दिल्ली की हवा जहरीली होती जा रही है। शहरीकरण, वाहनों की भीड़, औद्योगिक गतिविधियों और अनियंत्रित निर्माण कार्यों से स्थितियां जटिल हो गई हैं। वायु प्रदूषण अब केवल एक मौसमी समस्या नहीं, बल्कि वर्ष भर के लिए सतत स्वास्थ्य आपातकाल बन चुका है। मगर अफसोस कि दिल्ली में वायु प्रदूषण से सार्वजनिक स्वास्थ्य से बचाव के लिए जिन जरूरी कदमों की दरकार थी, उनके बजाय सरकारी तंत्र आंकड़ों की चमक-दमक के पीछे भागता दिख रहा है। दिल्ली में वायु गुणवत्ता की निगरानी के लिए बहुस्तरीय ढांचा मौजूद है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति द्वारा संचालित चालीस से अधिक सतत निगरानी केंद्र समूचे शहर में कार्यरत हैं।
कागज पर यह व्यवस्था व्यापक लगती है, लेकिन जमीनी सच्चाई कहीं अधिक जटिल और चिंताजनक है। कई निगरानी केंद्र उन जगहों पर हैं, जहां वैज्ञानिक मानकों के मुताबिक नहीं होना चाहिए। नतीजतन, प्रदूषण के वास्तविक स्तर का पता नहीं लग पाता। केंद्रीय एजंसियों और नियंत्रकों और महालेखापरीक्षक (कैग) की ताजा रपट के मुताबिक निगरानी नेटवर्क में पारदर्शिता और वैज्ञानिक ईमानदारी का अभाव है।
दिल्ली की नई सरकार प्रदूषण के मसले पर संजीदा दिख रही है, चाहे यमुना की सफाई का मुद्दा हो या फिर राजधानी की खराब हवा। इसी कवायद में छह नए सतत वायु गुणवत्ता निगरानी स्टेशन स्थापित करने की पहल ने विवाद पैदा कर दिया है। गहन विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि नए स्टेशनों के लिए चयनित स्थान जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली छावनी, राष्ट्रमंडल खेल परिसर और इसरो अर्थ स्टेशन जैसे इलाके, अपेक्षाकृत स्वच्छ और हरित क्षेत्र हैं। इन स्थानों में वायु गुणवत्ता पहले से ही औद्योगिक या भीड़भाड़ वाले क्षेत्रों की तुलना में काफी बेहतर रहती है। जबकि असली संकट घनी आबादी और भारी प्रदूषण वाले इलाकों में पसरा हुआ है, तब निगरानी का विस्तार अपेक्षाकृत स्वच्छ क्षेत्रों तक करना एक तरह से वायु प्रदूषण के विकराल होते संकट को छिपाने की चतुराई है।
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ऐसे में, छह नए स्टेशनों के चयन से दिल्ली का औसत वायु गुणवत्ता सूचकांक कृत्रिम रूप से सुधरता दिखाई देगा, जबकि धरातल पर प्रदूषण की भयावहता जस की तस बनी रहेगी। यह आंकड़ों का सौंदर्यीकरण महज कागजी राहत प्रदान कर सकता है, वास्तविकता में दिल्ली वालों की उखाड़ती सांसों में कोई सुकून नहीं ला सकता। औसत वायु गुणवत्ता सूचकांक के आंकड़ों में सुधार दिखाने की रणनीति प्रदूषण और शहरी निकाय के नीतिगत निर्णयों को भी भ्रमित करने वाला हो सकता है।
अभी दिल्ली में वायु गुणवत्ता निगरानी वाले चालीस स्टेशन हैं, जिनमें कम से कम दस औद्योगिक इलाकों में, सात हरित क्षेत्रों, आठ रिहायशी इलाकों और बाकी भीड़भाड़ वाले क्षेत्रों में हैं। कई रपटें अपर्याप्त वायु गुणवत्ता निगरानी नेटवर्क की ओर इशारा कर चुकी हैं। सघन जनसंख्या वाले आवासीय क्षेत्र, भीड़भाड़ और भारी यातायात वाले क्षेत्र, औद्योगिक क्षेत्र, कूड़ा निस्तारण के इलाके और निर्माण वाले क्षेत्रों में अधिकांश लोग, विशेष रूप से बच्चे और बुजुर्ग प्रदूषित हवा के लंबे समय तक संपर्क के प्रतिकूल स्वास्थ्य प्रभावों से सबसे अधिक प्रभावित हैं। दिल्ली में वायु निगरानी तंत्र के विस्तार के लिए उपरोक्त स्थानों को प्राथमिकता देने की जरूरत है। मसलन, ओखला और उत्तर-पूर्वी दिल्ली के कुछ हिस्से में अभी भी चौबीस घंटे निगरानी नहीं है। दिल्ली के निगरानी स्टेशन के भौगोलिक विस्तार को देखें तो दक्षिण-पश्चिम और उत्तर-पश्चिम के बाहरी इलाकों में निगरानी स्टेशन बढ़ाने की जरूरत है। दिल्ली के वायु गुणवत्ता निगरानी नेटवर्क का वितरण असमान और असंतुलित है।
