Maharana Sanga Vs Babur: समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सांसद रामजी लाल सुमन का एक बयान चर्चा का विषय बना हुआ है, उन्होंने महाराणा सांगा को को लेकर कुछ ऐसा बोल दिया है कि पूरा राजपूत समाज आक्रोशित है। सपा सांसद ने दावा किया है कि भारत में मुगल शासक बाबर की जो एंट्री हुई है, उसमें महाराणा सांगा का एक अहम हाथ था। अब इसी तथ्य की पड़ताल करने के लिए जनसत्ता ने गहन रिसर्च की, महाराणा सांगा से जुड़ी कुछ किताबों का भी रुख किया।
ऐसी ही एक किताब है- Maharana Sanga; The Hindupat, The Last Great Leader Of The Rajput Race। इस किताब को सर्दा हर बिलास और दिवान बहादुर ने लिखा है। इस किताब में वैसे तो महाराणा सांगा से जुड़े किस्से बताए गए हैं, लेकिन बात उस विवादित इतिहास की भी हुई है जहां जिक्र मुगल शासक बाबर का आता है, जहां बात खानवा युद्ध की होती है।
1517 AD में दिल्ली में सुल्तान इब्राहिम लोधी का शासन था। इस अफगान शासक को अपने कार्यकाल में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था, उसने क्रूरता की इतनी हदें पार की थीं कि कई राजा उसके दुश्मन थे, कई उसे सत्ता से जाता हुआ देखना चाहते थे। लेकिन उस समय इब्राहिम लोधी के पास ना इतनी ताकत थी और ना ऐसी चतुराई कि वे अपने दुश्मनों के मंसूबों को पूरा होने से रोक सकते।
उस समय लाहोर के गर्वनर हुआ करते थे दौलत खान, उन्होंने दिल्ली को उस मुश्किल से निकालने के लिए काबुल के राजा बाबर को भारत आने का न्योता दिया था, उसे हिंदुस्तान पर राज करने का प्रस्ताव दिया था। बाबार के लिए उस समय हिंदुस्तान की गद्दी पर बैठना बहुत जरूरी था क्योंकि पंजाब जीतने के उसे सारे मंसूबे विफल हो चुके थे। अब उन चुनौतियों के बीच महाराणा सांगा ने बाबर को एक संदेश भेजा था।
इस किताब के मुताबिक बाबर ने अपनी आत्मकथा में लिखा था- महाराणा सांगा चाहते थे कि दिल्ली की गद्दी पर वे (बाबर) बैठे, इसके बदले में आगरा की गद्दी उन्हें (महाराणा सांगा) सौंप दी जाए। अब जिस समय बाबर दिल्ली आने के सपने देख रहा था, वहां दूर हिंदुस्तान में लोधी के खिलाफ अपनों का गुस्सा बढ़ता जा रहा था, सत्ता का लालच में साजिशें रची जा रही थीं। ऐसी एक साजिश उस समय आलम खान रच रहा था, उसे राजकुमार अलाउद्दीन के नाम से भी जाना जाता था।
उसने बाबर से हाथ मिलाया, उसे पंजाब पर कब्जे का सपना दिखाया और उसकी सेना लेकर दिल्ली के खिलाफ कूच कर दिया। उस छोटे से युद्ध में आलम खान की करारी हार हुई, इब्राहिम लोधी ने दिल्ली की सत्ता पर अपना कब्जा बरकरार रखा। लेकिन बाबर को संदेश जा चुका था- दिल्ली चाहिए तो यही समय सही है। उसी समय बाबर ने 12 हजार की सेना के साथ इंडस घाटी से भारत की ओर कूच कर दिया था। दिल्ली आते-आते उसकी सेना 70 हजार लड़ाकों की हो चुकी थी। पानीपत एक और युद्ध के लिए तैयार था- बाबर बनाम इब्राहिम लोधी।
29 अप्रैल 1526 AD को बाबर और इब्राहिम की सेना के बीच में भीषण युद्ध छिड़ा, कई दिनों तक खून-खराबा हुआ और अंत में दिल्ली की गद्दी पर बाबर का कब्जा हुआ, इब्राहिम लोधी मारा गया और अफगान साम्राज्य को हिंदुस्तान में अब तक का सबसे बड़ा झटका लगा। अब इब्राहिम के मारे जाने के बाद महाराणा सांगा को आगरा चाहिए था, किताब के मुताबिक तो बाबर के साथ समझौता हो चुका था, लेकिन मुगल अपनी फितरत से पीछे नहीं हटे। दिल्ली पर कब्ज करने के बाद बाबर की नजर आगरा पर थी।
कुछ दिन तक तो उसने इंतजार किया, देखा कि क्या महाराणा सांगा वहां आते या नहीं। लेकिन जब कुछ दिनों तक कोई हलचल नहीं दिखी, बाबर ने वहां भी अपना कब्जा जमा लिया। अब आगरा के बाद बाबर का लालच बढ़ता गया, उसे बयाना पर भी मुगल शासन चाहिए था। इतिहासकार बताते हैं कि उस जमाने में बयाना राजनीतिक लिहाज से एक अहम भूमि थी। बयाना में राजूपतों का वर्चस्व था, वहां पर निजाम खान जागीदार की भूमिका निभा रहा था।
