Iran Israel Conflict: ईरान और इजरायल एक बार फिर आमने-सामने हैं और जंग के मैदान से पीछे हटने के लिए तैयार नहीं हैं। ऐसे वक्त में यह सवाल भारत सहित दुनिया भर के आम लोगों के मन में है कि ईरान को क्या किसी इस्लामिक मुल्क का साथ मिलेगा? क्या मुस्लिम देश ईरान की मदद के लिए आगे आएंगे? ईरान में 1979 में हुई इस्लामिक क्रांति में क्या हुआ था? आइए इसे विस्तार से समझते हैं।

ईरान में शिया इस्लाम को मानने वाले मुस्लिम अधिक हैं। ईरान में 1979 में इस्लामिक क्रांति हुई थी और इसके बाद से वह इस्लामिक दुनिया के देशों से अलग-थलग पड़ गया। इस क्रांति के बाद ईरान के शासक शाह मोहम्मद राजा पहलवी को देश छोड़कर भागना पड़ा था और ईरान में ढाई हजार साल से चली आ रही राजशाही खत्म हो गई थी लेकिन इस क्रांति के बाद अरब के देशों के साथ ईरान के रिश्ते खराब हो गए।

इसके बाद ईरान का इराक के साथ युद्ध हुआ और सऊदी अरब, यूएई, बहरीन और कतर के साथ भी उसके छोटे-मोटे संघर्ष होते रहे। ईरान की इस्लामिक क्रांति का असर इस मुल्क के राजनीतिक, सामाजिक क्षेत्र पर भी हुआ। शाह मोहम्मद राजा पहलवी के शासन के खत्म होने के बाद अयातुल्ला रूहोल्लाह खुमैनी के नेतृत्व में ईरान की कूटनीति में भी बदलाव आया।

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University of Central Florida में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफ़ेसर होउमन सादरी ने Trends in the Foreign Policy of Revolutionary Iran (1998) आर्टिकल में कहा था कि इस्लामिक क्रांति के दौरान खोमैनी और उनके समर्थकों ने शाह पहलवी को कमजोर नेता बताया।

इस्लामिक क्रांति के बाद खोमैनी की अगुवाई में ईरान में इस्लामवादी आंदोलन चला और इस मुल्क में दुनिया की एकमात्र मौलवियों से चलने वाली सरकार बनी। जुआन कोल यूएस इंस्टीट्यूट फॉर पीस के लिए लिखते हैं, “धर्म और राजनीति (ईरान में) एक-दूसरे से अलग नहीं हैं। शिया इस्लाम न केवल राज्य का धर्म है बल्कि कानून, शासन और विदेश नीति की रीढ़ भी है।”

जबकि खोमैनी ने लिखा था कि इस्लामिक समुदाय मोहम्मद साहब के वक्त से ही एकजुट रहा है लेकिन बाद में यह इस्लाम विरोधी व्यवहार और औपनिवेशिक ताकतों के असर के कारण बिखर गया। उन्होंने कहा था कि क्रांति की वजह से बिखरे हुए इलाके इकट्ठे होंगे।

खोमैनी ने 1989 में सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव को पत्र लिखा था और इसमें कहा था कि पूर्व और पश्चिम दोनों ही वैचारिक रूप से दिवालिया हैं क्योंकि वहां इस्लामिक मूल्य नहीं हैं। अमेरिकी लेखिका सैंड्रा मैके The Iranians (1998) में लिखती हैं, “उनके (खोमैनी) विचार में ईरान की विदेश नीति क्रांति के निर्यात पर केंद्रित है, चाहे वह तोड़फोड़ और आतंकवाद के जरिये ही क्यों ना हो।”

International Institute of Strategic Studies के फेलो इफ़त एस मलिक के मुताबिक, “क्रांति का यह निर्यात लेबनान में सफल रहा क्योंकि वह इजरायल के हमलों के खिलाफ था लेकिन बाकी देशों में खोमैनी को ज्यादा कामयाबी नहीं मिली।” मलिक ने लिखा, “ईरान की कठोर बयानबाजी ने मिडिल-ईस्ट के कई पड़ोसी देशों को नाराज कर दिया, विशेषकर सुन्नी बहुल देशों को, जो अपने यहां भी इसी तरह के विद्रोह होने से डरते थे।”

