प्रदूषण आज दुनिया के लिए बड़ी समस्या बन चुका है। इसमें प्लास्टिक प्रदूषण एक ऐसा संकट है, जो धीरे-धीरे पृथ्वी को अपनी चपेट में ले रहा है। यह प्रदूषण हमारी नदियों, समुद्रों, मिट्टी और यहां तक कि हमारे शरीर में भी प्रवेश कर चुका है। प्लास्टिक, जो कभी सुविधा और टिकाऊपन के कारण एक क्रांतिकारी आविष्कार माना जाता था, आज हमारे पर्यावरण के लिए एक गंभीर खतरा बन गया है। सुबह जब हमारी आंख खुलती है, तो समय पर घंटी बजाने वाली घड़ी से लेकर टूथब्रश, पानी की टंकी से लेकर दूध की थैली तक, हर वस्तु में प्लास्टिक मौजूद है। हमारे भोजन को ताजा रखने वाली पैकिंग, दवाइयों की सुरक्षित बोतलें, बच्चों के रंग-बिरंगे खिलौने, जीवनरक्षक चिकित्सा उपकरण, संचार के साधन, परिवहन के कलपुर्जे और फैशन की दुनिया, कोई भी क्षेत्र प्लास्टिक के प्रभाव से अछूता नहीं है।

निस्संदेह प्लास्टिक ने हमारे जीवन को सुगम बनाया, उत्पादों को सस्ता किया और कई मायनों में सुरक्षित भी, लेकिन इस सुविधा की कीमत हम एक ऐसे भविष्य के रूप में चुका रहे हैं, जो प्लास्टिक के कचरे के नीचे दबता जा रहा है। इसका उत्पादन इतनी तीव्र गति से और इतने बड़े पैमाने पर बढ़ा है कि हमने इसके अंधाधुंध उपयोग के दूरगामी परिणामों पर कभी गंभीरता से विचार ही नहीं किया और अब यह हमारे पर्यावरण के लिए एक ऐसा नासूर बन गया है, जिसका इलाज यदि समय रहते नहीं किया गया तो यह हमारी पृथ्वी के स्वास्थ्य को सदा के लिए नष्ट कर देगा।

वैश्विक स्तर पर हर साल करोड़ों टन प्लास्टिक का उत्पादन होता है और अनुमान है कि अब तक उत्पादित कुल प्लास्टिक का एक बड़ा हिस्सा कचरे के रूप में हमारे पर्यावरण में मौजूद है। भारत जैसे विकासशील देश में प्रति व्यक्ति प्लास्टिक खपत विकसित देशों की तुलना में भले ही कम हो, लेकिन हमारी विशाल जनसंख्या और तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के कारण उत्पन्न प्लास्टिक कचरे की कुल मात्रा बहुत अधिक है। नदियां, जो कभी जीवनदायिनी मानी जाती थीं, आज प्लास्टिक की थैलियों, बोतलों और अन्य कचरे से पटी पड़ी हैं। गंगा और यमुना जैसी नदियां भी इससे अछूती नहीं हैं, जो अपने साथ भारी मात्रा में प्लास्टिक बहा कर समुद्र तक ले जाती हैं।

हमारे महासागर आज प्लास्टिक प्रदूषण के सबसे बड़े शिकार बन चुके हैं। एक अनुमान के मुताबिक, प्रति मिनट एक ट्रक भर प्लास्टिक कचरा समुद्रों में डाला जाता है। यह समुद्री जीवन के लिए मौत का एक जाल है। व्हेल और डाल्फिन जैसे बड़े जीव अक्सर मछली पकड़ने के पुराने जालों में फंस कर दम तोड़ देते हैं। समुद्री कछुए प्लास्टिक की थैलियों को जेलीफिश समझ कर निगल लेते हैं, जिससे उनका पाचन तंत्र अवरुद्ध हो जाता है और वे भूख से मर जाते हैं। समुद्री पक्षी अपने बच्चों को गलती से प्लास्टिक के छोटे टुकड़े खिला देते हैं, जो उनके पेट में जमा होकर उनकी मृत्यु का कारण बनते हैं।

