आजादी के बाद से ही बढ़ती जनसंख्या भारत की प्रमुख समस्याओं में से एक है। समझा जाता है कि भारत के संसाधनों के मुकाबले जनसंख्या का दबाव इतना अधिक है कि लोगों को न खाने के लिए दो वक्त की रोटी ठीक से मिलती है और न योग्यता अनुसार करने के लिए काम। इस भीड़भाड़ वाले देश में कोलाहल एक सत्य है। नारों के साथ समस्याओं का निपटारा किया जाता है। पिछले दिनों घोषणा की गई कि भारत ने आबादी के लिहाज से चीन को पछाड़ दिया है। हम दुनिया की सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश बन गए हैं।
पहले कहा जाता था कि दुनिया का हर पांचवां आदमी चीनी है और हर सातवां व्यक्ति भारतीय है, लेकिन 2025 तक आते-आते पासा पलट गया। अब दुनिया का हर पांचवां आदमी भारतीय है और हर सातवां आदमी शायद चीनी है। हम यह भी कह सकते हैं कि दुनिया भर के निवेशकों और उत्पादकों के लिए भारत के पास सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार है। इसलिए यहां वस्तुओं की मांग में कमी की समस्या पैदा नहीं हो सकती।
इसके साथ ही दुनिया के सबसे बड़े श्रम बाजार का आश्रय होने पर भी हम गर्व करते हैं, लेकिन देखना यह होगा कि क्या इन दोनों बाजारों से उचित फायदा देश को हो रहा है। जहां तक बाजार का संबंध है, बेशक यह बहुत बड़ा है, लेकिन लोगों में क्रयशक्ति बढ़ेगी और पूंजी का समान वितरण होगा, तभी बाजार से एक संतुलित मांग सामने आएगी।
हमारे देश में बहुतायत आबादी गरीबों की है और चंद अमीर, जो पूंजी पर कब्जा जमाए बैठे हैं, उनकी मांग विलासिता की वस्तुओं के लिए है। भारत में जीवन के लिए मूलभूत आवश्यक वस्तुओं का बाजार सिकुड़ता जा रहा है। महंगाई ने उस पर और कुठाराघात कर दिया है। देश के श्रम बाजार में हम अपनी युवा पीढ़ी को उचित कामों में नहीं लगा पा रहे। इसलिए वह दूसरे देशों की ओर पलायन करती है। इसके लिए यह पीढ़ी वैध और अवैध दोनों तरीके अपनाती है। पिछले वर्ष से पश्चिम देशों ने हमारी युवा पीढ़ी के आव्रजन पर प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिए हैं। नतीजा यह कि हमारी युवा पीढ़ी के सामने भारत लौटने की स्थिति पैदा हो गई है। इसका समाधान यही है कि उन्हें उचित रोजगार दिया जाए। ऐसा नहीं करते, तो स्थिति जटिल हो जाएगी। समस्याएं और भी हैं। मगर हमने इनका हल निकाला जनसंख्या नियंत्रण।
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हाल में संयुक्त राष्ट्र की जनसांख्यिकी रपट आई है। इसमें यह तो माना गया है कि भारत सर्वाधिक आबादी वाला देश बन गया है। 2025 के अंत तक हमारी आबादी एक अरब 46 करोड़ 45 लाख हो जाएगी। अब हमारे सामने करीब डेढ़ अरब लोगों के भोजन-पानी की समस्या है। इसलिए सरकार ने महत्त्वपूर्ण योजना शुरू की है। इसमें कम से कम 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज दिया जाता है। उधर, किसानों में एक शिकायत है कि उन्हें उनकी फसल और मेहनत का उचित मूल्य नहीं मिलता। उनके लिए स्वामीनाथन समिति की रपट लागू नहीं होती। सरकार को चूंकि देश में उत्पादित अन्न का अधिकांश भाग रियायती दरों पर बांटना है, इसलिए फसलों के मूल्यों का निर्धारण करते समय सरकार की भी अपनी सीमाएं हैं। इसके साथ ही जो नई बातें सामने आ रही हैं, वे चौंकाने वाली हैं।
