Delhi News: 25 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में मौजूद इंद्रप्रस्थ अपोलो को वॉर्निंग दी थी कि अगर वह गरीब मरीजों को फ्री इलाज मुहैया कराने के लिए राज्य सरकार को दी गई जमीन पट्टे की प्रतिबद्धता को पूरा नहीं करता है तो वह इस हॉस्पिटल को एम्स को अपने हाथ में लेने का निर्देश देगा। वह वॉर्निंग कोई बेवजह ही नहीं दी गई थी। इसके पीछे कई सारे कारण थे।
हॉस्पिटल ने हर साल औसतन अपने निर्धारित बेड का सिर्फ 17 फीसदी ही ईडब्ल्यूएस के मरीजों के लिए आवंटित किया है। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, कंपनी के रिकॉर्ड डेटा से पता चलता है कि यह फाइनेंसियल ईयर 2018-19 में मुश्किल से 20.87 फीसदी से लेकर फाइनेंसियल ईयर 2014-15 में 12.01 फीसदी के निचले स्तर तक था।
आंकड़ों से पता चलता है कि फाइनेंसियल ईयर 2012-13 और 2023-24 के बीच कुल 2,97,555 मरीजों ने हॉस्पिटल में फ्री सेवाएं लीं। इनमें से 88 फीसदी ओपीडी में और 12 फीसदी अस्पताल में भर्ती होने के लिए आईपीडी में थे। आंकड़ों से पता चलता है कि औसतन हर साल केवल 2,997 मरीजों ने आईपीडी में इलाज लिया। यह उन्हें बिस्तर पाने का हकदार बनाता है।
लीज समझौते की शर्तों के मुताबिक, जिसके आधार पर उसे दिल्ली -मथुरा रोड पर 15 एकड़ बेशकीमती जमीन मात्र एक रुपये प्रति माह पर दी गई थी। अस्पताल को 600 बेड की कुल क्षमता के कम से कम एक तिहाई बिस्तरों पर फ्री मेडिकल, डॉयग्नोस्टिक और अन्य जरूरी देखभाल की सुविधाएं देना था।
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बेड ऑक्यूपेंसी रेट एक अहम इंडिकेटर है। इसका इस्तेमाल अस्पताल यह ट्रैक करने के लिए करते हैं कि समय के साथ उनके बेड का कितना प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया जा रहा है। अपोलो हॉस्पिटल्स में, आधिकारिक रिकॉर्ड दिखाते हैं कि इस रेट की गणना कुल ऑक्यूपाइड बेड-डे को कुल ऑपरेटिंग बेड-डे से बांटकर की जाती है। हाई कोर्ट की तरफ से किए गए अनिवार्य 200 बेड कोटे को देखते हुए इंद्रप्रस्थ अपोलो में हर महीने 6,000 कुल ऑपरेटिंग बेड-डे EWS मरीजों (200×30) के लिए रिजर्व होने चाहिए। लेकिन 12 साल के टाइम पीरियड में EWS मरीजों के लिए कुल ऑक्यूपाइड बेड-डे की औसत संख्या सिर्फ 1,023 थी। इससे औसत बेड ऑक्यूपेंसी रेट सिर्फ 17.05 फीसदी ही रह गई।
सुप्रीम कोर्ट की तरफ से यह जो वॉर्निंग दी गई है वो 22 सितंबर 2009 के दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश के बाद उपजी है। इसमें कहा गया था कि अस्पताल में कम से कम 200 बिस्तर ईडब्ल्यूएस मरीजों के लिए रिजर्व होने चाहिए। दिल्ली हाई कोर्ट ने 2009 में कहा था, ’15 साल से अधिक समय बीत जाने के बावजूद इनडोर और आउटडोर मरीजों को मुफ्त इलाज देने वाले समझौते की शर्तों का शायद ही कोई कार्यान्वयन हुआ है।’ इस मुद्दे पर गठित समिति की तरफ से दी गई दो रिपोर्टों का हवाला देते हुए हाई कोर्ट ने कहा कि वह साफ तौर पर दिखाती हैं कि आईएमसीएल ने शर्तों का उल्लंघन किया है।
डेटा से पता चलता है कि फाइनेंसियल ईयर 2012-2014 में हर महीने औसतन 164 EWS मरीज भर्ती हुए और औसत ऑक्यूपेंसी रेट सिर्फ 13 फीसदी था। फाइनेंसियल ईयर 2015 और फाइनेंसियल ईयर 2019 के बीच औसत मासिक EWS दाखिले लगभग 287 तक पहुच गए, जबकि औसत ऑक्यूपेंसी रेट बढ़कर 19.7 फीसदी हो गई। महामारी के सालों के दौरान फाइनेंसियल ईयर 2020 और फाइनेंसियल ईयर 2021 में तो औसत ऑक्यूपेंसी रेट वापस 13 फीसदी पर आ गई। हालांकि, महामारी के बाद की अवधि में थोड़ी रिकवरी देखी गई। फाइनेंसियल ईयर 2022 और फाइनेंसियल ईयर 2023 तक औसत मासिक EWS दाखिले 335 तक पहुंच गए और औसत ऑक्यूपेंसी दर 20.4 फीसदी पर वापस आ गई।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार, केंद्र और दिल्ली सरकार को एक टीम का गठन करना है। यह जांच करेगा कि क्या गरीबों का मुफ्त इलाज हो रहा है या जमीन ‘निजी हित के लिए हड़पी गई है। रिपोर्ट चार सप्ताह में सुप्रीम कोर्ट को सौंपनी है। सुप्रीम कोर्ट ने अस्पताल को हलफनामे में अपना पक्ष साफ करने की इजाजत देते हुए उसे मौजूदा कुल बिस्तरों की संख्या और पिछले पांच सालों के ओपीडी मरीजों के रिकॉर्ड प्रस्तुत करने का निर्देश दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘हलफनामे में यह बताया जाएगा कि पिछले पांच सालों में राज्य अधिकारियों की सिफारिश पर कितने गरीब मरीजों को इनडोर और आउटडोर इलाज दिया गया।’
(पढ़ें – अंकिता उपाध्याय की रिपोर्ट)