Bihar First Election: मुद्दों की रेस में जब जाति ही सबसे बड़ा मुद्दा बन जाए, समझ जाइए आपने मेरी धरती पर कदम रख दिया है। गरीबी, पिछड़ापन, सबकुछ मैंने देखा है, बड़े वादे, वादों का टूटना भी मेरी आंखों के सामने हुआ है। राजनीति की पाठशाला मैं हूं, बड़े नेताओं की नींव रखने की कार्यशाला मैं हूं, मैं बिहार हूं और आज अपने पहले चुनाव की कहानी बता रहा हूं।

बात 1952 की है, देश में पहला लोकसभा चुनाव हो रहा था, साथ में बिहार में विधानसभा चुनाव भी। देश की आजादी में क्योंकि कांग्रेस ने एक अहम भूमिका निभाई थी, उसकी लोकप्रियता भी उसी वजह से सबसे ज्यादा रही। जवाहर लाल नेहरू उस जमाने में सही मायनों में सबसे बड़े स्टार प्रचारक भी थे, उनकी लोकप्रियता गजब की थी। लोगों को उनकी बात पर भरोसा था, कांग्रेस उन पर निर्भर थी। लेकिन बिहार में नेहरू के सामने एक बड़ी चुनौती भी दिखने लगी थी।

नेहरू नहीं चाहते थे कि जाति चुनाव का आधार बने, लेकिन बिहार उस एक्सपेरिमेंट में आगे बढ़ चुका था। इस वजह से एक मौके पर उन्होंने काफी तल्ख अंदाज में कहा था-

मैं भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, कायस्थ या अन्य किसी जाति के लोगों से यहां मिलने नहीं आया हूं, मैं भारतीयों से मिलने आया हूं। अगर आप विदेश जाएंगे तो आपका स्वागत बिहार के राजपूत, ब्राह्मण, भूमिहार, कायस्थ और यादव के तौर पर नहीं बल्कि आजाद भारत के नागरिक के रूप में होगा।

जवाहर लाल नेहरू, तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष

लेकिन बिहार की राजनीति में, कांग्रेस कार्यकर्ताओं के दिमाग में ये बात ज्यादा नहीं घुसी थी। बिहार कांग्रेस तो शुरुआत में ही समझ चुकी थी कि बिना जाति के ना बिहार जीता जा सकता है और ना ही बिहार के लोगों का वोट मिल सकता है। आलम ऐसा था कि बिहार में हर सीट पर जाति के आधार पर ही प्रत्याशियों का चयन हो रहा था, कई सीटों पर कांग्रेस के ही उम्मीदवारों के खिलाफ पार्टी के दूसरे नेता गोलबंदी तक कर रहे थे। ये सबकुछ हो रहा था सिर्फ जातिवाद की वजह से।

जातिवाद का चोला ओढ़कर एक और मुद्दा तब बिहार चुनाव की तकदीर बदलने वाला था। जमीदारी सिस्टम को खत्म करने की बात होने लगी थी। हर कोई तो इससे सहमत नहीं था, लेकिन भूमिहार जाति के लोग इसका समर्थन कर रहे थे। वहीं राजपूत और कायस्थ जाति वाले इसका विरोध। कांग्रेस बड़ी दुविधा में थी, उसके तीन सबसे बड़े चेहरे इस मुद्दे पर बंटे हुए थे।

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कृष्ण सिंह भूमिहार जाति से आते थे, अनुग्रह सिन्हा राजपूत थे और राजेंद्र प्रसाद एक कायस्थ। पहले ही चुनाव में कांग्रेस एक मुद्दे पर एकजुट नहीं हो पा रही थी। तब अब्दुल कलाम आजाद को दिल्ली से पटना जाना पड़ा था, इस मुद्दे पर बंट चुके नेताओं को मनाना पड़ा था। अब आगे चलकर राजेंद्र प्रसाद तो राष्ट्रपति बन गए, लेकिन कृष्ण सिंह और अनुग्रह सिन्हा के बीच में मतभेद रह गए थे।

