दुनिया भर में अर्थव्यवस्था के लगातार होते विस्तार, लोगों की आधुनिक सेवाओं तक पहुंच, विद्युतीकरण की तीव्र होती गति तथा जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि के कारण ऊर्जा की मांग बढ़ रही है। इससे दुनिया भर में ऊर्जा के गैर-नवीकरणीय स्रोतों, यथा- तेल, प्राकृतिक गैसों, कोयला आदि पर दबाव अत्यधिक बढ़ गया है। आंकड़ों के अनुसार गैर-नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत हमारे कुल ईंधन खपत का लगभग 80 फीसद हिस्सा हैं, जबकि इनके भंडार सीमित हैं। प्राकृतिक रूप से इनके बनने में हजारों साल लगते हैं।
एक अनुमान के मुताबिक, अगर इसी प्रकार लगातार गैर-नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों का दोहन किया जाता रहा, तो यह भंडार अगले 40 वर्षों से अधिक नहीं चलने वाला। ऐसे में, अगर हमने अपने व्यवहारों को ऊर्जा संरक्षण के अनुकूल नहीं बनाया, तो भविष्य में ऊर्जा संकट गंभीर रूप ले सकता है। इसलिए जरूरी है कि आज जितनी भी ऊर्जा हमारे पास है, उसमें से ही बचत करने की शुरूआत करें। याद रखना चाहिए कि चाहे पैसा हो या ऊर्जा अथवा कोई अन्य संसाधन, उसकी बचत करना, उसके उत्पादन करने के बराबर ही होता है। हालांकि, कई बार लोग यह नहीं समझ पाते कि संसाधनों और विशेष रूप से ऊर्जा की बचत कैसे की जाए। इसलिए बेहतर होगा कि ऐसे लोगों को ‘बचत’ नहीं, बल्कि ‘खपत’ के बारे में समझाया जाए।
उदाहरण के लिए अगर गैस के चूल्हे पर पानी उबालना हो, तो इसके दो तरीके हो सकते हैं- बर्तन को ढक कर और बिना ढके। जाहिर है कि अगर हम पानी ढक कर उबालेंगे, तो समय और ईंधन अर्थात ऊर्जा दोनों की बचत होगी, जबकि बिना ढके पानी उबालने पर ईंधन का पूरा सदुपयोग नहीं हो पाएगा। इसी प्रकार, भारत को अगर वर्ष 2070 तक शून्य उत्सर्जन वाली अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य हासिल करना है, जो पर्यावरण और पारिस्थितिकी की सुरक्षा जरूरी है। पृथ्वी को विनाश से बचाने के लिए भी यह अत्यंत आवश्यक है, जिसकी चर्चा स्वयं प्रधानमंत्री कर चुके हैं।
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इस लिहाज से हमें अपनी ऊर्जा जरूरतों को कम करना ही होगा। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो घरों, कार्यालयों, सरकारी एवं निजी प्रतिष्ठानों, कल-कारखानों और वाहनों इत्यादि में ऊर्जा के संरक्षण को लेकर किए जाने वाले हमारे प्रयास ही यह तय करेंगे कि भारत शून्य उत्सर्जन लक्ष्य को समय पर और कम-से-कम संसाधनों के बल पर प्राप्त कर पाएगा अथवा नहीं। गौरतलब है कि भारत को अपना दीर्घकालिक लक्ष्य हासिल करने के लिए 2005 के स्तर से 2030 तक सकल घरेलू उत्पाद के प्रति करोड़ रुपए पर होने वाले उत्सर्जन को 45 फीसद तक घटाने की आवश्यकता पड़ेगी। वैसे, वर्ष 2016 तक हम इसे 24 फीसद तक घटा चुके हैं।
ब्यूरो आफ एनर्जी इफिशिएंसी (बीईई) के अनुसार वित्त वर्ष 2019-20 में ऊर्जा की होने वाली कुल बचत में ऊर्जा कुशल उपकरणों और उजाला कार्यक्रम का बड़ा योगदान था। हालांकि उपभोक्ताओं के बीच ऊर्जा-कुशल उपकरणों को लेकर आज भी जागरूकता का बेहद अभाव है। काउंसिल आन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (सीईईडब्लू) के इंडिया रेजिडेंशियल एनर्जी सर्वे (आइआरईएस) में सामने आया है कि केवल एक चौथाई भारतीय परिवार ही इलेक्ट्रिक उपकरणों पर लगे बीईई के स्टार-लेबल (बिजली बचत वाले चिह्न) को पहचान पाते हैं।
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वैसे ऊर्जा-कुशल उपकरणों के प्रचार-प्रसार में कई बड़ी बाधाएं हैं, यथा- इनके ऊंचे मूल्य, इनकी सीमित उपलब्धता आदि। उदाहरण के लिए राजग सरकार की पहल पर उजाला योजना के अंतर्गत वर्ष 2014 के बाद 37 करोड़ एलईडी बल्बों की बिक्री हुई, जबकि ऊर्जा-कुशल छत के पंखों की बिक्री 26 लाख से भी कम रही। जाहिर है कि अगर जागरूकता का अभाव नहीं होता, तो ऊर्जा-कुशल इन पंखों की बिक्री भी करोड़ों में होती। इसी प्रकार, जागरूकता के अभाव में देश के कुल 6.3 करोड़ एमएसएमई में से मात्र 20 फीसद ही अपने बिजली बिल और उपकरणों के स्तर पर ऊर्जा की खपत की निगरानी करते हैं।
