वैश्वीकरण के बाद कई स्तरों पर बदलाव हुए हैं। ये बदलाव देश और समाज के लिए कई मामलों में बेहतर साबित हुए हैं, लेकिन कई मामलों में इससे समाज में कई तरह की दुश्वारियां और समस्याएं बढ़ी हैं। जोखिम भी बढ़े हैं। इसका सबसे ज्यादा असर युवा पीढ़ी पर पड़ा है। हिंसा, आत्महत्या और यौनाचार के मामले पिछले तीन दशक में युवा वर्ग में बढ़े हैं। एक सर्वेक्षण के आंकड़े के मुताबिक देश के 75 फीसद युवा इक्कीस साल की उम्र से पहले मादक पदार्थों का सेवन करने लगता है। वहीं 88 फीसद अठारह साल या इससे कम उम्र के बच्चे अलग-अलग तरह का नशा करते हैं। खासकर बारह से सोलह साल के बच्चे सिगरेट, स्मैक और गुटखा जैसे नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं।
इसके लिए वे चोरी और लूटपाट जैसे अपराध तक करने लगे हैं। इतना ही नहीं, सेहत को ताक पर रख कर युवा जिस तरह बुरी आदतों का शिकार हो रहा है, उससे आने वाले वक्त में देश का अधिकांश युवा नशे के गिरफ्त में आ जाए तो कोई ताज्जुब नहीं होगा। नशा महज सेहत चौपट नहीं कर रहा, बल्कि धन और वक्त की बर्बादी के साथ युवकों को तनाव, निराशा और हताशा का भी शिकार बना रहा है। दिमागी तौर पर तनाव के हालात इस तरह इनमें पैदा हो रहे हैं कि वह अपना अच्छा-बुरा भी भूल गया है।
सर्वेक्षण बताते हैं कि युवाओं में अजीब तरह की नासमझी बढ़ी है। इसका असर यह हुआ है कि ये आत्महत्या जैसे अत्यंत खतरनाक कदम भी उठा लेते हैं। इनमें नशे की लत का बढ़ते जाना भी एक खास वजह है। अध्ययन से पता चला है कि बगैर किसी खास कोशिश के इन्हें आसानी से नशीले पदार्थ मिल जाते हैं। सर्वेक्षण बताते हैं कि स्कूल-कालेज स्तर पर बच्चों, किशोरों और युवा-युवतियों को सिगरेट, तंबाकू और गुटखा जैसे नशीले पदार्थ आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। इससे उनकी सेहत ही चौपट नहीं होती, शिक्षा पर भी नकारात्मक असर पड़ा है। बड़ी संख्या में बच्चों, युवाओं और किशोरों के शिक्षा पूरी किए बगैर स्कूल छोड़ने की वजह उनका नशीले पदार्थों की गिरफ्त में आना भी है।
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एक अनुमान के मुताबिक देश में नशे का कारोबार बीस लाख करोड़ रुपए हर साल होता है। देश की तीन फीसद आबादी बुरी तरह नशे की गिरफ्त में है। पिछले कुछ सालों में गुजरात के मुंद्रा बंदरगाह से तीन हजार किलो से ज्यादा नशीले पदार्थों की बरामदगी हुई। दिल्ली और लखनऊ में 322 किलो की बरामदगी हुई। पुणे, दिल्ली, कोटा, बंगलुरु और हैदराबाद जैसे विकसित हो रहे आइटी शहरों में भी बड़ी संख्या में छात्रों में नशे की लत बढ़ रही है। दिल्ली एम्स के एक सर्वेक्षण के मुताबिक दस से सत्रह साल के 1.48 करोड़ बच्चे और किशोर कोकीन, गांजा, अफीम और शराब सेवन कर रहे हैं। ये नशीले पदार्थ इन्हें आनलाइन और वेबसाइटों के जरिए बेरोकटोक हासिल हो रहे हैं। सर्वेक्षण बताते हैं कि पिछले तीन वर्षों में युवाओं में नशे की प्रवृत्ति बढ़ी है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि पिछले पांच वर्षों में बीस हजार से ज्यादा बच्चे नशे के शिकार हुए हैं। ‘साइक्रोट्रापिक ड्रग्स’ की पहुंच छोटे कस्बों और छोटे शहरों में बहुत तेजी के साथ बढ़ी है। कस्बों और शहरों में होटल और रेस्तरां मालिक छात्रों को नशीले पदार्थ मुहैया करा रहे हैं।