लेकिन निजाम खान जानता था कि अगर बयाना में फिर अपना कब्जा चाहिए तो उसके लिए माहाराणा सांगा को रास्ते से हटाना जरूरी था। इसी वजह से निजाम ने दिमाग लगाकर बाबर और महाराणा सांगा को ही लड़वाने का काम किया। निजाम ने बाबर को बताया कि वो सांगा का जागीदार है तो वहीं सांगा को कह दिया कि बाबर की वजह से वो अपनी जिम्मेदारियों को ठीक तरीके से नहीं निभा पा रहा। अब इस एक चिंगारी ने बाबर और महाराणा सांगा को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया।
बाबर ने बयाना में राजपूतों को साफ करने के लिए अपनी सेना वहां भेज दी। उस सेना को तब निजाम के भाई अलीम खान का भी समर्थन हासिल हुआ और उसकी सेना भी मुगलों के साथ चल दी। उस युद्ध में निजाम हार रहा था, मुगलों की सेना को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा। लेकिन निजाम ने तब बाबर के सामने जाकर सरेंडर कर दिया, बदले में बाबर ने उसे अहम जागीर सौंप दी। महाराणा सांगा के लिए यह एक बड़ी निराशा थी, यह वो मौका बना जब उन्होंने कसम खाई कि अब मुगलों को भारत से खदेड़कर रहेंगे।
फिर 11 फरवरी 1527 AD को बाबर ने आगरा से बाहर अपने कदम रखे और सांंगा के खिलाफ युद्ध की घोषणा की। मेधाकुर से होते हुए फतेहपुर सीकरी तक, बाबर अपनी सेना को तैयार करता रहता, जरूरी संसाधन जुटाता रहा। दूसरी तरफ महाराणा सांगा ने भी चितौड़ से एक बड़ी सेना के साथ कूच किया था। उस युद्ध में राजकुमार महमूद खान लोधी का साथ भी राणा को ही मिला क्योंकि उन्होंने अफगान शासक को शरण दे रखी थी। देखते ही देखते राणा रंथाम्बोर पहुंच चुके थे, बाबर सचेत था, उसने अपनी आत्मकथा में स्पष्ट लिखा था- महाराणा सांगा एक ताकतवर राजा हैं, अपनी तलवार के दम पर उन्होंने पूरी दुनिया में ख्याति कमाई है।
महाराणा सांगा तेज गति से बयाना की तरफ बढ़े और उन्होंने वहां बाबर के शासन का अंत कर दिया। उस समय के इतिहासकार बताते हैं कि मुगलों को भी अहसास हो गया था कि उनका युद्ध कोई अफगान या किसी दूसरी सेना से नहीं था, बल्कि ये वो राजपूत सेना थी जो अपने वतन के लिए मर-मिटने के लिए जानी जाती थी। दूसरी तरफ बाबर की सेना में विश्वास की भारी कमी थी, उसी वजह से युद्ध के मैदान में भी उन्हें लगातार नुकसान झेलना पड़ रहा था।
किताब बताती है कि राणा के साथ युद्ध के दौरान बाबर इतना ज्यादा टूट चुके थे कि वे शराब छोड़ने को पूरी तरह तैयार थे। उनका मानना था कि शराब की उनकी लत ने उन्हें काफी नुकसान दिया। ऐसे में उस बुरी आदत से खुद को मुक्त कर वे जीत की राह तलाशना चाहते थे। इसी वजह से बाबर ने सोने के कई ग्लास गरीबों में दान करने का फैसला किया था। उन्हें लग रहा था कि खुद को शुद्ध कर वे सांगा को उस युद्ध में हरा पाएंगे। अपनी मुगल सेना को भी ताकत देने के लिए बाबर ने तब कुरान पर हाथ रख कसम खिलवाई थी।
राजपूत सैनिकों में तो शौर्य की कोई कमी नहीं थी, लेकिन धर्म को ताकत बनाकर मुगल सैनिकों में बाबर ने भी नई जान फूंक दी थी। दूसरी तरफ महाराणा सांगा के साथ वैसे तो कई जगह से समर्थन था, कई राजा और उनकी सेनाएं उनके साथ खड़ी थीं, लेकिन वो सभी समान विचार वाले नहीं थे, सभी के अपने मकसद थे। ऐसे में कब कौन छिटक जाए, कौन पाला बदल ले, इस वजह से राणा की सेना में भी एक अस्थिरता थी।
इस बीच 12 मार्च 1527 AD को बाबर और महाराणा सांगा आमने-सामने थे। उस युद्ध में मुगलों ने कई तकनीत का इस्तेमाल किया था, माना जाता है कि गन पाउडर तक का इस्तेमाल हुआ था। उस युद्ध में महाराणा को पहला झटका तब लगा जब राजा Silhiddi ने धोखा देकर अपना समर्थन वापस लिया और बाबर से हाथ मिलाया। वे अपनी 35000 घुड़सवार सेना के साथ वहां चले गए। इसके बाद महाराणा थोड़े परेशान हुए, उनका ध्यान भटका और उतनी ही देर में एक तीर सीधे उनके माथे पर आकर लगा। युद्ध के मैदान में महाराणा बेहोश हो गए, उन्हें सुरक्षित वहां से दूर ले जाया गया।
अंत में खानवा के युद्ध में बाबर की जीत हुई, महाराणा सांगा की सेना को हार का सामना करना पड़ा। लेकिन इस किताब में भी साफ बताया गया है कि राणा सांगा ने कोई धोखा नहीं दिया था, उन्होंने तो पूरी ताकत के साथ बाबर के खिलाफ युद्ध लड़ा, उस युद्ध में मुगलों के पसीने छूटे और बाबर को भी राणा की ताकत का लोहा मानना पड़ा।