वक्त बदलने के साथ नई सदी में नए सत्य सामने आ रहे हैं। एक समय था जब सेनाएं एक-दूसरे के सामने आकर, रणभेरी बजाती और चक्रव्यूह रचा कर युद्ध लड़ती थीं। सुबह युद्ध शुरू होता और शाम को रोक दिया जाता। यह था युद्ध का नियम, लेकिन जैसे-जैसे समय गुजरता गया, युद्ध का रूप भी बदलता गया। अब युद्ध और युद्ध का समाधान राजनीति की प्राथमिकताओं के आधार पर होने लगा है। सेनाएं, सेनाओं को नहीं हरातीं, खजाने को भरने या खाली होने की बेबसी युद्ध पर लगाम लगाती है। पिछले तीन वर्ष से दुनिया कुछ देशों को युद्ध करते देख रही है। रूस और यूक्रेन का युद्ध, इजराइल और हमास का युद्ध, चीन और ताइवान में चल रही तनातनी सामने है। भारत और चीन की बात क्या करें। अब जो समझौता सामने आया है, उसके पीछे भी क्या दोनों देशों और विशेष रूप से चीन की व्यावसायिक मजबूरियों का दबाव नहीं है?

अर्थ यह कि आजकल युद्ध इसलिए होते हैं, क्योंकि हथियार बनाने वाले देशों को अपने हथियार कारखाने चलाने हैं। अब युद्धों की शुरुआत उन अधिनायक रूपी राज्य प्रमुखों द्वारा होती है, जो यह समझते हैं कि उनके अहं की बराबरी उनके आसपास के छोटे देश नहीं कर सकेंगे। फिर पर्दे के पीछे का खेल शुरू हो जाता है। एक छोटे से देश को दुनिया के चंद समृद्ध देश थपकी देकर एक बड़े देश के साथ भिड़ा देते हैं। रूस और यूक्रेन का उदाहरण सामने है। संवाद की बात होती है, समाधान की बात होती है, लेकिन हथियारों और गोला बारूद की आपूर्ति दोनों ओर से रुकती नहीं, विध्वंस का तांडव थमता ही नहीं। यह तो हथियार बनाने वाले बड़े-बड़े देशों की मजबूरी है कि अगर युद्ध छिड़ गया है, तो उसे लंबा खिंचने दें।

वैश्विक परिदृश्य में एक नई हलचल दिख रही है। यह हलचल अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पैदा की है। वे व्यापार युद्ध का नया राग शुरू कर रहे हैं। उनका जोर है कि अमेरिका के लिए उसके हित सर्वोपरि हैं। इसके तहत अवैध रूप से आए प्रवासी नागरिकों को निष्कासित करने की मुहिम छेड़ने की जो धमकी दी जा रही है, वह अपने देश के कामगारों का दिल जीतने के लिए है कि ये नंबर दो के नागरिक सरहद पार होंगे, तो आपको आपकी मेहनत का सही मूल्य मिलेगा। मगर अपने देश के हित को साधने की बात कहने से जो लोकप्रियता मिलती है, उसे अमेरिकी राष्ट्रपति तो छोड़ने के लिए तैयार नहीं। दुनिया के बहुत से देशों का व्यापार अमेरिका के साथ होता है।

अमेरिका का डालर बहुत मजबूत मुद्रा है। मुद्रा तब मजबूत होती है, जब उस देश से निर्यात ही निर्यात का माहौल खुलता रहे और उसके आयात की जरूरतें इतनी अनिवार्य न हों। अमेरिका की यही स्थिति है। भारत से ही तुलना की जा सकती है। देखते ही देखते हमारी आयात आधारित व्यवस्था ने भारतीय रुपए का मूल्य अमेरिका के डालर के मुकाबले में 70 से 86 रुपए तक गिरते हुए देख लिया। अभी भी हालात में सुधार नहीं हो सका। रुपया लगातार गिर ही रहा है।

अमेरिका की नाराजगी कनाडा, मैक्सिको और चीन से भी है। पिछले दिनों ब्रिक्स देशों ने उनके अतिरिक्त तीसरी दुनिया के देशों ने भी फैसला किया कि अंतरराष्ट्रीय विनिमय में डालर ही सर्वोपरि क्यों रहे? क्या कोई और वैकल्पिक मुद्रा तीसरी दुनिया या ब्रिक्स देश खड़ी नहीं कर सकते, जिसके द्वारा सही विनिमय दरों पर व्यापार हो सके। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सत्ता संभालने से पहले ही कह दिया था कि जो विनिमय के लिए डालर को त्यागेगा, वह व्यापारिक तौर पर मार खाएगा। इस व्यापार युद्ध को आर्थिक भाषा में ‘टैरिफ वार’ कहा जाता है। ट्रंप ने कहा कि अगर डालर की शर्तों पर व्यापार नहीं होगा, तो ऐसे देशों पर कड़े शुल्क लगाए जाएंगे। अब सिर्फ धमकी नहीं, ‘कर युद्ध’ भी छेड़ दिया गया है।

