Bihar 1962 Elections: मैं बिहार हूं, माता जानकी की भूमि हूं, कई दूसरी महिलाओं की कर्मभूमि भी रहा हूं, लेकिन इन्हीं महिलाओं को कई सालों तक मेरी धरती पर आजादी के साथ जीने का मौका नहीं मिला, लेकिन फिर देश के संविधान ने, समाज के बदलते स्वरूप ने परिवर्तन की लहर को हवा दी और मैंने भी बदलाव होता देखा। याद आता है एक चुनाव जहां पहली बार राजनीति में महिलाओं की ताकत का अहसास हुआ, याद आता है जब आधी आबादी ने भी विधानसभा तक का सफर तय किया। मैं बिहार हूं और ये 1962 के चुनाव की कहानी है-
जवाहर लाल नेहरू का करिश्मा कुछ कम हो रहा था, स्वतंत्र पार्टी की ताकत बढ़ती जा रही थी, कम्युनिस्ट भी अपनी विचारधारा के साथ आगे बढ़ चले थे। माना जा रहा था कि तीसरा लोकसभा चुनाव कांग्रेस और नेहरू के लिए काफी मुश्किल वाला होगा। बिहार में भी विधानसभा चुनाव साथ हो रहे थे, वहां भी स्वतंत्र पार्टी मजबूत विपक्ष बनी हुई थी, जनसंघ खाता खोलने की कोशिश में थी और कांग्रेस अंदरूनी कलह से परेशान चल रही थी।
उस चुनाव में कांग्रेस ने अपनी सरकार तो फिर बना ली, लेकिन उसकी सीटें काफी कम रह गईं। 318 सीटों में से कांग्रेस को 185 सीटें मिलीं, पिछली बार की तुलना में 25 सीटें और कम मिली थीं। वहीं स्वतंत्र पार्टी की ताकत बढ़ती जा रही थी, इस चुनाव में उसने अपना प्रदर्शन सुधारते हुए 50 सीटों पर जीत दर्ज की। इससे भी बड़ी बात यह रही कि जनसंघ ने अपना खाता खोल लिया, उसके तीन नेता पहली बार विधायक बन गए। सीवान के जनार्दन तिवारी, हिलसा से जगदीश प्रसाद और नवादा से गौरीशंकर केसरी ने इतिहास रचा।
इस चुनाव की एक खास बात ये रही कि कई सारी महिला प्रत्याशी भी जीत गईं, उनकी भागीदारी कई गुना बढ़ी। इस एक रुझान ने आने वाले कई सालों के बिहार के सियासी पैटर्न को सेट किया। उस चुनाव में 46 सीटों पर महिला प्रत्याशी उतारे गए थे, वहां 25 ने जीत दर्ज की और विधानसभा तक का सफर तय किया। अब उस चुनाव की खास बात ये भी रही कि जागरूकता काफी ज्यादा बढ़ चुकी थी, लोकतंत्र के पर्व में लोगों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। आंकड़े बताते हैं कि तब 2 करोड़, 21 लाख 15 हजार 41 मतदाताओं ने अपने वोटिंग अधिकार का इस्तेमाल किया।
वोटिंग प्रतिशत भी उस चुनाव में 44.47 फीसदी तक पहुंचा। उस चुनाव तक भी प्रचार का तरीका ज्यादा बदला नहीं था, घर-घर जाकर ही उम्मीदवारों को वोट की अपील करनी पड़ती थी। धूप में पसीना बहाना लाजिमी था। अब राजनीति करने का तरीका तो नहीं बदला, लेकिन कांग्रेस में काफी कुछ बदल चुका था। 1962 के विधानसभा चुनाव से पहले ही कांग्रेस ने बिहार के अपने सबसे बड़े नेता श्रीकृष्ण सिंह को खो दिया था, 73 साल की उम्र में उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा।
श्रीकृष्ण सिंह का जाना कांग्रेस के लिए एक टर्निंग प्वाइंट रहा, कई मुद्दों पर पहले ही अंदरूनी कलह से जूझ रही पार्टी में उत्तराधिकारी की जंग छिड़ गई। बिहार चुनाव से पहले ही मुख्यमंत्री बनने के सपने कई ने देखे। इसी वजह से सबसे पहले मात्र 18 दिनों के लिए दीप नारायण सिंह को मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला, फिर उनके बाद बिनोदानंद झा को सीएम कुर्सी सौंप दी गई। कांग्रेस के लिए बिहार में खराब समय शुरू हो चुका था, पार्टी के अंदर जारी बगावत अब अस्थिरता पैदा करने लगी थी।
बिहार के पहले चुनाव की कहानी
कांग्रेस ने जैसे-तैसे 1962 का चुनाव बिनोदानंद झा के नेतृत्व में लड़ा, कम बहुमत वाली जीत भी मिल गई, लेकिन पार्टी के अंदर सत्ता की लड़ाई जारी रही। उस जमाने में बिहार कांग्रेस के एक और बड़े नेता हुआ करते थे, नाम था कृष्ण वल्लभ सहाय, उस समय वे संविधानकारी सभा के अहम सदस्य थे। बिनोदानंद झा को उनसे काफी चुनौती मिलती थी, उसी का नतीजा भी रहा कि तीन सा से भी कम समय बाद ही झा को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी और बिहार को चौथा मुख्यमंत्री मिला- कृष्ण वल्लभ सहाय। लेकिन कांग्रेस के लिए जो अस्थिरता का दौर शुरू हुआ, वो आने वाले कई सालों तक खत्म नहीं हो सका और इसी वजह से बाद में कांग्रेस का बिहार से ही सफाया हो गया।
शुरुआती चुनावों में जो झटके सिर्फ कुछ सीटों तक सीमित दिखे, आगे चलकर उन्होंने अपना ऐसा व्यापक असर दिखाया कि हर जाति, हर समाज के बीच में पार्टी की लोकप्रियता गिरती चली गई, खास बात ये रही कि कांग्रेस से ही निकलकर कई दिग्गजों ने दूसरी पार्टियां बनाईं, खूब लोकप्रियता हासिल की और आगे चलकर देश की सबसे पुरानी पार्टी को ही बिहार में अर्श से फर्श पर ला दिया।
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