नेटफ्लिक्स की ब्लैक वारंट सीरीज अपनी शानदार कहानी के कारण दर्शकों के बीच चर्चा का विषय बन गई है। लोगों को जेल के अंदर की यह कहानी काफी पसंद आ रही है। इस सीरीज के चर्चा के साथ ही लोगों के जहन में एक बार फिर अपराधी रंगा-बिल्ला की जोड़ी याद आ गई है, दिल्ली में उस वक्त इस तरह किडनैपिंग, रेप और फिर हत्या जैसी घटनाएं सामने नहीं आती थीं। जिस तरह इस सीरीज में जेल के बारे में अंदर की चीजें दिखाई गईं हैं, फैंस में उत्सुकता बढ़ गई है। कभी न कभी आपने भी रंगा-बिल्ला का नाम सुना हो, लोग इसे ताने देने के लिए भी इस्तेमाल करते हैं। अगर नहीं सुना तो इनकी पूरी क्राइम कुंडली के बारे में हम आपको इस आर्टिकल में बता रहे हैं। दोनों ने 1978 में रेप के बाद उस हत्याकांड को अंजाम दिया था, जिसने पूरी दिल्ली को दहला दिया है। न्याय की मांग के लिए लोग सड़कों पर उतर आए थे।

तारीख 26 अगस्त और साल था 1978। दिल्ली के धौला कुआं इलाके में रहने वाले नेवी अफसर मदन मोहन चोपड़ा की बेटी गीता और बेटा संजय अपने घर से ऑल इंडिया रेडियो के लिए निकले मगर वे रास्ते से ही गायब हो गए। इस घटना पर इंडियन एक्सप्रेस ने लगातार कवरेज की थी।

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दरअसल, इस मामले में एक राहगीर ने पुलिस को सूचना दी थी कि फिएट कार में एक लड़की मदद के चिल्ला रही थी। पुलिस ने शिकायत दर्ज कर दिल्ली, हरियाणा, पंजाब सहित यूपी में तलाशी अभियान जारी रखा पर कोई खबर नहीं। तीन दिन बीत जाने के बाद 29 अगस्त को एक चरवाहे को रिज के जंगलों में सड़क किनारे लड़की और लड़के की लाश मिली, जिनकी पहचान गीता और संजय के रूप में हुई।

इस निर्मम हत्याकांड ने पीएम मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री को भी टेंशन में डाल दिया था। इस केस को लेकर जनता सड़कों पर थी और फिर 31 अगस्त को हाथ लगी एक फिएट कार जिसमें दोनों का अपहरण किया गया था लेकिन कार के मालिक ने पहले ही गाड़ी की चोरी की शिकायत दे रखी थी। अब पुलिस केस की फाइलों और फॉरेंसिक रिपोर्ट में व्यस्त थी कि तभी उन्हें जांच रिपोर्ट के कुछ हिस्से रंगा और बिल्ला का हाथ होने का इशारा कर रहे थे।

रंगा का पूरा नाम कुलजीत सिंह और बिल्ला का नाम जसबीर सिंह था। रंगा कभी मुंबई में टैक्सी चलाता था और वहीं उसकी दोस्ती बिल्ला से हुई थी। बिल्ला अपराध की दुनिया का पुराना खिलाड़ी था और जेल भी जा चुका था। इस केस में भी रंगा-बिल्ला का हाथ होने के बाद अखबार-मैगजीन और सार्वजनिक जगहें दोनों की तस्वीरों से पटी पड़ी थी। इस बड़े मामले को अंजाम देने के बाद रंगा-बिल्ला फरार थे, लेकिन 8 अगस्त 1978 को वह पकड़े गए।

