीय ग्रामीण विकास संस्थान (एनआइआरडी) और स्वतंत्र ग्रामीण अध्ययन रपटों के अनुसार, जिन जातीय समूहों के पास अधिक आर्थिक नियंत्रण होता है, वे स्थानीय चुनावों और राजनीतिक निर्णयों पर भी प्रभाव डालते हैं।
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इस तरह कर्जदाता का परोक्ष दबाव कर्जदार के मतदान रुझान को प्रभावित करता है। इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया निष्पक्ष और स्वतंत्र नहीं रह पाती। आर्थिक शोषण से उत्पन्न यह राजनीतिक प्रभाव ग्रामीण क्षेत्रों में सत्ता के केंद्रीकरण और सामाजिक असमानता को और गहरा कर देता है।
ब्रिटिश शासनकाल में भी ग्रामीण कर्जग्रस्तता एक प्रमुख चिंता रही, जिसके परिणामस्वरूप कृषि ऋण राहत कानून लागू करने पड़े। आज भी, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में सूदखोरी आत्महत्या, संपत्ति गंवाने और सामाजिक अपमान का एक मुख्य कारण बनी हुई है। सूदखोरी के पीछे मुख्य कारक बैंकिंग पहुंच की कमी, दस्तावेज संबंधी बाधाएं, वित्तीय साक्षरता का अभाव और सरकारी योजनाओं की सीमित पहुंच हैं।
भारतीय रिजर्व बैंक की 2021 की रपट के अनुसार, लगभग 20 फीसद ग्रामीण आबादी औपचारिक बैंकिंग सेवाओं से वंचित है। वित्तीय साक्षरता सर्वेक्षण 2020 के अनुसार, केवल 27 फीसद भारतीय वयस्कों को वित्तीय सिद्धांतों की बुनियादी समझ है। विवाह, बीमारी और कृषि जैसे तात्कालिक खर्चों के लिए लोग सूदखोरों की मदद लेते हैं, जहां ब्याज दरें कई बार सामान्य से बहुत अधिक होती हैं, जो औपचारिक बैंक ऋण दरों कई गुना ज्यादा होती है। ग्रामीण समाज में बिना लिखित अनुबंध वाली उधारी भी सूदखोरी को बढ़ावा देती है।
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सूदखोरी का आर्थिक प्रभाव अत्यंत गहरा है। व्यक्ति मूलधन से कई गुना ब्याज चुकाने के बाद भी ऋण से मुक्त नहीं हो पाता और संपत्ति खो देता है। एनएसएसओ की रपट के अनुसार, ग्रामीण कर्जग्रस्तता में गैर-संस्थागत ऋण साधनों का प्रमुख प्रभाव रहा है। सामाजिक स्तर पर, परिवारों में तनाव और मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ती हैं। राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो के अनुसार, आत्महत्या करने वालों में बड़ी संख्या किसानों और छोटे व्यापारियों की थी, जो आर्थिक दबाव के कारण सूदखोरों के जाल में फंसे थे।
भारत में सूदखोरी को सीधे नियंत्रित करने वाला कोई व्यापक राष्ट्रीय कानून नहीं है। तमिलनाडु (2003), कर्नाटक (2004) और महाराष्ट्र (1946) सहित कुछ राज्यों ने सूदखोरी पर नियंत्रण के लिए विशेष अधिनियम बनाए हैं। भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) की धारा 384 (जबरन वसूली) और धारा 506 (आपराधिक धमकी) का आंशिक उपयोग संभव है, लेकिन सूदखोरी को अलग आर्थिक अपराध के रूप में आइपीसी में स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है।
भारतीय रिजर्व बैंक का प्रत्यक्ष नियंत्रण केवल बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) तक सीमित है, जबकि अनधिकृत ऋणदाता इसके दायरे से बाहर हैं। कानूनी प्रणाली में सबसे बड़ी बाधा यह है कि ऋण लेन-देन अनौपचारिक होता है, जिससे साक्ष्य के अभाव में न्यायिक कार्रवाई कठिन हो जाती है। इसके अलावा, पुलिस और प्रशासनिक कमजोरी तथा भ्रष्टाचार भी कानूनों के प्रभावी कार्यान्वयन में बाधक हैं।
सरकारी प्रयासों के तहत प्रधानमंत्री मुद्रा योजना (पीएमएमवाई), स्टैंड-अप इंडिया योजना, प्रधानमंत्री स्वनिधि योजना और प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम (पीएमईजीपी) चलाए गए हैं। पर, स्वतंत्र आकलनों से पता चला है कि इन योजनाओं का मुख्य लाभ शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों तक सीमित रहा, जबकि सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी पहुंच सीमित रही।
इसके अलावा, ऋण प्रक्रिया की जटिलता और वित्तीय साक्षरता की कमी भी बड़ी बाधाएं बनी रहीं। वर्ष 2024 में केंद्र सरकार ने अनियमित डिजिटल और पारंपरिक ऋणदाताओं के खिलाफ एक मसविदा कानून प्रस्तावित किया है, जिसमें सात से दस वर्षों तक की सजा का प्रावधान है। यह एक सकारात्मक कदम है, किंतु इसके प्रभावी कार्यान्वयन और ग्रामीण इलाकों में जागरूकता बढ़ाने की दिशा में भी ठोस प्रयास आवश्यक हैं।
समाधान के रूप में सबसे पहले एक सशक्त राष्ट्रीय कानून बनाना आवश्यक है जो सूदखोरी को आर्थिक अपराध के रूप में स्पष्ट रूप से परिभाषित करे। इसके साथ ही बैंकिंग सेवाओं को गांवों और सुदूर इलाकों तक पहुंचाना, ऋण प्रक्रिया को सरल बनाना और स्वयं सहायता समूहों तथा सहकारी समितियों को सशक्त करना जरूरी है। वित्तीय साक्षरता अभियानों को ग्राम पंचायत स्तर तक पहुंचाया और स्कूलों में वित्तीय शिक्षा को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए।
पंचायतों, स्वयंसेवी संस्थाओं और जागरूक नागरिकों की भागीदारी से वंचित समुदायों को इस आर्थिक और सामाजिक दासता से मुक्त कराया जा सकता है। जब तक प्रत्येक व्यक्ति को गरिमा के साथ आर्थिक संसाधनों तक पहुंच नहीं मिलेगी, तब तक भारत में वास्तविक समावेशी विकास और सामाजिक न्याय की स्थापना संभव नहीं होगी।