सृष्टि के प्रारंभ में परमात्मा ने इच्छा व्यक्त की- ‘एकोहं बहुस्याम्’। अर्थात मैं एक हूं, लेकिन कई हो जाऊं। बाद में परमात्मा की उस इच्छा का विस्तार ही ‘परिवार’ के आविर्भाव का सूत्र बना या कहा जाए कि परिवार की संरचना का प्रारंभ उस संकल्पना शक्ति के परिणाम स्वरूप ही हुआ था। यही कारण है कि हमारी संस्कृति में सदा से ही इस संपूर्ण सृष्टि को एक ही परिवार का विस्तार माना गया है। भले ही इस सृष्टि को चाहे किसी भी दृष्टि से देखा जाए। कोई इसे ईश्वरीय परिवार कहे या माया का विस्तार, कोई इसे आधारभूत वैज्ञानिक संरचना कहे अथवा कल्पना का अबूझ संसार, लेकिन इस वास्तविकता से किसी भी देश, जाति, धर्म, पंथ अथवा मजहब का व्यक्ति भला मुंह कैसे मोड़ सकता है कि यह संपूर्ण ब्रह्मांड वास्तव में एक परिवार है, जिसे हमारे ऋषि-मुनियों, साधु-संतों और मनीषियों ने ‘वसुधैव कुटुंबम्’ कह कर संबोधित किया था।

परिवार के भाव का जो विस्तार भारतभूमि पर हुआ, वह अन्यत्र कहीं भी नहीं हो सका। दुर्भाग्य से, जो परिवार या कुटुंब भारत में एक भाव के रूप में विकसित हुआ और संपूर्ण पृथ्वी को अपने में समाहित कर लेने के लिए प्रेरित व समर्थ हुआ, वही परिवार पश्चिमी सभ्यता में एक व्यक्तिगत सत्ता का प्रतीक बन कर रह गया। इसीलिए, पश्चिमी देशों में परिवार का मतलब पति-पत्नी और बच्चों भर से ही होता है, जबकि भारत में परिवार सत्ता का प्रतीक नहीं है। जाहिर है कि यहां परिवार का निर्माण महज कुछ लोगों के एक साथ रहने से ही नहीं होता। इसमें रिश्तों की एक मजबूत डोर होती है। सहयोग के अटूट बंधन होते हैं और एक-दूसरे की सुरक्षा के वादे होते हैं। इस रिश्ते की गरिमा को बनाए रखना भारतीय परिवार में प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य होता है।

दरअसल, हमारी संस्कृति में परिवार एक संसाधन की तरह है, जिसमें कई तत्त्व समाहित होते हैं। भारतीय पारिवारिक व्यवस्था की व्याख्या करते हुए 1963 में प्रकाशित निबंध संग्रह ‘इतस्तत:’ में जैनेंद्र कुमार ने लिखा है- ‘परिवार मर्यादाओं से बनता है। यहां परस्पर कर्तव्य होते हैं, अनुशासन होता है। उस नियत परंपरा में कुछ जनों की इकाई व्यूह में चलती है। उस इकाई का हर सदस्य अपना आत्मदान करता है और प्रतिष्ठा खानदान की होती है। हर एक उससे लाभ लेता है और अपना त्याग देता है।’ तात्पर्य यह कि भारत में परिवार का निर्माण एक-दूसरे के लिए स्वयं को खोने और एक-दूसरे के प्रति समर्पित रहने के विराट भाव से होता है। यही कारण है कि भारत में परिवार को भावनात्मक संबल, आर्थिक सुरक्षा, वैचारिक परिपक्वता, मानसिक शांति और उन्नति के लिए अनुकूल वातावरण के निर्माण का स्रोत माना जाता रहा है। भारतीय परिवार में माता से मातृत्व और पिता से पितृत्व का भाव जुड़ा हुआ है।

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दरअसल, यह भाव ही परिवार का केंद्र बिंदु और इसकी जीवन धारा होता है। इस भाव के कारण ही परिवार का हिस्सा बनने वाला व्यक्ति अपनी सत्ता खोकर एक नई पहचान पाता है। उदाहरण के लिए परिवार में शामिल होते ही स्त्री मां, बहन, बेटी, मामी, मौसी, चाची, फुआ, दादी और नानी बन जाती है। इसी प्रकार, पुरुष भी अपने परिवार में खोकर पिता, भाई, बेटा, मामा, मौसा, चाचा, फूफा, दादा, नाना आदि बन जाते हैं। परिवार व्यक्तियों को दायित्व बोध के साथ ऊंचाई देने और विस्तारित करने का कार्य करता है। भारत में परिवार के भीतर सदस्यों के लिए दायित्व बोध का बड़ा महत्त्व होता है। यहां पिता के अपने दायित्व हैं और माता के अपने। दोनों अपने दायित्वों का निर्वहन करते हुए एक-दूसरे का सहयोग करते हैं।

