Bihar Elections: मैं बिहार हूं, हिंदू-मुस्लिम, दलित-सवर्ण, हर प्रकार की राजनीति में पारंगत हूं, मेरी इस भूमि में जन्में तो इंसान ही हैं, लेकिन नेताओं ने उन्हें जातियों, धर्मों में बांट दिया है। लेकिन एक नाम मैं कभी भूल नहीं पाता हूं, 1990 में पहली बार मैंने उन्हें सीएम बनते देखा था, अलग आग थी, सिस्टम बदलने की, प्रशासन बदलने की, सरकार अपनी तरह चलाने की। लालू यादव नाम था और पिछड़ों की राजनीति करते थे। लेकिन सिर्फ एक दिन में मैंने उन्हें मुसलमानों का मसीहा बनता देखा था। बहुत पुरानी बात है, मैं बिहार हूं, आज उस एक रात की कहानी बताता हूं-
सितंबर 1990 की बात है, वीपी सिंह ने मंडल कमिशन लागू कर देश की सियासत हमेशा के लिए बदल दी थी। ओबीसी समाज को आरक्षण देकर उन्होंने पिछड़ों की एक ऐसी राजनीति शुरू की जिस पर सियायी रोटियां 35 सालों बाद भी सेकी जा रही है। लेकिन उस जमाने की बात अलग थी, तब तो वो एक नया एक्सपेरिमेंट था। वीपी सिंह इसे मास्टरस्ट्रोक के रूप में देख रहे थे। पिछड़ों के चैंपियन बन चुके लालू यादव भी अति उत्साहित, बिहार में मंडल कमीशन का दिल खोलकर उन्होंने स्वागत किया था, जानते थे कि पिछड़ों का एकमुश्त वोट ही सत्ता पर काबिज रखने वाला है।
लेकिन उस जमाने में सिर्फ पिछड़ों के वोट से सत्ता तक पहुंचना मुश्किल था, किसी का तो साथ और चाहिए। सवर्ण वो हो नहीं सकते थे, लालू ने तो उनके खिलाफ ही राजनीति कर सीएम की कुर्सी तक हासिल की थी। ऐसे में बचे थे बिहार के मुसलमान। अगर उनका वोट और मिल जाता तो 40 फीसदी वोट कहीं नहीं जाने वाला था। लेकिन सवाल तो यह था- आखिर ऐसा होता कैसे, मुस्लिम तो कांग्रेस के साथ, उनको शिफ्ट कैसे किया जाता। लेकिन राजनीति है, खेल तो होता रहता है, यहां भी हुआ, किया किसी और ने और सियासी फल लेकर भाग गए लालू यादव।
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जिस समय वीपी सिंह ने मंडल की राजनीति शुरू की थी, बीजेपी भी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थी, दिमाग लगाया और शुरू कर दी कमंडल की राजनीति। यानी कि 1990 में लड़ाई मंडल बनाम कमंडल की हो चुकी थी। गुजरात के सोमनाथ से लाल कृष्ण अडवाणी ने वो यात्रा निकाली थी, उन्हें अयोध्या तक जाना था- सपना एक था- राम जन्मभूमि पर भगवान राम का भव्य मंदिर बनवाना था। अब वीपी सिंह इस रथ यात्रा से बहुत असहज थे, ज्यादा कुछ कर भी नहीं पा रहे थे क्योंकि दिल्ली में उनकी सरकार तो बीजेपी भरोसे चल रही थी। अब दिन बीतते गए और अडवाणी का रथ यूपी के पास आता गया, अयोध्या ज्यादा दूर नहीं थी।
अब वीपी सिंह के पास दो ऑप्शन थे- या तो उत्तर प्रदेश के तब के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को बोलकर अडवानी को गिरफ्तार करवा लेते या फिर अगर वे चाहते तो बिहार के सीएम लालू यादव को ऐसा करने के लिए बोल सकते थे। वीपी सिंह ने दूसरा विकल्प चुना- कारण एकदम सियासी था- अगर मुलायाम उस रथ यात्रा को रोक देते तो यूपी के मुसलमान तो पूरी तरह मुलायम के साथ हो जाते, सेकुलर के नए राजा के रूप में उनकी ताजपोशी हो जाती। अब वीपी खुद भी यूपी के ही थे, ऐसे में सेकुलर वाला तमगा वे अपने होते किसी और के सिर सजते नहीं देखना चाहते थे। ऐसे में लालू को संकेत दिया गया- बिहार में ही अडवाणी की यात्रा को रोका जाए।