एक बात तो ‘हम दो हमारे दो’ के नारे को लेकर परिवार को सीमित करने की है। पढ़ी-लिखी पीढ़ी ने यह सीमा अपना ली है। रपट के मुताबिक 1970 में भारतीय परिवारों में चार-पांच बच्चे होते थे। अब यह दर घट कर प्रति महिला 1.9 रह गई है। अगर हमें आबादी के इसी संतुलन को बनाए रखना है, तो प्रतिस्थापन दर कम से कम 2.1 होनी चाहिए। अब समस्या यह पैदा हो गई कि औसतन भारतीय महिलाएं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जनसंख्या का आकार संतुलित रखने के लिए आवश्यक संख्या से कम बच्चे पैदा कर रही है। दूसरी ओर कुछ ऐसे पिछड़े राज्य हैं या कुछ ऐसी पिछड़ी जातियां हैं, जिन्होंने परिवार नियोजन की परवाह नहीं की और उनकी प्रजनन दर कहीं ऊंची है। इससे देश में जनसंख्या असंतुलन की समस्या पैदा हो गई है।
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दक्षिण भारत के लोगों को शिकायत है कि उन्होंने तो परिवार नियोजन को अपना लिया, इसलिए वहां प्रजनन दर कम हो गई है, लेकिन उत्तरी भारत के कुछ राज्यों जैसे बिहार और उत्तर प्रदेश में ऐसी समस्या नहीं आई। अब अगर जनसंख्या के आधार पर संसद की सीटों का परिसीमन होता है, तो दक्षिण भारत की सीटें कम न हो जाएं, ऐसी आशंका वहां के नेताओं को है। इसलिए वे जनसंख्या में इस असमानता को लेकर आवेशपूर्ण बातें करते हैं।
इसी वास्तविक प्रजनन संकट का ब्योरा संयुक्त राष्ट्र ने विश्व जनसंख्या स्थिति रपट 2025 में दिया है। जहां प्रजनन दर घटी है, उन इलाकों को देखते हैं, तो पाते हैं कि देश की कुछ समस्याएं ऐसी हैं जो वाकई जटिल हैं। जैसे आर्थिक अक्षमता, नौकरी करने की योग्यता में कमी और नौकरियों के अवसरों में कमी या निजी क्षेत्र में आधुनिकीकरण के कारण पारंपरिक रोजगारों की कमी। इस आर्थिक अक्षमता के कारण भी नौजवान अब जल्दी शादी के लिए तैयार नहीं होते। शादी की उम्र अब बढ़ते-बढ़ते 30-32 वर्ष हो गई है। कई नौजवान तो अब अपना जीवन स्तर बेहतर बनाए रखने के लिए बच्चे पैदा करने को भी तैयार नहीं। इसलिए इस वर्ग में जहां प्रजनन दर कम हो रही है, वहां पिछड़े और अति निर्धन वर्ग में प्रजनन दर की परवाह नहीं की जा रही। इस असमानता को संतुलित कैसे करना है, यह पहली समस्या है। अब जबकि प्रजनन दर 2.1 से नीचे 1.9 हो गई है, इसलिए कुछ वर्षों के बाद भारत में युवाओं की कमी हो जाएगी। उधर चिकित्सा सुविधाएं बढ़ने के कारण बुजुर्गों की संख्या बढ़ जाती है, तो यह एक नई स्थिति होगी।
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जन्मदर बेशक अब कम हो गई हो, लेकिन आज भी भारत की युवा जनसंख्या अहम है। देश की 68 फीसद जनसंख्या आज भी कामकाजी आयु वाली है। इसके लिए पर्याप्त रोजगार के अवसर प्रदान करना आवश्यक है। मगर ऐसे अवसरों का हम तेजी से विकास नहीं देख रहे। आर्थिक विकास दर बढ़ाने के लिए भारत का जोर निजी क्षेत्र में स्वचालित डिजिटल निवेश की ओर है, जिसमें पुराने ढंग का श्रम करने वाले नौजवानों की मांग कम हो रही है। अब या तो उनके लिए शिक्षा के ढांचे में बुनियादी परिवर्तन किया जाए, उन्हें कृत्रिम मेधा, डिजिटल पावर और रोबोटिक्स के अनुरूप बना दिया जाए, लेकिन ऐसा करने में वक्त लगता है। सबसे पहले तो मुफ्त की संस्कृति को बदलना चाहिए। नौजवानों को लघु और कुटीर उद्योगों के प्रोत्साहन या सहकारी आंदोलन के द्वारा रोजगार मिले ताकि वे देश के स्थापित मूल्यों के प्रति उदासीन न हों।