8 अगस्त को पुलिस के नजरों से बचते-बचाते रंगा-बिल्ला कालका मेल में सैनिकों के डिब्बे में जा चढ़े। जब डिब्बे के भीतर सैनिकों ने इनसे पूछताछ की तो दोनों लड़ बैठे। इसी बीच ए.वी. शेट्टी नाम के लांस नायक ने रंगा-बिल्ला को पहचान लिया, क्योंकि उन्होंने एक अखबार में इन आरोपियों की फोटो देखी थी। इसके बाद रंगा-बिल्ला को पुलिस को सौंप दिया गया। पुलिस ने पूछताछ की तो पता चला कि अपहरण फिरौती के लिए किया गया था लेकिन पिता के सेना में होने के चलते बच्चों की हत्या कर दी गई थी फिर केस में पुलिस ने बयान, डीएनए समेत सभी जरूरी सबूत जुटाए।

गीता और संजय के लापता होने के तीन दिन बाद पुलिस को पता चला कि उनकी हत्या की गई है और गीता के साथ भी बलात्कार किया गया। मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने हत्यारों कुलजीत उर्फ ​​रंगा खुश और जसबीर सिंह उर्फ ​​बंगाली उर्फ ​​बिल्ला को मौत की सजा सुनाई इसके बाद, रंगा ने फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील डाली लेकिन कोई राहत नहीं मिली। वहीं, 31 जनवरी 1982 में दोनों को फांसी दे दी गई। बता दें कि, सरकार आज भी गीता और संजय के नाम पर देश में बहादुर बच्चों को ब्रेवरी अवार्ड देती है।

ब्लैक वारंट: कन्फेशंस ऑफ ए तिहाड़ जेलर पुस्तक में सुनील गुप्ता बताते हैं, “बिल्ला और रंगा से पहली बार मिलने के दशकों बाद भी मैं अभी भी उन्हें उनके पर्सनैलिटी से अलग कर सकता हूं। तिहाड़ में रंगा का नाम ‘रंगा खुश’ था। उसके स्वभाव के अनुसार, वह 24 साल का था और लगभग छह फुट लंबा था और जेल में काफी खुश लग रहा था (मुझे लगता है कि रंगा खुश है)। हालांकि मुझे यकीन नहीं है कि वह सच में खुश था। दूसरी ओर, सुनील गुप्ता के अनुसार, बिल्ला बिल्कुल विपरीत था।

“गुप्ता ने अपनी पुस्तक ब्लैक वारंट: कन्फेशन्स ऑफ ए तिहाड़ में कहा है “इसके उलट 22 साल का बिल्ला जो बहुत छोटा था, वह सिर्फ 5.5 फीट लंबा था, वह जेल के चारों ओर घूमता रहता था। रंगा जेल में होने वाले चीजों में भाग लेता था, लेकिन बिल्ला किसी से बात नहीं करता था। उसने हमें बार-बार बताया कि उसे फंसाया गया और झूठा आरोप लगाया गया। वह अपने आने वाले परिवार से कहता था, ‘मुझे वकील लाओ, मुझे जमानत दिलाओ।’ हर अदालत ने उसे मौत की सजा की पुष्टि की, लेकिन बिल्ला के खून और पीड़ितों के खून के फोरेंसिक रिपोर्ट से वह अपराधी साबित हो चुका था हालांकि उसने आखिर यही कहा कि उसने कुछ नहीं किया है।”

गुप्ता आगे कहते हैं, रंगा आखिर तक कहता रहा कि उसने और बिल्ला ने फिरौती के लिए अपहरण की साजिश रची थी और गीता और संजय का कभी भी बलात्कार या हत्या नहीं होना था। गुप्ता ने यह भी कहा है, ”रंगा का दावा है कि जब बिल्ला ने गीता को देखा तभी वह उसके प्रति आकर्षित हो गया और छोटी मोटी अपहरण और डकैती को सबसे भयानक बलात्कार और हत्या के मामले में बदल दिया।” रंगा और बिल्ला दोनों एक-दूसरे पर आरोप लगाते रहते थे।