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लालू तो पहले से ही दिल्ली से ग्रीन सिग्नल का इंतजार कर रहे थे, अब क्योंकि वो मिल गया, लालू ने भी बिहार में प्रशासन को अलर्ट कर दिया। आपदा प्रबंंधन दल पूरी तरह तैयार था, किसी भी तरह की अगर हिंसा भड़कती तो तुरंत एक्शन लिया जाता। लालू ने तो सपने देख लिए थे कि अडवाणी को पकड़ने का काम वे करेंगे। कई दिनों से वे कुछ लाइन बोलने की प्रैक्टिस कर रहे थे-
अगर कोई इस देश में हिम्मत किया है इस तोड़ फोड़ वाले रथ को रोकने के लिए तो वो है लालू यादव, लालू यादव जान पर खेल जाएगा लेकिन फिर से इस देश का बंटवारा हिंदू-मुसलमान में नहीं होने देगा।
अब 22 अक्टूबर 1990 की रात को लालू यादव ने दो लोगों को अडवाणी को गिरफ्तार करने की जिम्मेदारी सौंपी- एक रहे राज कुमार सिंह जो उस समय बिहरा सरकार में सेकरेट्री लेवल के अधिकारी थे, वहीं दूसरे थे रामेश्वर ऐरॉन, जो तब डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल थे। दोनों ही अधिकारियों को तुरंत समस्तिपुर रवाना किया गया- आदेश साफ था- बिना ज्यादा बवाल के अडवाणी की गिरफ्तारी हो और सीधे मुझे रिपोर्ट किया जाए।
अब उस रात को अधिकारियों ने खूब पसीना बहाया और आखिरकार लालू यादव का सपना पूरा हो गया। 23 अक्टूबर की सुबह ऐरॉन का फोन लालू के पास आया- सामने से बोला गया- सर हमने अडवाणी को गिरफ्तार कर लिया है। लालू सातवें आसमान पर थे, उन्होंने पहले तो अपने दोनों अधिकारियों की जमकर तारीफ की, उसके बाद उन्होंने अडवाणी और उनकी पार्टी पटना की तरफ लाने के लिए बोल दिया।
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लालू जानते थे उन्होंने वो कर दिखाया जो शायद कोई दूसरे राज्य का सीएम नहीं कर पाता। उन्होंने ना सिर्फ रथ यात्रा रोक दी थी, बल्कि अडवाणी की गिरफ्तारी तक हो गई। लालू एक ही रात में मुसलमानों के मसीहा बन चुके थे, उन्हें तो लालू में अपना रक्षक दिखने लगा था। लालू खुद इस मौके को भुनाना चाहते थे, तुरंत ही सदभावना रथ पर सवार हो गए और पटना के आसपास घूमते रहे। लालू का लोगों के सामने एक ही संदेश था-
किसी की भी इतनी हिम्मत नहीं होनी चाहिए कि वे बिहार में सांप्रदायिक तनाव पैदा करें, याद रखें ऐसे लोगों से सख्ती से निपटा जाएगा। मेरे में इतना जिगरा था, इसलिए अडवाणी को गिरफ्तार किया, सजा देने के मामले में किसी को माफी नहीं मिलेगी।
लालू का मुसलमानों के लिए भी अलग संदेश था, उन्हें हमेशा के लिए अपना बनाने के लिए उनके पास दिल जीतने वाली लाइनें तैयार थीं। पिछड़ों को भी उन्होंने साध रखा था। अपने ही अतरंगी अंदाज में उन्होंने कहा था- ये सरकार, ये सत्ता, ये राज्य, ये सब आप ही का है। अब तक तो आपको आपका हिस्सा मिल नहीं रहा था, जो अब तक सत्ता में थे, उन्हें आपकी परवाह नहीं थी। उन्होंने आपको को बेबस अकेला छोड़ दिया था। लेकिन अब तो आपका आदमी सत्ता में है। मैं हूं यहां का मुख्यमंत्री, मैं आपको वो सब दूंगा जो आजतक किसी ने नहीं दिया। सत्ता की ताकत दूंगा, राजा की तरह रहने की आजादी दूंगा, आपको डरने की जरूरत नहीं है, सिर ऊंचा कर चलना शुरू कर दीजिए।
अब एक वो दिन था और एक आज का दिन है, आरजेडी सत्ता में रहे या ना रहे, लेकिन मुसलमान वोटरों का एक बड़ा हिस्सा उनकी पार्टी के साथ जाता है। कांग्रेस का सारा वोटबैंक यहां शिफ्ट हुआ है। लालू की यही ताकत थी, उनकी यही खासियत थी, वे सियासी हवा समझ लेते थे, उन्हें पता होता था कहां क्या बोलने से फायदा होने वाला है।
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(REFERENCE: THE BROTHERS BIHARI, BY- SANKARSHAN THAKUR)