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प्रवाल भित्तियां, जो समुद्री जैव विविधता के महत्त्वपूर्ण केंद्र हैं, वे प्लास्टिक कचरे से ढक कर और दम घुटने से नष्ट हो रही हैं। माइक्रोप्लास्टिक समुद्री खाद्य शृंखला में प्रवेश कर चुके हैं। छोटे समुद्री जीव प्लवक आदि प्लास्टिक के इन सूक्ष्म कणों को खाते हैं, फिर उन्हें छोटी मछलियां खाती हैं और फिर बड़ी मछलियां। जब मनुष्य इन समुद्री जीवों का सेवन करते हैं, तो ये हानिकारक तत्त्व शरीर में भी पहुंच जाते हैं। प्लास्टिक प्रदूषण हमारी मिट्टी की गुणवत्ता को भी गंभीर रूप से प्रभावित कर रहा है। प्लास्टिक के टुकड़े मिट्टी की संरचना को बदलते हैं, जल सोखने की उसकी क्षमता को कम करते हैं और मिट्टी में रहने वाले लाभकारी सूक्ष्मजीवों की गतिविधियों में बाधा डालते हैं।

इससे मिट्टी का उपजाऊपन कम होता है और कृषि पैदावार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जिस जगह शहर का कचरा इकट्ठा किया जाता है, वह प्लास्टिक से भरी होती हैं। यहां प्लास्टिक कचरे से रिसने वाले जहरीले रसायन भूजल में मिल कर उसे दूषित करते हैं, जिससे जलजनित बीमारियां फैलने का खतरा रहता है। कूड़े के इस अंबार में अक्सर आग लग जाती है। इस दौरान प्लास्टिक जलने पर अत्यंत विषैली गैसें वायुमंडल में फैलती हैं, जो गंभीर श्वसन समस्याओं, त्वचा रोगों और यहां तक कि कैंसर का कारण बन सकती हैं।

इसके अलावा प्लास्टिक कचरे से शहरों की नालियां जाम हो जाती हैं, जिससे थोड़ी सी बारिश में भी जलभराव और बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हो जाती है। आवारा पशु भोजन की तलाश में कूड़े के ढेर में मुंह मारते हैं और खाद्य सामग्री के साथ पालीथिन भी निगल जाते हैं, जो उनकी मौत कारण बनता है। राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों के आसपास के क्षेत्रों में वन्यजीवों द्वारा प्लास्टिक खाने या उसमें फंसने की घटनाएं सामने आती रहती हैं। हवा में भी माइक्रोप्लास्टिक और नैनोप्लास्टिक कण पाए गए हैं। जब हम सांस लेते हैं, तो ये कण हमारे फेफड़ों में प्रवेश कर सकते हैं। इससे स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों पर अभी शोध जारी है। प्लास्टिक उत्पादन की प्रक्रिया में भी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है, जो जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देता है।

खाद्य शृंखला के माध्यम से हमारे शरीर में पहुंचने वाले माइक्रोप्लास्टिक और उनसे जुड़े रसायन विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकते हैं। इनमें हार्मोन संबंधी असंतुलन, प्रजनन संबंधी समस्याएं, विकासात्मक विकार, तंत्रिका तंत्र को क्षति और कैंसर का खतरा शामिल है। कुछ अध्ययनों में मानव रक्त और फेफड़ों में भी माइक्रोप्लास्टिक पाए गए हैं। इस समस्या के मूल में कई जटिल और परस्पर जुड़े कारण हैं। सबसे प्रमुख और स्पष्ट कारण है, एकल-उपयोग प्लास्टिक पर हमारी बढ़ती निर्भरता। पानी की बोतलें, बिस्कुट के रैपर, किराने की थैलियां आदि, ऐसी वस्तुएं हैं, जिन्हें हम कुछ मिनटों या घंटों के लिए इस्तेमाल करते हैं और फिर फेंक देते हैं।

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‘इस्तेमाल करो और फेंको’ की संस्कृति ने हमारे समाज में गहरी जड़ें जमा ली हैं। पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता आज बहुत महत्त्वपूर्ण हो गई है। पर्यावरण केवल पेड़-पौधे, नदी-पहाड़ या जीव-जंतुओं का समूह नहीं है, बल्कि यह एक जटिल और संतुलित पारिस्थितिकी तंत्र है, जो पृथ्वी पर जीवन को संभव बनाता है। जब हम प्लास्टिक जैसे प्रदूषकों से इस संतुलन को बिगाड़ते हैं, तो इसके दूरगामी परिणाम होते हैं। इसलिए यह हमारी नैतिक जिम्मेदारी है कि हम संतुलित पर्यावरण की धरोहर को आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखें। यदि हम दृढ़ निश्चय और सामूहिक प्रयास करें तो निश्चित रूप से इस समस्या पर काबू पा सकते हैं।