Veer Kunwar Singh: आजादी की लड़ाई में कई महानायक आए, कई महानायक गए, सभी ने अपना योगदान दिया, अपना खून बहाया। लेकिन योगदान तो मेरा भी रहा, मेरी धरती से भी ऐसे महापुरुष निकले जिन्होंने अंग्रेजों को दिन में भी तारे दिखाने का काम किया। उम्र कभी कोई सीमा थी ही नहीं, बस एक अलग सा जोश था, गुलामी से मुक्ति की आग थी। ऐसा ही एक नाम मुझे याद आता है- वीर कुंवर सिंह का। 80 साल के रहे होंगे जब अंग्रेजी हुकूमत के साथ दो-दो हाथ किए थे। आप हैरान हो सकते हैं, लेकिन भूलिए मत मैं बिहार हूं, कई अद्भुद कहानियों का संगम हूं।

1777 में बिहार के जगदीशपुर में कुंवर सिंह का जन्म हुआ था। ये वो दौर था जब अंग्रेज भारत आ चुके थे, विस्तार करना चाहते थे। कुंवर बचपन से ही काफी तेज थे, खेल-कूद में उनका ज्यादा मन नहीं लगता था, दूसरे बच्चे जब अपनी उम्र वाले खेल में व्यस्त रहते थे, कुंवर ने घुड़सवारी और तलवारबाजी सीखना शुरू कर दिया था। बचपन से ही अंग्रेजों को लेकर उनके मन में नफरत थी। उनकी क्रूरता को इन नन्ही आंखों ने कई बार देखा था, ऐसे में आक्रोश की आग धधकती रहती थी और उसी आग में उन अंग्रेजों को जलाने का सपना भी देखा गया था।

उस सपने ने ही समय से पहले कुंवर को काफी मजबूत बना दिया था। इतिहास बताता है कि छत्रपति शिवाजी महराज कुंवर सिंह वो दूसरे शख्स थे जिन्होंने गोरिल्ला युद्ध में महारत हासिल कर ली थी। लेकिन कुंवर सिंह के सामने एक चुनौती भी थी, अपने शुरुआती जीवन में उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ वो समर्थन हासिल नहीं हुआ जिसके दम पर वे आजादी का बिगुल फूंक पाते। कई साल बीत गए, उम्र उनकी बढ़ती गई, लेकिन आजादी का सपना, अंग्रेजों को सबक सिखाने की इच्छा प्रबल रही।

लेकिन फिर 25 जुलाई 1857 को नीयति ने उनकी इच्छा सुन ली और कुंवर सिंह को पहली बार अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध करने का सबसे बड़ा और निर्णायक मौका मिल गया। असल में दानापुर छावनि के कुछ दूसरे वीर योद्धाओं ने 80 साल के कुंवर सिंह को अपने साथ शामिल करने की बात कही थी। वे सभी जानते थे कि कुंवर कहने को 80 साल के हो चुके थे, लेकिन उनकी क्षमता, उनकी ताकत ऐसी रही कि अंग्रेजों को हराने के लिए उनकी जरूरत पड़नी ही थी। अब कुंवर सिंह ने भी अपने उन नौजवान साथियों को निराश नहीं किया और 80 साल की उम्र में भी युद्ध लड़ने का फैसला किया।

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अब कुंवर सिंह ने तब युद्ध लड़ने का फैसला तो किया ही, उनके साथियों ने उन्हें अपने क्षेत्र का नेता भी नियुक्त कर दिया, यानी कि उन्हीं की अध्यक्षता में हमला करने की तैयारी थी। अब ऐसा हुआ भी और कम सेना के साथ भी कुंवर सिंह ने अंग्रेजों को दिन में ही तारे दिखा दिए। अचानक हुए पहले हमले को अंग्रेजी हुकूमत झेल नहीं पाई और वहां से भाग खड़ी हुई। अंग्रेजों को सबक मिल चुका था, संदेश साफ था- वो अजय नहीं है, उन्हें भी हराया जा सकता है।

