हिमनदों का तेजी से पिघलना आज सबसे गंभीर पर्यावरणीय संकट बन चुका है। यह केवल क्षेत्र विशेष तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका प्रभाव विश्व के प्रत्येक कोने में देखा जा सकता है। हाल ही में एक विज्ञान शोध पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में कहा गया है विश्व भर में दो लाख से अधिक हिमनदोंं की स्थिति का आकलन करने पर पता चला है कि अब ये पहले की तुलना में कहीं अधिक तेजी से पिघल रहे हैं। इस अध्ययन में अनेक देशों के वैज्ञानिकों ने मिलकर आठ विभिन्न जलवायु प्रतिरूपों का सहारा लिया और भविष्य की स्थिति का अनुमान लगाया। इसी दौरान ताजिकिस्तान में संयुक्त राष्ट्र ने पहली बार इस मुद्दे पर वैश्विक सम्मेलन का आयोजन किया। इससे पता चलता है कि स्थिति कितनी गंभीर होती जा रही है।

मानव सभ्यता ने जब से औद्योगीकरण की ओर कदम बढ़ाया है, तब से प्रकृति का संतुलन निरंतर प्रभावित होता चला गया है। कारखानों की स्थापना, ईंधन के अत्यधिक उपयोग और बेतहाशा वृक्षों की कटाई ने धरती के तापमान को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है। आज धरती का औसत तापमान औद्योगिक युग की शुरुआत की तुलना में लगभग डेढ़ डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। देखने में यह वृद्धि बहुत छोटी प्रतीत हो सकती है, लेकिन इसका प्रभाव व्यापक और दीर्घकालिक है।

वैज्ञानिकों का मत है कि यदि यह तापमान दो डिग्री के भीतर नियंत्रित नहीं किया गया, तो इस सदी के अंत तक तीन चौथाई हिमनद पूरी तरह विलुप्त हो सकते हैं। और यदि तापमान को डेढ़ डिग्री तक सीमित रखने में भी सफलता मिलती है, तब भी लगभग आधे हिमनद समाप्त हो जाएंगे।

इन हिमनदों का पिघलना केवल हिम की मात्रा में कमी का मामला नहीं है। यह जलवायु तंत्र की जटिलता, पारिस्थितिकी संतुलन, जल स्रोतों की स्थिति, कृषि उत्पादन, विद्युत आपूर्ति और मानवीय जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं से जुड़ा हुआ संकट है। जैसे-जैसे हिमनद पिघलता है, उसका जल पहाड़ और नदियों से होकर समुद्र में पहुंचता है। इससे समुद्र का जलस्तर धीरे-धीरे बढ़ता है। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की समिति के अनुसार, वर्तमान में समुद्र का जलस्तर हर वर्ष लगभग चार मिलीमीटर तक बढ़ रहा है, जो दीर्घकाल में विनाशकारी सिद्ध हो सकता है। यह बढ़ता जलस्तर तटीय शहरों, द्वीप राष्ट्रों और समुद्र किनारे बसे लाखों लोगों के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है।

दक्षिण एशिया और विशेषकर भारत, बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमा व मालदीव जैसे देशों पर इसका सीधा प्रभाव देखा जा सकता है। बांग्लादेश में प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में लोग अपना घर छोड़ने पर मजबूर हो रहे हैं, क्योंकि समुद्र उनकी बस्तियों को निगलता जा रहा है। मालदीव जैसे देशों का भविष्य अनिश्चितता में पड़ गया है। क्योंकि वे समुद्र तल से कुछ ही मीटर ऊपर स्थित हैं। भारत के बड़े तटीय नगर जैसे कोलकाता, चेन्नई, मुंबई और नवी मुंबई में वर्ष दर वर्ष समुद्री जल का अतिक्रमण बढ़ रहा है। वहां के लोगों को अब प्रत्येक वर्ष बाढ़, जल भराव और भवनों के कमजोर होने जैसे संकटों का सामना करना पड़ता है।

