किसी राष्ट्र की प्रगति का आधार शिक्षा होती है। शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान अर्जित करना और रोजगार तक सीमित नहीं है। भारत जैसे देश में जहां शिक्षा सदियों से विद्यार्थियों को निशुल्क प्रदान की जाती रही हो, वहां महंगे होते निजी विद्यालय अब पूरी तरह से मुनाफे का व्यवसाय बन चुके हैं। ऐसे में सरकारी शिक्षा व्यवस्था पर सवालिया निशान लगता है। निजी विद्यालय अभिभावकों से भारी-भरकम शुल्क वसूलते हैं। बच्चों के भविष्य को देखते हुए कई अभिभावक यह राशि देने के लिए बाध्य होते हें। एक तरह से देखा जाए, तो इन विद्यालयों से शैक्षिक असमानता बढ़ी है। ज्यादा शुल्क तो अपनी जगह है, मगर इससे दो वर्ग तैयार हो रहे हैं। सरकारी विद्यालयों की उपेक्षा किसी से छिपी नहीं है।
देश की अधिकांश जनसंख्या गांवों में निवास करती है, जो आए दिन आर्थिक तंगी से जूझती रहती है। ऐसे में महंगी होती शिक्षा सभी के लिए सहज उपलब्ध नहीं है। निजी विद्यालयों की संख्या ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में लगातार बढ़ रही है। यहां पर छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, बौद्धिक विकास और अतिरिक्त कौशल के नाम पर प्राथमिक स्तर से ही अभिभावकों से मोटी शुल्क वसूली जाती है। यह सच है कि निजी विद्यालयों में शुल्क वृद्धि का कोई ठोस मानक निर्धारित नहीं है। अतिरिक्त गतिविधियों के नाम पर और स्कूलों में विकास कार्यों के लिए भी विद्यार्थियों से ही वसूली होती है। हर वर्ष फीस में बढ़ोतरी की जाती है। इसका बोझ अभिभावकों पर पड़ता है। उन पर बच्चों की कोचिंग और ट्यूशन के शुल्क का दबाव भी रहता है। इससे उन पर दोहरी मार पड़ती है। ऐसे में निजी स्कूलों का बढ़ता शुल्क ही केवल चिंता का विषय नहीं है, बल्कि शैक्षणिक असमानता भी दबे पांव बढ़ रही है।
निजी स्कूलों में तर्कसंगत शुल्क के लिए सरकार को गंभीरता से हस्तक्षेप करना चाहिए। शिक्षा मौलिक अधिकार होने के बावजूद यह इतनी महंगी होती जा रही है कि आने वाले दिनों में सामान्य परिवार का बच्चा शिक्षा से वंचित रह सकता है। निजी विद्यालयों में शुल्क बढ़ने का मूल कारण सरकारी स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कमी, जनसंख्या के अनुपात में विद्यालयों का न होना और आधुनिक संसाधनों का अभाव है। वहीं, सरकारी विद्यालयों में बच्चों में अतिरिक्त कौशल विकसित करने का उचित प्रबंध नहीं है। दूसरी ओर अध्यापकों पर अतिरिक्त सरकारी कार्यों का दायित्व सौंपने से पठन-पाठन में बाधाएं उत्पन्न होती हैं। शिक्षा से ही बच्चों का भविष्य बनता है। राष्ट्र की उन्नति होती है। इसलिए हर अभिभावक चाहते हैं कि उनका बच्चा बेहतर से बेहतर स्कूलों में कौशलयुक्त शिक्षा ग्रहण करे।
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नई शिक्षा नीति लागू होने से सरकारी विद्यालयों में बदलाव की उम्मीद थी, लेकिन ऐसा पूर्ण रूप से होता दिख नहीं रहा है। मौजूदा समय में देश में 14.71 लाख से अधिक सरकारी विद्यालय हैं। इनमें शिक्षकों की कुल संख्या 98 लाख है। एक लाख प्राथमिक विद्यालय ऐसे हैं, जहां एक शिक्षक ही सभी कुछ संभालता है। करीब आठ लाख से अधिक शिक्षकों के पद खाली हैं। सरकारी शिक्षकों की अपेक्षा निजी विद्यालयों के शिक्षकों को कम वेतन मिलता है, फिर भी वे बेहतर शिक्षा प्रदान करने का दम भरते हैं। ऐसा वे इसलिए कर पाते हैं, क्योंकि उन्हें सरकारी शिक्षकों की तरह बाहरी कोई कार्य नहीं करने होते हैं।