सबसे पहले ट्रंप ने मैक्सिको, कनाडा और चीन से आयातित वस्तुओं पर कर लगाने संबंधी एक आदेश पर बीते दिनों हस्ताक्षर कर दिए। चीन, मैक्सिको और कनाडा ही सबसे पहले वे देश हैं, जो अपनी ऊंची कर दरों से अमेरिकी व्यापार घाटे को बढ़ाते हैं। चीन से 30.2 फीसद, कनाडा से 14 फीसद और अमेरिका से 19 फीसद का घाटा होता है। ट्रंप ने कहा था कि ‘मैं ऐसे देशों पर शुल्क लगाने का वादा करता हूं।’ इन देशों में भारत का नाम भी आता था, क्योंकि ट्रंप के अनुसार भारत ने भी अपने निर्यातों पर भारी कर लगा रखा है। हमारा व्यापार उसके साथ हुए कुल व्यापार का केवल 3.2 फीसद है, इसलिए जो व्यापार युद्ध अब छिड़ा है, इसमें फिलहाल भारत का नाम नहीं है। मगर भारत जानता है कि यह युद्ध उस पर भारी पड़ेगा। अमेरिका से आयातित वस्तुएं भारत में एकदम महंगी हो जाएंगी।

ट्रंप ने कनाडा, मैक्सिको और चीन पर आरोप लगाया है कि वे दर्दनिवारक दवाएं और अन्य वस्तुओं का अवैध आयात करके उनकी अर्थव्यवस्था में उथल-पुथल पैदा करते हैं। उन्होंने चीन से आयात किए सभी सामानों पर दस फीसद, मैक्सिको और कनाडा से आयात हुए सभी सामानों पर 25-25 फीसद कर लगा कर आर्थिक आपातकाल की घोषणा कर दी है। इसका जवाब मैक्सिको और कनाडा ने भी दे दिया है। जस्टिन ट्रूडो ने गंभीर लहजे में कहा है कि हमें एकजुट करने की बजाय अलग कर दिया गया है। उनका देश शराब और फलों सहित 155 अरब डालर तक के अमेरिकी आयात पर 25 फीसद शुल्क लगाएगा। हम हमेशा अमेरिका के साथ खड़े रहे। अफगानिस्तान में उनके साथ लड़े। कैलिफोर्निया के जंगलों में आग से लेकर कैटरीना तूफान की आपदाओं तक हमने उनकी मदद की, लेकिन अब हम पर यह कर क्यों?

उधर, मैक्सिको ने भी कहा कि यह आरोप लगा कर कि हम आपराधिक संगठनों के साथ सहयोग करते हैं, कर थोपना गलत है। हम अपने क्षेत्र में दखल देने की हर मंशा का विरोध करते हैं। मेक्सिको के राष्ट्रपति ने स्पष्ट कह दिया कि हम भी इस कर वृद्धि का जवाब देंगे। बात यहीं तक सीमित नहीं है। यह तो व्यापार युद्ध की शुरुआत है। अगर इसमें अमेरिका को अपेक्षित सफलता मिल जाती है, तो इसके बाद वह तीसरी दुनिया के देशों को भी नहीं बख्शेगा। भारत पर उसकी नजर पहले से ही है।

मगर याद रखना चाहिए कि इस तरह की व्यापारिक दादागीरी का जवाब देशों के आत्मनिर्भर हो जाने में ही है। तीसरी दुनिया के देश आपस में मुक्त व्यापार कर सकते हैं। इसकी शुरुआत हो चुकी है। इसमें हर देश अपनी मुद्रा में ही व्यापार करता है। अंतत: डालर के एकाधिकार को तोड़ने के लिए एक और सशक्त मुद्रा को अंतरराष्ट्रीय विनिमय में उभरना होगा। फिलहाल अपनी-अपनी शर्तो पर अमेरिका से इतर नई उभरती व्यापारिक शक्तियों और तीसरी दुनिया के जागते हुए देशों के साथ भारत जो व्यापार बढ़ाने की नीति बना रहा है या समझौता कर रहा है, वह सही है। उम्मीद है कि वह कुछ देशों की दादागीरी के दबाव में नहीं आएगा।