Kargil War 1999: अटल बिहारी वाजपेयी को लगता था कि पड़ोसी को कभी बदला नहीं जा सकता, ऐसे में अगर रिश्ते सुधर जाएं तो इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। उनकी इसी सोच ने पाकिस्तान के साथ शांति स्थापित करने की सबसे बड़ी मुहिम शुरू करवाई थी। बात 11 सितंबर 1998 की है जब अमेरिका के न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक हुई थी। उस बैठक में भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, पाकिस्तान के वजीरे आजम नवाज शरीफ शामिल हुए थे। एक ही टेबल पर बैठ दोनों नेताओं ने डिनर भी किया।

उस मुलाकात के बारे में पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने अपनी किताब इंडिया एट रिस्क में काफी विस्तार से बताया है। वे कहते हैं कि जिस समय अटल और नवाज डिनर कर रहे थे, उनके कान में विदेश मंत्रालय में पाकिस्तान मामलों के अधिकारी विवेक काटजू ने कहा था कि अमृतसर से लाहौर बस सेवा शुरू करने वाले प्रपोजल को इस समय रखा जा सकता है। बाद में वो सुझाव दोनों ही नेताओं के सामने रखा भी गया और रिश्तों में तब ऐसी मधुरता रही कि उस पर मुहर भी लग गई। अब एक तरफ रिश्तों को बहाल करने की सबसे बड़ी कवायद हो रही थी, लगने लगा था कि इतिहास रचा जाएगा, लेकिन दूसरी ही तरफ उसी इतिहास की सबसे बड़ी गद्दारी, धोखेबाजी और दगाबाजी की स्क्रिप्ट भी तैयार हो रही थी।

जो युद्ध कभी भारत का था ही नहीं

अक्तूबर 1998 में परवेज मुशर्रफ ने कारगिल में घुसपैठ का पूरा प्लान तैयार कर लिया था, उन्होंने इसे ऑपरेशन कोह-ए-पैमा नाम दिया था। यह एक फारसी शब्द था और इसका मतलब रहा पहाड़ों की चोटी तक पहुंचना। ऑपरेशन मेघदूत की वजह से सियाचिन की चोटियों पर शिकस्त खा चुकी पाकिस्तानी सेना खुद के लिए सबसे बड़ा मौका तलाश रही थी, उसे लगा इस बार समय उनका है। ऐसे में जनरल अजीज खान के नेतृत्व में नॉर्दन लाइट इन्फेंट्री रेजिमेंट को कारगेल पर कब्जा करने की जिम्मेदारी सौंप दी गई। इस रेजिसेमेंट के ज्यादातवर जवान गिलगित और बाल्टिस्तान से थे, इसका मतलब ऊंची चोटियों का उन्हें अनुभव था, कम ऑक्सीजन में भी ऑपरेशन्स को अंजाम देना वो जानते थे।

अब यहां पाकिस्तान प्लानिंग कर रहा था वहां जनवरी 1999 में भारत दोस्ती निभाते हुए अमृतसर ने लाहौर के लिए बस को हरी झंडी दिखाने वाला था। अब वाजपेयी अपने इस प्रयास से खुश थे, सामने से नवाज शरीफ ने भी फोन कर कह दिया था कि अगर अमृतसर से हरी झंडी दिखा रहे हैं तो एक बार लाहौर आना तो बनता है। वाजपेयी को भी लगा पाकिस्तान बदल रहा है, वो भी शांति और अमन चाहता है। ऐसे में 20 फरवरी को पीएम अटल पाकिस्तान के लाहौर पहुंच गए, नवाज ने गले भी लगा लिया और 21 तोपों की सलामी तक दी गई। पहली नजर में सभी को लगा- आजादी के बाद भारत और पाकिस्तान के रिश्ते सुधर रहे हैं, अब कोई हमला नहीं होगा, अब कोई नापाक साजिश नहीं दिखेगी।

लेकिन यही अटल विश्वास टूटने वाला था क्योंकि पाकिस्तान ना कभी सुधरा था और ना ही सुधरने वाला था। असल में कारगिल की जो 14 से 18 हजार फीट की ऊंचाई वाली चोटियां थीं, वहां सर्दी के मौसम में ना भारत की सेना होती थी और ना ही पाकिस्तान की। दोनों देशों के बीच में यह करार था कि अक्तूबर से मई के बीच चोटियां खाली कर दी जाएंगी। लेकिन चालाक पाकिस्तान ने अपनी नॉर्दन लाइट इन्फेंट्री रेजिमेंट और उनकी ऊंची चोटियों पर ऑपरेशन करने की काबिलियत का गलत इस्तेमाल किया। उसने जनवरी 1999 में मुश्कोह, द्रास, कारगिल और तुर्तुक सेक्टर में सबसे बड़ी घुसपैठ कर दी, अपनी पोस्ट तक बना डालीं।

