साल था 1990, बिहार में बदलाव की बयार चली और महज 42 वर्ष के लालू प्रसाद यादव के सिर पर मुख्यमंत्री का सेहरा सज गया। पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू यादव गृह जनपद गोपालगंज स्थित अपने गांव फुलवरिया पहुंचे। इस बात की जानकारी उनकी मां को हुई कि लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बनकर आ रहे हैं, उन्होंने अपनी मां मरछिया देवी के पैर छूए तो उनकी मां ने काफी नाराजगी जाहिर की। उनकी मां ने कहा कि मतलब अब तो तुमको सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी। मां की बात सुनने के बाद लालू ने जोर का ठहाका लगाया।
इंडियन एक्सप्रेस के वरिष्ठ सहायक संपादक संतोष सिंह ने अपनी किताब लालू-नीतीश का बिहार ‘कितने राज-कितना काज’ में लिखा है कि जब लालू अपने गांव मां के पास पहुंचे तो उनकी मां से भोजपुरी में कहा कि वे मुख्यमंत्री बन गए हैं। लालू की मां को उस समय तक ये नहीं पता था कि मुख्यमंत्री का मतलब होता है। मुख्यमंत्री क्या होता है, इस बारे में पूरी जानकारी मिलने के बाद निराश लालू की मां ने अपने बेटे से कहा, ‘तो तुम्हें सरकारी नौकरी नहीं मिल पाएगी?’
लालू ने मां की समझ के हिसाब मुख्यमंत्री के पद की तुलना करते हुए समझाया, ‘इ जे हथुआ महराज बाड़न उनको से बड़का आदमी बन गईल बानी’ (हथुआ महाराज से भी बड़ा पद है।) फिर भी उनकी मां को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने कहा ‘अच्छा ठीक बा जाय दअ, लेकिन तहरा के सरकारी नोकरी ना नु मिलल।’ (ठीक है, लेकिन तुमको सरकारी नौकरी तो नहीं मिली।)
लालू के राजनीति यात्रा की शुरुआत साल 1974 में हुई, जब लालू पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष बने और कांग्रेस के विरोध को लेकर सुर्खियों में छा गए। इसी समय इंदिरा गांधी के खिलाफ जेपी आंदोलन शुरू हुआ था। पूरे बिहार और भारत के अन्य हिस्सों में कांग्रेस विरोधी लहर चल पड़ी थी। उस समय बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग के छात्र नेता रहे नीतीश कुमार भी आंदोलन में कूद पड़े।
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जेपी आंदोलन से लालू का भाग्य उदय हुआ और आपातकाल के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में छपरा से चुनाव जीतकर वो संसद पहुंच गए। हालांकि नीतीश को पहली जीत 1985 के बिहार विधानसभा में मिली। उस समय लालू और नीतीश दोनों ही पूर्व सीएम कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व वाले लोकदल का हिस्सा थे और यहीं से उनकी दोस्ती शुरू हुई। फरवरी 1988 में कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु हो गई। उस समय लालू, नीतीश, रघुवंश प्रसाद सिंह, शिवानंद तिवारी और जगदानंद सिंह जैसे नेता दूसरे दर्जे के महत्वपूर्ण नेता थे।
तेजतर्रार और देहाती अंदाज वाले लालू ने अपनी राजनैतिक रणनीति को के तहत उन्होंने अपने को कर्पूरी ठाकुर के राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर दावा पेश कर दिया। आखिरकार शिवानंद तिवारी और नीतीश कुमार ने नेता विपक्ष के लिए लालू का समर्थन किया और वो कुछ समय बाद इस पद को पाने में कामयाब रहे। साल 2015 में नीतीश ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में कहा था, ‘हमने लालू का समर्थन किया क्योंकि वह हमारी पीढ़ी के नेता थे। उनका समर्थन करके हम अपनी पीढ़ी को सत्ता दिलाना चाहते थे। ‘लालू विपक्ष के नेता और लोकदल के नेता बन गए। जब वी.पी. सिंह ने अपने जनमोर्चा को लोकदल और अन्य समाजवादी दलों के साथ मिलाकर जनता दल बनाया, तो लालू को नुकसान उठाना पड़ा क्योंकि वी.पी. सिंह को उनका समर्थन नहीं मिला।
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1990 के बिहार विधानसभा चुनावों में जनता दल ने सीएम का चेहरा पेश नहीं किया, जबकि उसके पास पूर्व सीएम राम सुंदर दास जैसे वरिष्ठ नेता थे। इस समय तक जनता दल तीन खेमों में बंट चुका था, एक खेमा पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह के नेतृत्व में, दूसरा उप प्रधानमंत्री देवी लाल के नेतृत्व में और तीसरा वीपी सिंह के प्रतिद्वंद्वी चंद्रशेखर के नेतृत्व में।
चुनाव में जनता दल को जीता मिली और सीएम की कुर्सी को लेकर दांव-पेंच शुरू हो गया। वीपी सिंह चाहते थे कि दास मुख्यमंत्री बनें, लेकिन देवीलाल ने लालू का समर्थन किया। यही वह समय था जब लालू ने चंद्रशेखर से मदद मांगी। चंद्रशेखर उत्तर बिहार के एक प्रभावशाली नेता रघुनाथ झा का समर्थन कर रहे थे। झा मुख्यमंत्री की रेस में चल जरूर रहे थे, लेकिन उन्हें ये भी पता था कि वे कभी नहीं जीतेंगे। राम सुंदर दास को जीतने से रोकने के लिए चंद्रशेखर ने लालू का समर्थन किया और अंत में लालू जीत गए। पार्टी के आंतरिक चुनाव में लालू को 59 वोट मिले, दास को 56 जबकि झा को 14 मिले। यानी की झा को मिले वोटों ने ही लालू की जीत सुनिश्चित कर दी।