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अपेक्षाकृत साफ हरित इलाकों और स्वच्छ परिसरों में वायु प्रदूषण निगरानी तंत्र स्थापित करने का वैज्ञानिक औचित्य हो सकता है, क्योंकि ये दीर्घकालिक रुझानों और तुलनात्मक शोध के लिए एक प्रकार के नियंत्रण समूह की भूमिका निभा सकते हैं। मगर जब पूरा शहर वायु प्रदूषण के कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल का सामना कर रहा हो, तब नीतिगत रूप से प्राथमिकता उन इलाकों को मिलनी चाहिए, जहां वायु प्रदूषण का स्तर सर्वाधिक है और जहां सबसे अधिक जनसंख्या निवास करती है। वर्तमान परिदृश्य में आंकड़ों के सौंदर्यीकरण की कोशिश तकनीकी समझ की कमी का परिणाम हो सकती है। इससे तत्कालीन राजनीतिक लाभ दिखने भी लगे, लेकिन दीर्घकालिक रूप से दिल्ली वासियों को शायद ही कोई सकारात्मक परिणाम मिले।
दिल्ली का सरकारी अमला वायु गुणवत्ता निगरानी, खासकर स्वास्थ्य संबंधी तकनीकी पहलू को दरकिनार कर औसत वायु गुणवत्ता के हिसाब-किताब के केवल सांख्यिकी पहलू पर जोर देता दिख रहा है। वायु प्रदूषण पर चिंता का महत्त्वपूर्ण कारण है, उसका स्वास्थ्य पर विनाशकारी प्रभाव। औसत वायु गुणवत्ता निर्धारण में अक्सर दो किस्म की विसंगतियां होने की संभावना रहती है। कम प्रदूषण के बदले ज्यादा प्रदूषण की गणना और इसका उल्टा यानी ज्यादा प्रदूषित के बदले कम प्रदूषण की गणना हो जाना। दूसरी वाली विसंगति में अधिक प्रदूषण वाले क्षेत्र में कम प्रदूषण दर्ज होगा।
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निगरानी स्टेशनों के स्थान चयन में पारदर्शिता का अभाव दिखता है। ऐसा लगता है कि प्रदूषण के असली स्रोतों को उजागर करने से बचने के लिए जानबूझ कर कम प्रदूषित इलाकों को चुना गया है। स्वास्थ्य नीति का मूल सिद्धांत यही होना चाहिए कि समस्या की पहचान पूरी ईमानदारी और वैज्ञानिक विधि से की जाए। अगर मूलभूत आंकड़ा ही गड़बड़ हो जाए, तो न कोई प्रभावी हस्तक्षेप संभव है और न ही स्वास्थ्य आपदा को टाला जा सकता है।
सरकारी स्तर का यह फैसला खराब या प्रदूषित हवा को केवल कम प्रदूषित हवा मान लेने भर का मामला नहीं है। शहर की औसत वायु गुणवत्ता, महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य परामर्शों, गंभीर प्रदूषण के दौरान स्कूल-कालेज बंद करने, कार्यालयों में आनलाइन गतिविधि संबंधी निर्णय शहरी नियोजन के दूरगामी रणनीतियों के निर्धारण सहित अनेक सरकारी और गैर-सरकारी निर्णयों के लिए आधार का काम करता है। खासकर सर्वोच्च न्यायालय के दखल के बाद 2016 से दिल्ली में ‘ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान’ (ग्रैप) लागू होने के बाद शहर का औसत वायु गुणवत्ता सूचकांक एक पैमाना बन गया है। ग्रैप एक तरह से दिल्ली-एनसीआर में बढ़े हुए वायु-प्रदूषण के स्तर को तात्कालिक रूप से नियंत्रित करने की आपातकालीन व्यवस्था है।
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दिल्ली की वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए निगरानी नेटवर्क का पुनर्गठन एक प्राथमिक आवश्यकता है। यहां वायु निगरानी ढांचे का विस्तार एक सकारात्मक कदम हो सकता है, लेकिन नए वायु गुणवत्ता निगरानी स्टेशन को मुख्य रूप से अपेक्षाकृत स्वच्छ, हरे-भरे क्षेत्रों में स्थापित करने की वर्तमान रणनीति भ्रामक दृष्टिकोण प्रतीत होती है, जिससे न सिर्फ सार्वजनिक स्वास्थ्य चेतावनियां, बल्कि प्रदूषण कम करने के प्रयास गलत दिशा में जा सकते हैं। वर्तमान परिदृश्य में दिल्ली एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है, जहां वायु प्रदूषण का संकट नीतिगत चूक और इच्छाशक्ति की परीक्षा ले रहा है। आंकड़ों को सुधार कर न तो हवा साफ होगी और न ही दमघोंटू हवा से निजात मिलेगी। ऐसे में नीति निर्माताओं की प्राथमिकता जनस्वास्थ्य हो, न कि आंकड़ों की चमकती तस्वीरें दिखाना। सरकार पारदर्शी तरीके से और तकनीकी पक्ष के आधार पर प्रदूषण नियंत्रण की नीति लागू करे।