कुंवर सिंह को भी एक बात समझ आ गई थी, एक छोटे से गुट के साथ वे आजादी का सपना साकार नहीं कर सकते थे। ऐसे में उन्होंने बनारस, अयोध्या, फैजाबाद, रीवा, बांदा, गाजीपुर, सिंकदरपुर, बलिया जैसे कई इलाकों का ताबड़तोड़ दौरा किया, कई योद्धाओं को वे साथ लेकर आए और फिर अंग्रेजों के खिलाफ शुरू हुई एक बड़ी जंग। कई जगह से हमले हुए, कई गुटों ने मिलकर आक्रमण किया और अंग्रेजों को बड़े झटके लगे।

अब अंग्रेज इस बेइज्जती को सहन नहीं कर पाए और इंग्लैंड से अतिरिक्त सेना बुलाई गई। उस अतिरिक्त सेना के दम पर आरा और जगदीशपुर पर एक बार फिर अंग्रेजों ने हमला किया और इस बार कुंवर सिंह को हार का सामना करना पड़ा। लेकिन वो युद्ध भी इतने भीषण रहे कि उनमें अंग्रेजों को भारी क्षति पहुंची। उस समय के एक ब्रिटिश लेखक ने अपनी किताब ‘The Competion Wallah’ में लिखा था-

गनीमत रही कि उस समय कुंवर सिंह की उम्र 80 बरस के करीब थी। अगर वे उस समय जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही देश छोड़ भागना पड़ जाता।

अब जगदीशपुर गंवाने के बाद कुंवर सिंह ने उत्तर प्रदेश पर अपना फोकस किया और वहां कई जिलों में फतह हासिल की। एक समय तक आजमगढ़ भी उनके कब्जे में आ चुका था। थोड़ी और ताकत जुटाने के बाद कुंवर सिंह फिर अपनी रियासत जगदीशपुर का रुख किया। इस बार की लड़ाई निर्णायक होने वाली थी। अंग्रेज क्योंकि उनका शौर्य देख चुके थे, ऐसे में उन्होंने पहले ही कुंवर सिंह को सबक सिखाने लिए हर जगह सेना तैनात कर दी थी। वो सेना हथियारों से लैस थी, संख्या में तो काफी ज्यादा बड़ी। लक्ष्य एक ही था- कुंवर सिंह को खत्म कर दो।

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21 अप्रैल 1858 को कुंवर सिंह नैया आरा जिले के शिवपुर घाट पहुंच गई थी। अंग्रेजों को पहले से भनक थी, ऐसे में सैनिक हमला करने के लिए तैयार खड़े थे। ताबड़तोड़ कई राउंड फायरिंग की गई, 80 साल के योद्धा को हराने के लिए पूरी अंग्रेजी हुकूमत जुट चुकी थी। एक गोली कुंवर सिंह के हाथ में लग गई। खून बहता रहा, जहर फैलने का खतरा भी बढ़ गया। तब बहादुरी का नया इतिहास लिखते हुए कुंवर ने अपना वो गोली वाला हाथ काट डाला, उसे मां गंगा को समर्पित कर दिया। लेकिन कहानी यहां खत्म नहीं हुई, उस दिन गोलीबारी से बच कुंवर सिंह ने फिर रणनीति पर काम किया और दो दिन बाद ही अंग्रेजी सैनिकों के साथ भीषण युद्ध छिड़ गया।

उस युद्ध में एक हाथ के साथ भी कुंवर सिंह ने ऐसा शौर्य दिखाया कि बड़े-बड़े जनरल आंखें फाड़ देखते रह गए। अंग्रेजों को इतनी करारी हार मिली कि उन्हें अपना कैप्टन तक गंवाना पड़ गया। उस जीत के बाद जगदीशपुर पर एक बार फिर कुंवर सिंह का कब्जा हुआ और अंग्रेजी हुकूमत की अप्रत्याशित फजीहत। लेकिन उस जीत के तीन दिन बाद ही वीर कुंवर सिंह का निधन हो गया, वे इतने ज्यादा जख्मी हो चुके थे कि तमाम उपचार के बावजूद भी ठीक नहीं हो पाए। 81 साल की उम्र में बिहार ने अपना एक सबसे बहादुर सपूत खो दिया।

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