इंडिया टुडे मैगज़ीन के 30 सितंबर, 1978 के अंक में बताया गया, “राजधानी की लगातार बिगड़ती कानून और व्यवस्था की स्थिति पहले ही निचले स्तर पर पहुंच चुकी थी औरयह हत्याकांड वह चिंगारी थी जिसने आग भड़का दी। मारे गए बच्चों के कैप्टन पिता चोपड़ा ने उस समय कड़वाहट से कहा: ‘आजकल कोई भी माता-पिता अपने बच्चों के बारे में सुरक्षित महसूस नहीं करते हैं। आज यह मेरे बच्चों का सवाल है कल यह दूसरे के बच्चे हो सकते हैं।”

असल में ब्लैक वारंट, डेथ वारंट को तैयार करने वाली काली रेखाओं के कारण इसे ‘ब्लैक वारंट’ कहा जाता है। रंगा और बिल्ला के डेथ वारंट पर साइन होते ही तिहाड़ के जल्लादों को समन मिल गया। 31 जनवरी से एक सप्ताह पहले रंगा और बिल्ला को फांसी कोठी में ले जाया गया, जो अब जेल नंबर 3 में स्थित है। फांसी कोठी के बाहर से किसी को भी इस बात का अंदाजा नहीं होगा कि जब मौत की सजा पाए एक कैदी को फांसी के लिए तैयार किया जा रहा था तो वहां क्या तैयारी चल रही थी।

फांसी कोठी में मौत की सज़ा पाए कैदियों के लिए सर्वोत्तम जेल सेवाएं दी जाती हैं। कैदियों से पूछा जाता है कि क्या वे अपने परिवार से अंतिम मुलाकात चाहते हैं, या कोई मजिस्ट्रेट उनकी वसीयत नोट करना चाहता है। फांसी के समय से दस मिनट पहले उन्हें हथकड़ी लगाकर फाँसी मंच पर ले जाया जाता है। फांसी से एक रात पहले जब बिल्ला रो रहा था तब भी रंगा ने भी उसका मज़ाक उड़ाया था: “देखो, मर्द होके रो रहा है (इस दयनीय रोते हुए आदमी को देखो)!”

उस समय दिल्ली में फांसी के समय केवल जेल अधिकारियों को ही उपस्थित रहने की अनुमति थी। इसलिए, जब 31 जनवरी, 1982 को रंगा और बिल्ला को फांसी के तख्ते पर ले जाया गया तो जेलकर्मियों के अलावा वहां कोई नहीं था। जेल रोड बंद कर दिया गया था और मीडिया को इसकी कोई भनक नहीं थी कि तिहाड़ के अंदर फांसी कैसे चल रही है।

सुनील गुप्ता याद करते हैं, बिल्ला छटपटा रहा था क्योंकि फंदा उसके गले में चला गया था। दूसरी ओर, रंगा अपने नाम “रंगा खुश” के अनुसार चिल्लाया, “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल!”

आखिर समट में जब जल्लाद ने लीवर खींचा तो फांसी का प्लेटफार्म दो हिस्सों में बंट गया, इसके बाद रंगा और बिल्ला 15 फुट नीचे कुएं में गिर गए, माना जा रहा था कि मौत तुरंत हो जाएगी। बिल्ला की मौत हो चुकी थी हालांकि फांसी के दो घंटे बाद भी रंगा की नाड़ी चल रही थी। जब जल्लाद ने लीवर खींचा तो पतले और लंबे रंगा ने अपनी सांसें रोक लीं और इस तरह फांसी से बच गया।

जेल के एक कर्मचारी को कुएं में उतरना पड़ा और रंगा के पैरों को तब तक खींचना पड़ा जब तक वह मर नहीं गया। इस तरह रंगा की आख़िरी सांसें उससे छीन ली गईं। रंगा और बिल्ला के परिवार उनके शवों पर दावा करने नहीं आए। जेल स्टाफ ने उनका अंतिम संस्कार कर दिया। हालांकि बिल्ला आखिरी समय तक यही कहता रहा कि ‘रब’ जानता था कि उसने वो हत्याएं नहीं की हैं जिसके लिए उसे फांसी दी जानी थी। इसके बाद अखबार में खबरें छपी थीं कि रंगा-बिल्ला दोनों को फांसी दे दी गई।

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