सच कहा जाए, तो परिवार के इसी विराट भाव का समस्त लोक और राष्ट्र में विस्तारित करने की प्रेरणा विदुर नीति, पंचतंत्र एवं हितोपदेश सहित कई ग्रंथों एवं श्लोक संग्रहों में शामिल यह नीतिश्लोक भी देता है- ‘त्यजेदेकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्, ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्।’ अर्थात (यदि जरूरी हो तो) कुल के लिए एक व्यक्ति का त्याग करना चाहिए, गांव के लिए एक कुल का, जनपद के हितार्थ गांव का त्याग करना चाहिए और आत्म कल्याण के लिए संपूर्ण पृथ्वी का राज्य भी त्याग देना चाहिए।

दुर्भाग्य से पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति और चलन के अंधानुकरण के इस दौर में दिनोंदिन परिवार नामक हमारी यह व्यवस्था छिन्न-भिन्न होती जा रही है। दरअसल, बाजार के बढ़ते प्रभुत्व के कारण दिखावा और औपचारिकता में ढलते शील, संस्कार, मूल्य, नैतिकता, प्रथाएं और त्योहार धीरे-धीरे मनुष्य की प्राथमिकता से खिसकते चले गए और ऐशो-आराम, दर्जा एवं दिखावा आदि ने उनकी जगह ले ली। भौतिकतावादी जीवन शैली और पैसों की बढ़ती लालसा ने मनुष्य को सामाजिक संबंधों के प्रति तटस्थ रहने पर मजबूर कर दिया, जिसके कारण ‘एकोहं बहुस्याम्’ का जीवन-सूत्र भूल कर मनुष्य दिनोंदिन सामाजिक या समूहवादी से व्यक्तिवादी अथवा व्यक्ति केंद्रित बनता चला गया।

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दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो उसने स्वयं ही अपने जीवन से ‘सकल’ के द्वारा ‘एकल’, समष्टि के द्वारा ‘व्यष्टि’ और ‘मैं’ के द्वारा ‘हम’ की भावना को विस्थापित कर दिया। टूटते परिवारों और दरकते रिश्तों के कारण मनुष्य के जीवन में भय और असुरक्षा की भावना को विस्तार मिला, क्योंकि पहले यह परिवार ही उसे इन विकृतियों से बचाने का कार्य करता था, लेकिन जब परिवार नहीं रहा, तब व्यक्तिवादी मनुष्य ने भय और असुरक्षा के विरुद्ध भी पैसों के बल पर लड़ना शुरू कर दिया। क्योंकि, उसकी मान्यता है कि पैसा हो, तो कोई भी लड़ाई जीती जा सकती है। इस प्रकार, सामाजिक संबंधों के प्रति तटस्थ मनुष्य की सारी शक्तियां और सारा मनोबल पैसा यानी पूंजी में निहित होता चला गया।

जाहिर है कि इस व्यक्तिवादिता ने मनुष्य को पूंजी तो दी, लेकिन उससे उसका भावनात्मक संबल, आर्थिक सुरक्षा, वैचारिक परिपक्वता, मानसिक शांति, उन्नति के लिए अनुकूल वातावरण सबकुछ छीन लिया। अनेक समाजशास्त्रियों ने मनुष्य के व्यक्तिवादी होने को आत्मघाती माना है। समाजशास्त्री एमिल दुर्खीम के अनुसार, सामाजिक संबंधों के प्रति तटस्थ होते जाने के कारण ही मनुष्य व्यक्तिवादी होकर अंतत: आत्महत्या जैसे नकारात्मक कदम उठाने के लिए भी मजबूर होता है।

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राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ताजा रपट के अनुसार, आत्महत्या के मामले में हमारा देश दुनिया में सबसे ऊपर पहुंच चुका है, जो एक गंभीर स्थिति है। प्रति वर्ष आत्महत्या की कई घटनाएं सामने आती हैं। सचमुच यह बेहद चिंताजनक है, विशेषकर तब, जबकि हमें मालूम है कि भारत में आत्महत्या के मामलों की वास्तविक संख्या दर्ज संख्या से कहीं अधिक हो सकती है, क्योंकि आज भी हमारे देश में आत्महत्या के सारे मामले दर्ज होते ही नहीं हैं। दरअसल, अक्षम एवं अपर्याप्त पंजीकरण प्रणाली, मृत्यु के चिकित्सा प्रमाणन की लचर व्यवस्था और पुलिस-प्रशासन के भय तथा आत्महत्या को कलंकित कृत्य मानने वाली सामाजिक प्रथा के कारण कई बार आत्महत्या के मामलों को लोग उसे सामान्य मृत्यु बता देते हैं अथवा मौत का कोई अन्य कारण बता कर मामले को रफा-दफा कर देते हैं।