पानी जीवन की बुनियादी आवश्यकता है। हालांकि, पृथ्वी का दो तिहाई हिस्सा पानी से ढका हुआ है, लेकिन इसमें 97 फीसद से अधिक समुद्री जल है, जो आम जरूरतों की दृष्टि से उपयोगी नहीं है। आज भी दुनिया की आबादी का एक बड़ा हिस्सा शुद्ध जल की आपूर्ति के लिए बरसात, पारंपरिक कृत्रिम जलस्रोत और नदियों पर निर्भर है। जिन नदियों के पानी पर लोगों की उम्मीदें कायम हैं, उनमें पृथ्वी की सतह का कुल 0.001 फीसद ही जल है। यह सच है कि नदियां मनुष्य समाज को मुक्त हृदय से अपनी संचित निधि देती है। बावजूद इसके नदियों के प्रति हमारा व्यवहार लगातार गैरजिम्मेदाराना होता जा रहा है और यही कारण है कि जहां गंगा सहित देश की अधिकांश बड़ी नदियां प्रदूषण से जूझ रही हैं, वहीं लगातार उपेक्षा के कारण अनेक छोटी नदियां लुप्त हो गई हैं। छोटी नदियां ही बड़ी नदियों में अपना जल अर्पित करके उनके लिए जीवनरेखा का काम करती हैं। इसलिए आवश्यक है कि छोटी नदियों के संरक्षण पर भी पर्याप्त ध्यान दिया जाए।

छोटी नदियां किस तरह से बड़ी नदियों को समृद्ध करती हैं, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। राजस्थान के अलवर जिले की राजगढ़ तहसील का उमरी देओरी जहाजवाली नामक नदी का उद्गम है। यह अरावली पर्वत शृंखला की सबसे छोटी नदियों में एक है। इसकी लंबाई लगभग बीस किलोमीटर है। यह नदी पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है। अपने उद्गम स्थल से निकल कर यह गुवादा, बांकला, देओरी गांव होते हुए जहाज नामक स्थल पर पहुंचती है। फिर यह दक्षिण की ओर मुड़ती है और नीचे की तरफ बहती है। कुछ दूर चलने पर एक अन्य जलधारा इस प्रवाह में मिल जाती है। इसके बाद नंदू गांव के जंगलों में बह रहा पानी इस प्रवाह में मिल जाता है।

मुरलीपुरा के निकट घेवर और नायला की तरफ से आ रही एक और जलधार इस प्रवाह में समा जाती है। छावा के बास के निकट लोसल गुजरान नाम की धारा भी इनमें मिल जाती है। इन धाराओं में तालाब गांव के निकट एक अन्य धारा मिलती है। यहां एक सरोवर है, जिसे यह प्रवाह पानी से भरता है। इसके बाद ये सभी धाराएं जहाजवाली नदी की मुख्यधारा से जुड़ जाती हैं। रास्ते में बने गुयाल्या बांध में राजदोली और रूपबास गांवों से आने वाली जलधाराएं भी इनमें मिल जाती हैं। इस छोटे बांध का पानी भी अंतत: तेहला के मंगलनसर बांध में मिल जाता है। यहां तक का सारा क्षेत्र अलग-अलग धाराओं के बावजूद जहाजवाली नदी कहलाता है। यहां से थोड़ा आगे जाकर जहाजवाली नदी भगनी नदी में मिल जाती है। इसके बाद इन दोनों छोटी नदियों की संयुक्त धारा को तिलदेह नदी कहा जाता है।

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यहां से यह छोटी नदी राजौर, मथुरावट, मन्याला और कन्यावास होते हुए दक्षिण की ओर मुड़ती है। यहां से कुछ आगे कंकवाड़ी से आने वाली एक अन्य जलधारा इसमें मिलती है। आगे भी कई जलधारा इस प्रवाह में समाती हैं। सरसा और अरवरी नामक छोटी नदियों के मिल जाने के बाद यह प्रवाह सांवा नदी का रूप ले लेता है। नांगलदास और रेडिया नामक गांवों के बीच इस जगह को त्रिवेणी संगम भी माना जाता है। आगे जाकर सांवा नदी बाणगंगा नदी में समा जाती है। बाणगंगा गंभीर नदी में समर्पण करती है और ये दोनों नदियां उटनगन नदी बनकर यमुना नदी का हिस्सा बन जाती हैं। यमुना प्रयागराज में गंगा को अपना जल अर्पित कर देती है। मार्ग में दूसरी छोटी नदियां भी इस प्रवाह को ताकत प्रदान करती हैं।

