Israel Iran War: ईरान और इजरायल के बीच संघर्ष शुरू होने के बाद से ही अगर आप सोशल मीडिया, टीवी, अखबारों पर नजर डालेंगे तो सबसे ज्यादा चर्चा जिस शख्स की हो रही है, वह अयातुल्लाह अली खामेनेई हैं। 86 साल के खामेनेई ने साफ कहा है कि वह सरेंडर नहीं करेंगे और इजरायल को इस हमले के गंभीर नतीजे भुगतने होंगे।
खामेनेई ने अमेरिका को भी इस बात के लिए चेताया कि वह इन दोनों देशों के संघर्ष में दखल ना दे। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब खामेनेई ने अमेरिका को चेतावनी दी है। खामेनेई के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने जीवन भर ईरानी क्रांति के सिद्धांतों को निभाया है। 1989 में अयातुल्ला रूहोल्लाह खोमैनी की मौत के बाद से खामेनेई ईरान के सुप्रीम लीडर हैं।
मदरसे से शिक्षा हासिल करने वाले खामेनेई ईरान के सर्वोच्च नेता कैसे बने और कैसे वह ईरान में लोकप्रिय हुए? आइए जानते हैं खामेनेई के बारे में और भी बहुत कुछ।
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खामेनेई के पिता धार्मिक विद्वान थे। खामेनेई के 8 भाई-बहन हैं। वह जब 23 साल के थे और कोम शहर में धार्मिक मामलों की पढ़ाई कर रहे थे तो इस दौरान खोमैनी के क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल हो गए। वह पूंजीवादी व्यवस्था को खारिज करने वाली विचारधारा से प्रभावित थे।
1960 और 1970 के दशक के दौरान उन्होंने रजा शाह पहलवी के खिलाफ आंदोलन किया और इस दौरान उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया, प्रताड़ित किया गया और उन्हें कई साल जेल में रहना पड़ा। रजा शाह पहलवी की सत्ता खत्म होने के बाद खामेनेई रक्षा उप मंत्री और Islamic Revolutionary Guard Corps (IRGC) के सुपरवाइजर बन गए। खामेनेई ने विदेशी ताकतों के उपनिवेशीकरण के खिलाफ अपना विरोध जारी रखा।
खामेनेई के पास इस्लामिक गणराज्य का सुप्रीम लीडर बनने के लिए जरूरी धार्मिक योग्यता नहीं थी। ईरान के संविधान के अनुसार, सर्वोच्च नेता बनने वाले शख्स को मरजा-ए-तकलीद या ग्रैंड अयातुल्ला होना चाहिए लेकिन खामेनेई उस समय सिर्फ होज्जत उल-इस्लाम थे, जो एक मध्यम स्तर की धार्मिक उपाधि है और अयातुल्ला नहीं थे।
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इसलिए जब उन्हें ईरान का सर्वोच्च नेता बनाया गया तो संविधान में संशोधन किया गया। लेकिन उनका रास्ता आसान नहीं था और 1997 में जब मोहम्मद खातमी राष्ट्रपति बने तो उन्होंने सुधारों की वकालत की और इससे खामेनेई के लिए हालात और कठिन हो गए।
राजनीतिक वैज्ञानिक क्जेटिल सेलविक अपनी किताब Dictators and Autocrats: Securing Power across Global Politics (2021) में लिखते हैं, “खामेनेई को तब अपनी क्रांतिकारी सत्ता स्थापित करनी पड़ी जब क्रांति के नारे कमजोर पड़ रहे थे।”
सत्ता संभालते ही खामेनेई ने इस्लामिक गणराज्य की नीतियों का निर्धारण किया और सशस्त्र बलों का नेतृत्व भी किया। खोमैनी की तरह वह भी अमेरिका और इजरायल के विरोधी रहे हैं। उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में इस्लाम को लागू किया। वह न सिर्फ अधिकारियों बल्कि आम लोगों को भी इस्लाम को लेकर उपदेश देते हैं और तमाम मीडिया चैनल, मस्जिद, धार्मिक मदरसों के प्रचारक भी इस मामले में उनका अनुसरण करते हैं।
खामेनेई ने ईरान की शिक्षा व्यवस्था और वित्तीय ढांचे में भी फेरबदल किया और इससे हुआ यह कि अब ये धर्म गुरुओं पर ज्यादा निर्भर हो गए। खामेनेई का हमेशा से यह कहना रहा है कि इस्लामिक क्रांति का मकसद मुस्लिम समुदाय को पश्चिम के उत्पीड़न से मुक्त करना है और “सांस्कृतिक जिहाद” कभी रुकना नहीं चाहिए।
खामेनेई ने सीरिया में बशर अल-असद और इराक, लेबनान और यमन में हथियारबंद समूहों के साथ मजबूत संबंध बनाए हैं।
मिडिल-ईस्ट के मामलों की जानकार यवेटे होवसेपियन-बेयर्स The Political Ideology of Ayatollah Khamenei: Out of the Mouth of the Supreme Leader of Iran (2015) में लिखती हैं, ‘खामेनेई ने इराक में सुप्रीम काउंसिल फॉर इस्लामिक रिवोल्यूशन (शूरा-ए आली-ए इंकलाब-ए इस्लामी) और अफगानिस्तान में मुस्लिम यूनिटी पार्टी (हिज्ब-ए वहादत-ए इस्लामी) का गठन किया।” बेयर्स लिखती हैं, “खामेनेई की विदेश नीति का मकसद फिलिस्तीन की आजादी, ईरानी इस्लामिक क्रांति के विचारों का प्रसार और एक संयुक्त वैश्विक इस्लामिक शक्ति का निर्माण है।”
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फिलिप थॉमस टकर अपनी किताब The Bloody Hand of Soleimani (2024) में लिखते हैं कि ईरान ने एक खतरनाक और नया गठबंधन तैयार किया, जो ड्रोन और क्रूज मिसाइलों से लैस है। यह गठबंधन छह देशों में फैला हुआ है। इसमें गाजा में हमास, लेबनान में हिज़्बुल्ला, यमन में हूथी, और इराक, बहरीन व सीरिया में अमेरिका विरोधी समूह शामिल हैं। थॉमस टकर के अनुसार, ईरान का यह Axis of Resistance इजरायल और अमेरिका से लड़ने के लिए एक रणनीतिक मास्टर प्लान है।
खामेनेई बार-बार कह चुके हैं कि ईरान अमेरिका को चुनौती देगा और उसे हराएगा। वह उदाहरण देते हैं कि यूरोपीय संघ, संयुक्त राष्ट्र और नाटो जैसे संगठन एकजुट हो रहे हैं। बेयर्स लिखती हैं, ‘खामेनेई मुस्लिम गठबंधन चाहते हैं जिसमें अपने तमाम मतभेदों के बाद भी मुस्लिम देश एकजुट होकर इस्लामिक फ्रंट बना सकते हैं।’
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