एक था राजा, एक थी रानी दोनों मर गए खत्म कहानी…। हिंदी भाषी प्रदेश के लोगों ने कहानी सुनाने की गुजारिश पर यह संक्षिप्त कहानी तो जरूर सुनी होगी। हर इंसानी सभ्यता के पास अपने राजा-रानी और उनकी कहानियां हैं। एक समय ऐसा था जब आम लोगों के द्वाराक बोली जानी वाली खरी बोली यानी हिंदी में इन कहानियों को छापेखाने के जरिए आम लोगों तक पहुंचाना आसान नहीं था। उर्दू, फारसी और संस्कृतनिष्ठ हिंदी जैसी शासकीय भाषाओं के सामने हिंदी में राजा-रानी की कहानी कौन पसंद करता? इन्हीं संशयों के साथ 1891 में चंद्रकांता का पहला संस्करण प्रकाशित होता है। बाबू देवकीनंदन खत्री हिंदी साहित्य को चंद्राकांता और चंद्रकांता संतति जैसे अमर उपन्यास सौंप देते हैं।

आम सी दिखने वाली चीजें कहानी तब बनती हैं जब उनमें घटनाओं को बांधने का कहन हो। उछलती-कूदती, दौड़ती-भागती, खिलखिलाती, गुर्राती घटनाओं को जब कहन के तिलिस्म से बांधा जाता है तो कहानी तैयार होती है। बाबू देवकीनंदन खत्री राजा-रानी की कहानी की शुरुआत में ऐसे सूत्रधार बनते कि ऐय्यार जैसे तिलिस्मी किरदारों के आने से पहले पाठकों के सामने एक मायाजाल बिछ जाता। आज जिस ‘थ्रीडी’ तकनीक से सिनेमाघरों में पर्दे की घटनाओं को दर्शकों को महसूस करवाया जाता है, बाबू देवकीनंदन खत्री के पास शब्दों का वैसा ही तिलिस्म था।

जनसत्ता रविवारी शख्सियत: सत्यजीत रे

किरदारों के आने के पहले माहौल का ऐसा वर्णन कि पाठक पन्नों से सीधे अपने दिमाग में चलचित्र बनाने लगते थे। किताबों का पन्ना सिनेमा का पर्दा सरीखा बन जाता था। खत्री बाबू कुशल निर्देशक की तरह किरदारों की आवाजाही करवा कर पाठकों को एक रवानगी पर छोड़ देते थे। ‘चंद्रकांता’ का एक पन्ना शुरू करने के बाद उपन्यास के अंत तक पहुंचना पाठकों की मजबूरी बन जाती थी। उन्होंने हिंदी साहित्य को पाठकों को रिझाने का सूत्र दे दिया था।

जनसत्ता शख्सियत: धोंडो केशव कर्वे

1861 में बिहार में जन्मे बाबू देवकीनंदन खत्री कारोबारी थे। इस सिलसिले में उन्हें जंगल के ठेके भी मिलते थे। जंगल और किलों के बीच भ्रमण के बाद उनके अंदर जिन फंतासियों ने जन्म लिया उसी ने ‘चंद्रकांता’ का रूप धरा। उर्दू-फारसी और संस्कृतनिष्ठ भाषा के बीच उपेक्षित सी रहने वाली हिंदी में चंद्रकाता ने लोकप्रियता की ऐसी छलांग लगाई जिसने हिंदी साहित्य में अलग अध्याय रच दिया।

‘चंद्रकांता’ की लोकप्रियता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि 1891 से लेकर 1904 तक के चौदह वर्षों के अंतराल में इसके छह संस्करण आ गए थे। तिलिस्मी किस्सागोई में माहिर देवकीनंदन खत्री ने आगे की कड़ियों में चंद्रकांता संतति की रचना की। आभिजात्य वर्गों के साहित्य के बीच खत्री ने ऐसा तिलिस्म रचा कि उस समय लोगों ने चंद्रकांता को पढ़ने की कोशिश करते हुए हिंदी सीखी।