यह उदाहरण नदियों के प्रवाहतंत्र को समझाने के लिए पर्याप्त है। जिस तरह बूंद-बूंद से घड़ा भरता है, ठीक उसी तरह से छोटी-छोटी धाराओं से मिल कर एक नदी बनती है। ऐसे में छोटी नदियों को भी उतना ही महत्त्व दिया जाना चाहिए, जितना बड़ी नदियों को दिया जाता है। उनके संरक्षण के लिए पर्याप्त सजगता दर्शानी चाहिए। प्राचीन काल में सभी नदियों को समाज का संरक्षण मिलता था। यह दुखद है कि देश और समाज नदियों के प्रति उदासीन हो गया। उपेक्षा के चलते अनेक छोटी नदियों और मौसमी जलधाराओं ने दम तोड़ दिया। समाज उन्हें नाला समझता रहा। राजस्थान की राजधानी जयपुर में कभी बहने वाली द्रव्यवती नदी बरसों तक अमानीशाह नाला कही जाती रही। कुछ समय पहले समाज के बुद्धिजीवियों के आग्रह पर सरकारी स्तर पर इस नदी को इसके पुराने रूप में लौटाने की कोशिश हुई।

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नागरिकों में चेतना जगाई जाए, तो समाज ऐसे कार्यों में सहयोग करने के लिए तत्पर मिलेगा। राजस्थान की अरवरी नदी का उदाहरण सबके सामने है। अरावली की पहाड़ियों से निकलने वाली इस नदी की कुल लंबाई 45 किलोमीटर है। जन सहयोग से साठ साल बाद इस मृतप्राय: नदी को उसके प्राण लौटाए गए। नदी के प्रवाह क्षेत्र के गांवों में बरसाती पानी रोकने के लिए मिट्टी के छोटे बांध बनाए गए और अंतत: नदी को उसका सौंदर्य लौटा दिया गया। छत्रपति संभाजी नगर की खम नदी की कहानी बताती है कि जिम्मेदार लोग अपने परिवेश के प्रति संवेदनशील हों, तो बुरे दिनों को अच्छे दिनों में बदला जा सकता है।

खम नदी की कुल लंबाई 65 किलोमीटर है और यह गोदावरी की सहायक नदी है। इस नदी से करीब चालीस लाख लोगों को फायदा मिलेगा। यह मौसमी नदी है, जो समाज की उपेक्षा के कारण गंदे नाले में बदल गई थी। कुछ औद्योगिक घरानों, नगर निगम और स्वयंसेवी संगठनों की मदद से नदी के एक बड़े हिस्से की सफाई का काम शुरू हुआ और फिर इसके प्रवाह को बहाल किया गया। आमजन को इस योजना से जोड़ने का फायदा यह हुआ कि लोगों का नदी के प्रति लगाव बढ़ा।

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उत्तर प्रदेश में संभल जिले की सोत नदी को भी सजगता ने बचा लिया। यह गंगा की एक प्रमुख सहायक नदी रही है। मगर नदी किनारे अतिक्रमण, मिट्टी के अंधाधुंध दोहन और प्रदूषण ने इस नदी को भी बेहाल कर दिया। इसके किनारे अतिक्रमण हटवाने सहित कई अहम निर्णय किए गए। हालत यह थी कि नदी के पेटे में बिल्कुल पानी नहीं होने के कारण कई किसान वहां खेती करने लगे थे। लेकिन सोत नदी के दिन आखिरकार फिरे और उसे जीवनदान मिला।

देश में ऐसे और भी उदाहरण हैं, जहां लोगों ने सजगता दिखाते हुए पूरी तरह सूख गई नदियों को जल संरक्षण की विविध तकनीक अपनाते हुए उसे बचा लिया। उन्होंने अपने आसपास सजग और संवेदनशील लोगों के समूहों को प्रेरित किया, उनके साथ काम किया और समाज के सामने मिसाल पेश की। ये उदाहरण बताते हैं कि यदि नदियों के प्रति संवेदनशील रहा जाए, तो दम तोड़ रही तमाम छोटी नदियों को बचाया जा सकता है। छोटी नदियों का संरक्षण इसलिए जरूरी है, क्योंकि उनका अवदान बड़ी नदियों के लिए जीवन रेखा का काम करता है।