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1989 में खोमैनी की मौत हो गई और उनकी जगह अयातुल्लाह अली खामेनेई आए और उन्होंने कहा कि हम लोगों को विद्रोह करने और क्रांति करने के लिए मजबूर नहीं करेंगे। इसके बाद ईरान और इराक के बीच भी संघर्ष चला क्योंकि इराक में भी शिया समुदाय की आबादी ज्यादा है लेकिन तब वहां का शासन सद्दाम हुसैन के हाथों में था, जो सुन्नी समुदाय से आते थे।

ईरान और इराक के बीच लगातार संघर्ष होता रहा और यह 1980 में काफी बढ़ गया। भयंकर खून खराबे और तबाही के बाद 1988 में दोनों देश सीजफायर पर सहमत हुए।

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जिस तरह मिडिल-ईस्ट या इस्लामिक दुनिया में ईरान को शिया समुदाय का नेता माना जाता है, उसी तरह सऊदी अरब को सुन्नी इस्लाम की अगवाई करने वाला माना जाता है। ईरान में इस्लामिक क्रांति से पहले सऊदी अरब और ईरान के बीच ठीक-ठाक संबंध थे।

Center for Middle East Studies के निदेशक नादेर हाशमी ने 2019 में फेयरऑब्जर्वर पत्रिका को दिए इंटरव्यू में कहा था, “1979 के बाद सउदी अरब और उसके सहयोगियों ने सांप्रदायिकता का कार्ड खेला और ईरानी क्रांति की ताकत और अपील को कम करने की कोशिश की।” ईरान के शिया मुल्क बनने के बाद सऊदी अरब में ताकतवर और शासन चला रहे सुन्नी समुदाय के धनी वर्ग में ईरान को लेकर डर पैदा हो गया। बताना होगा कि सऊदी अरब में 1980 से 1988 के दौरान ईरान-इराक के युद्ध में भी सऊदी अरब ने इराक का समर्थन किया था।

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1981 में सऊदी अरब सहित खाड़ी के 6 देशों ने ईरान का मुकाबला करने के लिए Gulf Cooperation Council का गठन किया और अगले एक दशक तक तेहरान और रियाद के बीच मक्का पर कब्जे के लिए बार-बार लड़ाइयां हुई। इजरायल मिडिल-ईस्ट में ईरान के खिलाफ सऊदी अरब के साथ संबंध मजबूत करना चाहता है जबकि ईरान और इजरायल की दुश्मनी जगजाहिर है। 1987 में हज यात्रा के दौरान ईरानियों के एक समूह ने सऊदी अरब के सुरक्षा बलों पर हमला किया तो सऊदी अरब ने ईरान के साथ सभी संबंध तोड़ दिए।

अरब स्प्रिंग के बाद 2016 में सऊदी अरब ने संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत और बहरीन के साथ मिलकर ईरान के सभी राजनयिकों को बाहर कर दिया।

1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद ईरान ने खुद को मजबूत करने के लिए एक बड़ा कदम उठाया। उसने छह देशों में सक्रिय कई सैन्य संगठनों (Proxy Paramilitary Organisations) का नेटवर्क बनाया है। कहा जाता है कि ईरान की रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स और कुद्स फोर्स ने शिया समुदाय के समूहों को हथियार और वित्तीय सहायता दी है। इनमें हिजबुल्लाह, असाइब अहल अल हक, हराकत हिज़बुल्लाह अल नुजाबा, अंसार अल्लाह (जिसे आमतौर पर हूथी कहा जाता है) का नाम शामिल है। हिजबुल्लाह ने इसकी तस्दीक भी की थी।

हिजबुल्लाह के महासचिव हसन नसरल्लाह ने 2016 की एक रैली में कहा था, “हिजबुल्लाह का बजट, उसका खाना-पीना, उसके हथियार और रॉकेट सब कुछ ईरान से आता है।” ईरान फिलिस्तीनी संगठनों जैसे हमास और इस्लामी जिहाद को भी लाखों डॉलर की मदद देता है।

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ईरान और सऊदी अरब के बीच यह छद्म संघर्ष लंबे वक्त से चलता आ रहा है और इसका मिडिल-ईस्ट में असर भी दिखाई देता है। हालांकि मार्च 2023 में, दोनों देशों ने राजनयिक संबंधों को फिर से शुरू करने की घोषणा की थी। जिस तरह का संघर्ष ईरान का इराक के साथ बीते वक्त में हुआ है, सऊदी अरब के साथ रिश्ते बेहतर नहीं हैं, उसमें यह सवाल अहम है कि इजरायल के साथ लड़ाई बढ़ने पर क्या मिडिल-ईस्ट के या दुनिया के बाकी इस्लामिक मुल्क उसके साथ आएंगे?

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