देश में निजी विद्यालयों का विस्तार तेजी से हुआ है, इसका प्रभाव सरकारी स्कूलों और समाज में दिख रहा है। यह सच है कि निजी स्कूलों की पढ़ाई सरकारी स्कूलों की अपेक्षा बहुत अधिक महंगी होती है, लेकिन सरकारी स्कूलों की स्थिति ऐसी है कि वहां गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की उम्मीद कम होती है। यह बहुत आश्चर्य की बात है कि सरकारी स्कूलों में प्राथमिक स्तर से लेकर आठवीं कक्षा तक के बच्चों को निशुल्क शिक्षा मिलती है। वर्दी, पुस्तकें और मध्याह्न भोजन के साथ छात्रवृत्ति की सुविधा भी है, फिर भी अभिभावक वहां बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते हैं।
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देश में सरकारी और निजी विद्यालयों के पाठ्यक्रम में अंतर भी एक बड़ी वजह है, जिस कारण निजी विद्यालयों में अभिभावक बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं। सरकारी विद्यालयों में दाखिला लेने वालों की संख्या हर वर्ष कम होती जा रही है। जबकि निजी विद्यालयों में प्रवेश के लिए कतारें लगी रहती हैं। आखिर सरकारी विद्यालयों में घटते दाखिले को लेकर सरकार गंभीरता क्यों नहीं दिखाती? निजी विद्यालय अंग्रेजी माध्यम के कारण अधिक लोकप्रिय हैं, जबकि सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा है। सरकारी विद्यालयों में प्राथमिक स्तर से द्विभाषी शिक्षा नीति को अपना कर उन्हें सशक्त बनाया जा सकता है। निजी विद्यालयों के शुल्क को लेकर राज्य सरकारों ने अपने स्तर पर कानून बनाए हैं। जिन राज्यों ने अपने कानून नहीं बनाए हैं ,वे भी उचित कदम उठा रहे हैं।
कानूनी प्रावधान होने के बावजूद निजी विद्यालयों में भारी-भरकम शुल्क होना इस बात का संकेत है कि शुल्क में बढ़ोतरी मनमाने ढंग से होती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि शुल्क को लेकर कठोर नियम बनाने की आवश्यकता है, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता बनी रहे और अभिभावकों पर आर्थिक बोझ भी न पड़े। राज्य सरकारों को एक स्वतंत्र शुल्क नियामक तंत्र का गठन करना चाहिए, जो विद्यालयों में शुल्क की समीक्षा के उपरांत ही वृद्धि की अनुमति प्रदान करे। विद्यालयों में शुल्क वृद्धि के कारणों के बारे में अभिभावकों को स्पष्ट रूप से बताने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। ‘योगदान’ और विकास शुल्क के नाम पर ली जानी वाली फीस की अधिकतम सीमा सरकार को निर्धारित करनी चाहिए। यदि समय रहते शुल्क वृद्धि को नियंत्रित नहीं किया जाता है, तो देश में शैक्षिक असमानता और बौद्धिक हीनता का भाव बढ़ेगा, जिसका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा।
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किसी राष्ट्र की बौद्धिक पूंजी का निर्माण गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से संभव है। सरकारी विद्यालयों में स्मार्ट क्लास, पुस्तकालय, विज्ञान प्रयोगशाला, कौशल और नवाचार के लिए सुविधाओं को बढ़ावा देना चाहिए। सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की कमी हमेशा बनी रहती है। इसे दूर करने की जरूरत है। नवोदय विद्यालय और केंद्रीय विद्यालयों की संख्या बढ़ाने के साथ सीटों की संख्या में भी वृद्धि की जानी चाहिए, ताकि अधिक से अधिक छात्र इनसे लाभान्वित हो सकें। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में सरकारी स्कूलों को राज्यस्तरीय नवोदय जैसे माडल में तब्दील करने पर ध्यान देना चाहिए। साथ ही प्रवेश प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने की भी जरूरत है।