संकट का एक बड़ा भाग हिमालय क्षेत्र से जुड़ा है, जिसे पृथ्वी का तीसरा ध्रुव कहा जाता है। गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र और सिंधु जैसी नदियों का उद्गम इन्हीं हिमालयी हिमनदों से होता है। दक्षिण एशिया के लगभग दो अरब लोग इन नदियों के जल पर अपनी जीविका, कृषि, पेयजल और विद्युत उत्पादन के लिए निर्भर हैं। यदि हिमनदों का पिघलना इसी प्रकार जारी रहा, तो नदियों का प्रवाह प्रभावित होगा, जिससे खाद्य उत्पादन कम होगा, बिजली की आपूर्ति बाधित होगी और लोगों को पीने के पानी के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। हिमनद के पिघलने से नदियों में जल का प्रवाह असमान हो जाता है। गर्मियों में अधिक पानी आता है, जबकि सर्दियों और सूखे के मौसम में जल की मात्रा कम हो जाती है।

यह असमानता बाढ़ और सूखे दोनों की संभावना को बढ़ा देती है। कई बार हिमनदोंं के नीचे झीलें बन जाती हैं और जब ये अचानक फटती हैं, तो जलप्रलय की स्थिति पैदा होती है। उत्तराखंड में कुछ वर्ष पूर्व ऐसी ही घटना में सैकड़ों लोग मारे गए थे और करोड़ों की संपत्ति नष्ट हो गई थी। नेपाल में भी इसी प्रकार की आपदाएं सामने आती रही हैं। इस संकट के मूल में यदि कोई कारण है, तो वह है मनुष्यों की लापरवाही और भौतिकवादी प्रवृत्ति।

जीवाश्म ईंधन जैसे कोयला, पेट्रोल और प्राकृतिक गैस का अत्यधिक उपयोग, जंगलों की कटाई, तेज गति से बढ़ता औद्योगीकरण व शहरीकरण, प्रकृति के प्रति असंवेदनशील विकास नीति और उपभोगवादी जीवनशैली ने वातावरण में कार्बन डाइआक्साइड और अन्य हानिकारक गैसों की मात्रा को बहुत अधिक बढ़ा दिया है। हिमालय की भूमिका विशेष इसलिए भी है, क्योंकि यहां से निकलने वाली नदियां केवल भारत ही नहीं, बल्कि नेपाल, भूटान, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों के लिए भी जीवनदायिनी हैं। जब इन नदियों का प्रवाह बाधित होगा, तो सीमा पार संबंधों में भी तनाव बढ़ेगा। जल संकट पर संघर्ष की संभावना बढ़ेगी।

नदियों पर बनाए गए बांध और जलाशयों की उपयोगिता पर भी सवाल उठेंगे। विकसित देशों को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। क्योंकि उन्होंने ही सबसे अधिक प्रदूषण फैलाया है। उन्हें विकासशील देशों की सहायता करनी होगी, जिससे वे स्वच्छ ऊर्जा की ओर कदम बढ़ा सकें। वैज्ञानिक शोध, सतत निगरानी और तकनीकी विकास इस दिशा में अहम भूमिका निभा सकते हैं।

हिमनद केवल बर्फ के पहाड़ नहीं हैं। वे जीवन के स्रोत हैं। वे नदियों का उद्गम और पृथ्वी का संतुलन हैं। वे कृषि, जल, ऊर्जा और जैव विविधता का मूल आधार हैं। यदि हम उन्हें बचा पाए तो अपनी पीढ़ियों को एक सुरक्षित भविष्य दे पाएंगे। यदि नहीं तो विनाश की आहट केवल भविष्य में नहीं, बल्कि वर्तमान में ही सुनाई देने लगेगी। यदि हम आज भी जाग जाएं और सशक्त निर्णय लें, तो बहुत कुछ बचाया जा सकता है।

यदि हम उदासीन रहे, तो हिमनदों का लुप्त होना केवल प्राकृतिक घटना नहीं, बल्कि ऐतिहासिक भूल बन जाएगा और फिर एक दिन ऐसा भी आएगा जब हम कहेंगे कि हमने कभी हिमालय की गोद में जमी शांति को देखा था और आज वहां केवल सूखा पत्थर और बहता पानी रह गया है। इसलिए अब समय आ गया है कि सरकार, समाज, विज्ञान और जनमानस मिल कर इस चुनौती का सामना करें।