PAK का ऑपरेशन जिब्राल्टर

अब उस भीषण सर्दी में पाकिस्तान की सेना पहाड़ों के ऊपर कब्जा जमाकर बैठी थी, यहां लंबे समय तक भारत को कोई भनक नहीं लगी, अंदाजा ही नहीं था कि पाकिस्तान ने इस तरह से करार तोड़ दिया था। पाकिस्तान की साजिश बहुत बड़ी थी, वो किसी भी कीमत पर श्रीनगर और लेह को जोड़ने वाले नेशनल हाईवे 1 पर अपना कब्जा चाहता था। उसे इस बात का अहसास था कि अगर यह मकसद पूरा हुआ तो उस स्थिति में सियाचिन और लद्दाख की सप्लाई बाधित हो जाती।

अब भारत को इस घुसपैठ की जानकारी 3 मई 1999 को मिली जब एक चरवाहे और उसके कुछ साथियों ने संदिग्ध गतिविधियों होती देख लीं। पहाड़ी कपड़े पहने कुछ लोग बंकर बना रहे थे, इतना अहसास तो हो गया था कि यह हिंदुस्तान की फौज नहीं है। इसके बाद तो भारत की सेना भी चौकस हो गई और पहली बार पाकिस्तान की हरकतों की तस्तीक करने एक टुकड़ी ऊपर चोटियों पर गई। 15 मई 1999 को लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया और पांच सैनिक काकसर सेक्टर की बजरंग पोस्ट पर चेकिंग के लिए गए। अब पाक सैनिक तो पहले से ही तैयार बैठे थे, ऐसे में ताबड़तोड़ गोलीबारी की और लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया को बंधक बना लिया। बाद में बर्बरता की सारी हदें पार कर सौरभ कालिया को काफी टॉर्चर किया गया और फिर गोली मार दी।

इस हरकत ने ना सिर्फ पाकिस्तान को एक्सपोज कर दिया बल्कि भारत के हौसले भी और ज्यादा बुलंद कर दिए। इसी वजह से ऑपरेशन विजय को हरी झंडी दिखाई गई और सबसे पहले तोलोलिंग चोटी पर कब्जे की तैयारी की गई। 23 दिनों के भयंकर संघर्ष के बाद भारतीय सेना की 18 ग्रेनेडियर्स यूनिट ने पाकिस्तान के छक्के छुड़ा दिए और उस पोस्ट पर तिरंगा फहरा दिया। लेकिन इस ऑपरेशन में भारत ने अपने 25 जवान भी गंवाए। अब सबसे मुश्किल चुनौती टाइगर हिल की थी, 17 हजार फीट की ऊंचाई और वहां भी टॉप पर बैठे पाक सैनिक। अब टाइगर हिल पर कब्जा जमाने के लिए आर्मी के साथ वायुसेना का ऑपरेशन चला।

वायुसेना ने लेजर-गाइडेड मिसाइलों से पाकिस्तान के पत्थर से बने बंकर तबाह कर दिए और फिर आमने-सामने की लड़ाई शुरू हुई। लेकिन 4 जून 1999 को सिख, ग्रेनेडियर्स और नागा रेजिमेंट ने संयुक्त कार्रवाई कर पाकिस्तान की नॉर्दन लाइट इंफ्रैंट्री को हरा दिया। 12 घंटे की खूनी लड़ाई के बाद टाइगर हिल पर भी तिरंगा फहरा दिया गया। जंग में बुरी तरह शिकस्त के बाद 5 जुलाई 1999 को पाकिस्तान को भी हार माननी पड़ी, उसने अपनी सेना को वापस बुलाया और भारत ने एक बार फिर बटालिक के जुबार हिल पर अपना कब्जा जमा लिया। इस तरह से ऑपरेशन विजय पूरा हुआ।

इस पूरे युद्ध की हैरान कर देने वाली बात यह रही कि पाकिस्तान ने अपने सैनिकों के शवों तक को स्वीकार करने से मना कर दिया। भारत ने उन्हें सम्मान दिया, पाक तिरंगे से उन्हें ढका, लेकिन पड़ोसी मुल्क ने उन्हें स्वीकार ही नहीं किया। कारगिल ने फिर साबित कर दिया था कि पाकिस्तान पर कभी भरोसा नहीं किया जा सकता।

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