किसी भी देश के लिए ऊर्जा संरक्षण का तात्पर्य यह है कि उसकी वर्तमान और भविष्य की ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति इस तरीके से हो कि उससे सभी नागरिक लाभान्वित तो हों, लेकिन पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़े। साथ ही, यह तरीका स्थायी होना चाहिए। इसके लिए हमारी ऊर्जा नीति में वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों यथा- सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, बड़े-छोटे पनबिजली संयंत्र, छोटे बांध, गोबर गैस संयंत्र इत्यादि को शामिल करना होगा। हम भाग्यशाली हैं कि हमारे देश में वर्ष भर में से लगभग तीन सौ दिनों तक तेज धूप खिली रहती है, जो सौर ऊर्जा के उपयोग के लिए सर्वश्रेष्ठ स्थिति है।
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वहीं, पवन ऊर्जा के लिए यहां की जलवायु तथा लंबा समुद्री किनारा नैसर्गिक संसाधन के रूप में उपलब्ध हैं। जाहिर है कि भारत में सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा का उत्पादन एवं उपयोग पूरे वर्ष किया जा सकता है। इसके अलावा हमारे पास भूमि की पर्याप्त उपलब्धता एवं परमाणु ऊर्जा के लिए थोरियम का अकूत भंडार भी है। इसलिए यदि समय रहते हमने उचित प्रौद्योगिकी के विकास, उपलब्ध संसाधनों के उपयोग आदि जैसे सुसंगत उपायों को अपना लिया, तो देश की ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति संभव है अन्यथा हमारी ऊर्जा की मांग और आपूर्ति में जो अंतर है, वह निरंतर बढ़ता जाएगा और दिनों-दिन देश में बिजली संकट की स्थिति बदतर होती जाएगी।
वैसे देश में सभी घरों तक चौबीस घंटे बिजली पहुंचाना आज भी सपना ही है। देश के ऊर्जा संयंत्रों में सौ फीसद बिजली उत्पादन न होने तक सपना ही बना रहेगा। बहरहाल, भारत में 31 मार्च 2023 तक कुल स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता 416,059 मेगावाट थी। इनमें जीवाश्म ईंधन से 237,269 मेगावाट (कुल उत्पादन का 57 फीसद) तथा गैर-जीवाश्म ईंधन से 178,790 मेगावाट (43 फीसद) है। गौर करें तो देश में कोयले से 205,235 मेगावाट (49.3 फीसद), लिप्राइट से 6620 मेगावाट, पनबिजली से 46.850 मेगावाट यानी 11.3 फीसद, प्राकृतिक गैस का योगदान 24,824 मेगावाट यानी महज 0.6 फीसद और परमाणु ऊर्जा से 6780 मेगावाट, सौर उर्जा से 66,780 मेगावाट यानी 16.1 फीसद, डीजल से 589 मेगावाट यानी 0.1 फीसद, हवा से 42,633 मेगावाट यानी 10.2 फीसद, जैव ऊर्जा से 10,248 मेगावाट, अपशिष्ट से 554 मेगावाट, लघु हाइड्रोपावर से 4944 मेगावाट बिजली पैदा होती है। ऐसे में, देश के सभी घरों तक चौबीस घंटे बिजली पहुंचाने के लिए वर्तमान क्षमता से कम-से-कम 30 फीसद अधिक बिजली की आवश्यकता होगी।
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जाहिर है कि अपनी सकल ऊर्जा आवश्यकता की पूर्ति के लिए हमें ऊर्जा स्रोतों के संरक्षण एवं सौर और पवन आदि वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों के उपयोगों को बढ़ावा देना ही होगा। ऊर्जा संरक्षण के मामले में हमें उपयोग में कमी, पुन: उपयोग और पुनर्चक्रण का अनुगमन करना चाहिए। उदाहरण के लिए नए कागज निर्माण की अपेक्षा पुनर्चक्रित कागज से दोबारा कागज बनाने में कम प्राकृतिक संसाधनों एवं कम विषाक्त रसायनों का उपयोग होता है। गौरतलब है कि एक टन पुनर्चक्रित कागज का निर्माण कर लगभग 15 वृक्षों, 2500 किलोवाट ऊर्जा एवं लगभग 20 हजार लीटर पानी बचाया जा सकता है। वहीं इससे वायु प्रदूषण भी कम होता है। इसी प्रकार, कृषि कार्यों में भी जल संरक्षण के माध्यम से ऊर्जा की बड़ी बचत की जा सकती है।