पिछले दो दशक में शहरों और कस्बों के अलावा गांवों में भी नशीले पदार्थों की बड़े पैमाने पर खपत होने लगी है। एक आंकड़े के मुताबिक गुजरात, पंजाब, बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और राजस्थान के अनेक गांवों में नशीले पदार्थों की खपत बढ़ रही है। ‘वर्ल्ड ड्रग्स’ की रपट के मुताबिक देश के तमाम हिस्सों में माफिया के जरिए अफीम किशोरों को दी जा रही है। देश में नशीले पदार्थों की रोकथाम के लिए केंद्र और राज्य सरकारें कई तरह के कदम उठा रही हैं, लेकिन कानून लचीला होने की वजह से इस क्षेत्र के माफिया में किसी तरह का डर नहीं दिखाई देता है। नशीले पदार्थों की आपूर्ति करने वालों के खिलाफ कड़े कानून बनाए जाएं, तो नशे के जानलेवा दलदल से युवा पीढ़ी को बचाया जा सकता है। सर्वेक्षण बताते हैं कि जहां पुलिस की पहुंच बहुत कम है, वहां नशीले पदार्थों की पहुंच और खपत ज्यादा है। ऐसे में राज्य सरकारों को चाहिए कि पुलिस बल की संख्या बढ़ाएं और नशे के कारोबारियों पर नकेल कसें। अध्ययन से पता चला है कि नशीले पदार्थों के कारोबार में पुरुष ही नहीं, महिलाएं भी बड़ी संख्या में शामिल हैं।
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देश में नशीले पदार्थों के परीक्षण की प्रयोगशालाएं बहुत कम हैं। केंद्र और राज्य सरकारों की कोशिश होनी चाहिए कि जरूरत के मुताबिक नशीले पदार्थों के परीक्षण के लिए नई प्रयोगशालाएं खोलें। इससे नशे के सौदागरों पर लगाम लगाने में मदद मिल सकती है। वैसे रोकथाम के लिए ‘ड्रग्स एंड कास्मेटिक एक्ट, 1940’, ‘नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रापिक सबस्टेंस एक्ट 1985’ और ‘नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रापिक सबस्टेंस एक्ट 1988’ लागू है, लेकिन इन सभी कानूनों में कोई दम नहीं है। इसलिए नशे के सौदागर धन-बल और पहुंच के बूते कानून के शिकंजे में नहीं आ पाते हैं। यदि आते भी हैं, तो ऐसी सजा नहीं होती, जो दूसरों के लिए नजीर बने।
दरअसल, आधुनिकता की चकाचौंध में युवा पीढ़ी कल्पना और यथार्थ का फर्क भूल बैठी है। कई बच्चों को घर से ही नशे की आदत पड़ जाती है। कई बच्चे ऐसे भी होते हैं, जो घर वालों की लापरवाही की वजह से गलत संगत में पड़ कर नशे की गिरफ्त में आ रहे हैं। शराब के ठेके बिहार के अलावा हर राज्य में लगातार खुलते जा रहे हैं। जिन गांवों में बच्चे शराब या सिगरेट को हाथ लगाना अपराध समझते थे, उन गांवों में भी शराब के ठेके खुलने की वजह से 80 फीसद बच्चे किसी न किसी नशे की गिरफ्त में देखे जा रहे हैं। नशे की यह लत उनकी सेहत को चौपट कर रही है। नशे के खिलाफ केंद्र सरकार आपरेशन गरुड़ चला चुकी है। नशे के सौदागरों पर लगाम के लिए इंटरपोल और एनसीबी की मदद से आठ राज्यों में अभियान चलाया जा चुका है। मगर यह उतना कारगर नहीं हुआ, जिससे नशीले पदार्थों पर पूरी तरह अंकुश लगाया जा सके।
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सवाल है कि कैसे इस संकट से युवा पीढ़ी को बचाया जाए? संस्था ‘थिंक चेंज’ की रपट कहती है कि कोरोना काल के बाद देश में नशीले पदार्थों की खपत तेजी से बढ़ी है। नशीले पदार्थों की रोकथाम के लिए सरकार के अलावा आम जनता को भी आगे आना होगा। उन्हें पुलिस की मदद करनी होगी और उन सौदागरों की सूचना पहुंचानी होगी, जो करोड़ों रुपए का कारोबार करते हैं। जरूरत है युवा पीढ़ी को भी समझाने की। इसमें शिक्षक, समाजसेवी, परिजन और स्वयंसेवी संगठनों की भूमिका बेहतर हो सकती है।