दोनों ही आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभा चुके थे, दोनों ही बिहार के लोगों के लिए किसी मसीहा से कम नहीं थे, दोनों की सियासी केमिस्ट्री भी एक नजर में दमदार लगती थी। लेकिन अंदर ही अंदर कई मुद्दों पर असहमति भी पनप रही थी। अब एक तरफ जमीदारी सिस्टम बिहार के पहले चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ था तो वहीं जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेता भी अपनी पहचान बना रहे थे।

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उस जमाने में कांग्रेस को वैसे तो किसी पार्टी से मुकाबला नहीं मिल रहा था, लेकिन फिर भी बात जब किसी विरोधी पार्टी की होती थी, तो सबसे पहला नाम सोशलिस्ट पार्टी का आता था। असल में 1930 में कांग्रेस पार्टी में ही दो फाड़ हुई थी और तब जेपी और राम मनोहर लोहिया जैसे नेताओं ने सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया था। इतिहासकार बताते हैं कि बिहार के पहले चुनाव में जेपी हमेशा अपने भाषणों में पिछड़े वर्ग का जिक्र करते थे, लेकिन तब पिछड़ेपन से कोई एक जाति को टारगेट नहीं किया जा रहा था बल्कि पूरे गरीब समाज को अपने पाले में करने की कोशिश थी।

अब कहने को ये बिहार का पहला चुनाव था, लेकिन उस चुनाव में भी धांधली के आरोप सामने आ गए थे। इतिहास के पन्ने टटोलने पर एक नाम सामने आता है- रामबृक्ष बेनिपुरी। पहले बिहार चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी ने बेनिपुरी को कटरा सीट से अपना उम्मीदवार बनाया था। उस जमाने में भी अपनी डायरी में उन्होंने उस चुनाव के बारे में काफी कुछ लिखा था। वे बताते हैं-

चुनावी मौसम में लोगों ने तरह-तरह के नारे बना लिए हैं- इन्कलाब जिंदाबाद, सोशलिस्ट पार्टी जिंदाबाद, मांग रहा है हिन्दुस्तान, रोटी कपड़ा और मकान। कंट्रोल वहीं सफल रहता है, जहां लोगों में ईमानदारी हो और शासकों में दृढ़ता। लेकिन यहां दोनों का अभाव साफ दिखता है।

रामबृक्ष बेनिपुरी, सोशलिस्ट पार्टी

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यानी कि भ्रष्टाचार भी चुनाव में एक मुद्दा था, रोटी-कपड़ा-मकान का नारा भी तब शुरू हो चुका था। अब मुद्दे थे, राजनीति थी, उससे जुड़ी जातियों की बात थी, लेकिन वोटिंग को लेकर जागरूकता कम थी। बिहार में 1952 में साक्षरता दर 13.4 फीसदी थी। अब पहले चुनाव में बिहार में कुल 1,81, 38,956 मतदाता थे, अब उन वोटरों को कैसे समझाया जाए कि कौन से प्रत्याशी का क्या चुनाव चिन्ह है, यह एक बड़ी चुनौती थी। तब एक एक्सपेरिमेंट किया गया कि एक सीट पर जितने भी उम्मीदवार होंगे, उनके नाम का अलग रंग का बैलेट बॉक्स भी वहां रखा जाएगा। उस तरह से पहचान करवाने में आसनी रहेगी।

अब 26 मार्च, 1952 को बिहार की 330 सीटों पर वोटिंग हुई, 42.6 फीसदी मतदान रहा और उम्मीद के मुताबिक कांग्रेस ही काफी आसानी से वो चुनाव जीत गई। 239 सीटें उसने अपने नाम की, दूसरे नंबर पर सोशलिस्ट पार्टी रही और 23 सीटें हासिल कर पाई। नतीजों के बाद सहमति के साथ कृष्ण सिंह को बिहार का पहला मुख्यमंत्री बनाया गया।

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