प्लास्टिक प्रदूषण न केवल पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचा रहा है, बल्कि यह सामाजिक और लैंगिक असमानता को भी गहराई से प्रभावित कर रहा है। यह समस्या केवल समुद्र में तैरते प्लास्टिक कचरे तक सीमित नहीं है, बल्कि उन लाखों महिलाओं और लड़कियों से भी जुड़ी है, जिनके जीवन में प्लास्टिक प्रदूषण ने गहरा असर डाला है। यह एक ऐसी हिंसा है, जो न तो तात्कालिक होती है और न ही स्पष्ट, पर धीरे-धीरे शरीर, समाज और आने वाली पीढ़ियों को प्रभावित करती है। इसीलिए इसे ‘धीमी हिंसा’ कहा जा सकता है।

भारत में प्लास्टिक प्रदूषण केवल पर्यावरणीय समस्या नहीं, यह एक सामाजिक संकट भी बन चुका है। वैश्विक स्तर पर जिस प्रकार अमेरिका, चीन और यूरोप जैसे देश अपने प्लास्टिक कचरे का निर्यात विकासशील देशों में करते हैं, उसका प्रभाव भारत जैसे देशों पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। भारत में हर साल करोड़ों टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है, जिसमें से बड़ी मात्रा में ‘सिंगल यूज’ (एकल उपयोग) प्लास्टिक शामिल होता है, जिसे आसानी से नष्ट नहीं किया जा सकता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं आमतौर पर पारंपरिक रूप से घर की सफाई, खाना पकाने और बच्चों की देखभाल जैसे कार्यों की जिम्मेदारी संभालती हैं। इन सभी गतिविधियों में इस्तेमाल होने वाले उत्पाद- जैसे प्लास्टिक पैकिंग में आने वाले खाद्य पदार्थ, सस्ते सौंदर्य प्रसाधन, कीटनाशक और घरेलू सफाई उत्पाद आदि में जहरीले रसायन होते हैं, जो सीधे महिलाओं के शरीर में प्रवेश करते हैं। आज भारत में सौंदर्य प्रसाधनों का उद्योग सालाना लगभग दस हजार करोड़ से अधिक हो चुका है। शोध बताते हैं कि सौंदर्य उत्पादों में माइक्रोप्लास्टिक पाए जाते हैं, जो हार्मोन के स्राव को बाधित करते हैं। साथ ही, इन उत्पादों में प्रयुक्त रसायन लंबे समय तक त्वचा, रक्त और प्रजनन तंत्र को प्रभावित कर सकते हैं। इनसे त्वचा रोग, थायराइड संबंधी विकार, हार्मोन असंतुलन, बांझपन और गर्भपात जैसी गंभीर समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं।

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शारीरिक दृष्टि से भी महिलाएं विषाक्त रसायनों के प्रभाव के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं। उनके शरीर में वसा की मात्रा अधिक होती है, जो विषैले तत्त्वों को लंबे समय तक संचित रखती है। इसके अलावा, एस्ट्रोजन जैसे हार्मोन इन रसायनों के प्रभाव को और भी गहरा बना देते हैं। गर्भावस्था, मासिक धर्म और रजोनिवृत्ति जैसे नैसर्गिक चरणों में यह प्रभाव और गंभीर हो जाता है। शोध के मुताबिक, प्लास्टिक में मौजूद बिसफेनाल-ए और फ्थेलेट जैसे रसायन गर्भस्थ शिशु के विकास को बाधित करते हैं, जिससे जन्मजात विकार, मानसिक समस्याएं और हार्मोन से संबंधित विकृतियां पैदा हो सकती हैं।

प्लास्टिक कचरा अक्सर शहरी मलिन बस्तियों, औद्योगिक क्षेत्रों और ग्रामीण इलाकों के नजदीक जमा होता है, जहां बुनियादी सफाई व्यवस्था और कचरा प्रबंधन सुविधाओं का अभाव होता है। इन क्षेत्रों में सबसे अधिक प्रभावित वे समुदाय होते हैं, जो पहले से ही गरीबी, बेरोजगारी और सामाजिक हाशिए पर होने की वजह से कई तरह की समस्याओं का सामना कर रहे होते हैं। इन समुदायों की महिलाएं, जो पारंपरिक रूप से घर और बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी संभालती हैं, आज वे अपने परिवार की आजीविका के लिए अनौपचारिक क्षेत्र में प्लास्टिक कचरा बीनने और जलाने जैसे खतरनाक कार्यों में संलग्न हैं। ये कार्य बिना किसी सुरक्षा उपकरण, प्रशिक्षण या स्वास्थ्य सुविधा के किए जाते हैं, जिससे महिलाओं के स्वास्थ्य पर गंभीर असर पड़ता है।

ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि देश के कई हिस्सों में महिलाएं कचरा बीनने, घरेलू कामगार या कचरा पुनर्चक्रण इकाइयों में असंगठित मजदूर के रूप में काम करती हैं। इन कार्यों में रोजमर्रा का संपर्क प्लास्टिक से होता है- जैसे पालीथीन, बोतलें, प्लास्टिक थैलियां और टूटी घरेलू वस्तुएं, जिनमें अक्सर खतरनाक रसायन मौजूद होते हैं। इनसे त्वचा रोग, सांस की बीमारी, प्रजनन संबंधी स्वास्थ्य समस्याएं और यहां तक कि कैंसर तक का खतरा होता है। इसके अलावा, प्लास्टिक कचरे का जलाया जाना भी महिलाओं और उनके परिवारों को प्रभावित करता है। जब यह कचरा बस्तियों के पास खुले में जलाया जाता है, तो इससे निकलने वाले डायाक्सिन और अन्य विषैले रसायन हवा और पानी को प्रदूषित करते हैं, जिसका सीधा असर बच्चों और गर्भवती महिलाओं पर होता है।

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देश में पर्यावरणीय नीति और कचरा प्रबंधन योजनाएं अक्सर तकनीकी और नगरीय समाधान केंद्रित होती हैं। पर यह जरूरी है कि इन योजनाओं में महिलाओं की भूमिका, उनके श्रम की असंगठित प्रकृति और उनके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों पर भी प्रमुखता से ध्यान दिया जाना चाहिए। इस संकट का एक अन्य आयाम श्रम और शिक्षा से जुड़ा है। झुग्गी बस्तियों और ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत-सी महिलाएं और लड़कियां प्लास्टिक बीनने और पुनर्चक्रण केंद्रों में काम करती हैं। यह काम न केवल अत्यधिक असुरक्षित होता है, बल्कि अक्सर बिना किसी स्वास्थ्य सुरक्षा के किया जाता है। लड़कियों की शिक्षा भी इससे बाधित होती है, क्योंकि वे कम उम्र में ही अपनी माताओं के साथ इस कार्य में जुड़ जाती हैं। वे स्कूल नहीं जा पातीं, और उनके सामने एकमात्र विकल्प प्लास्टिक से जुड़ा जोखिमपूर्ण श्रम ही रह जाता है। प्लास्टिक उनके जीवन के लिए एक धीमा जहर बन जाता है, जो उनके भविष्य की संभावना को धीरे-धीरे समाप्त कर देता है।

प्लास्टिक प्रदूषण लैंगिक रूप से एक पक्षपाती संकट बन चुका है, क्योंकि इसकी नीतियों और समाधान में अक्सर महिलाओं के अनुभवों तथा आवश्यकताओं को ध्यान में नहीं रखा जाता। पर्यावरण से जुड़ी नीतियों के निर्माण में महिलाओं की भागीदारी न्यूनतम होती है और जो निर्णय लिए जाते हैं, वे प्राय: तकनीकी या आर्थिक दृष्टिकोण से होते हैं, सामाजिक और लैंगिक पहलुओं से नहीं। ऐसे में उन महिलाओं की आवाज दब जाती है, जो इस संकट से सबसे अधिक प्रभावित होती हैं। परिणामस्वरूप, न तो उन्हें सुरक्षित कार्यस्थल मिलते हैं और न ही उनके लिए स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच सुनिश्चित हो पाती है।

इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए एक बहुस्तरीय रणनीति की आवश्यकता है। सबसे पहले, कार्पोरेट क्षेत्र को अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करनी होगी। उन्हें अपने उत्पाद की पैकेजिंग, वितरण और उपभोग की प्रणाली को पर्यावरणीय और सामाजिक दृष्टिकोण से टिकाऊ बनाना होगा। केवल एक बार इस्तेमाल किए जाने वाले प्लास्टिक के स्थान पर ‘बायोडिग्रेडेबल’ उत्पादों के विकल्पों को बढ़ावा देना चाहिए और उनके उत्पादन प्रक्रिया में महिलाओं के स्वास्थ्य की सुरक्षा को सुनिश्चित करना होगा।

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दूसरा, सरकार को अपने कचरा प्रबंधन तंत्र को लैंगिक संवेदनशीलता के साथ पुनर्गठित करना होगा। इसमें महिलाओं को सुरक्षित और गरिमामय कार्यस्थल देना, कचरा प्रबंधन में महिलाओं को नेतृत्व की भूमिका देना और उन्हें सामाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करना शामिल हैं। इसके अलावा स्कूलों और सामुदायिक कार्यक्रमों के माध्यम से लड़कियों और महिलाओं को प्लास्टिक प्रदूषण के जोखिम और उससे निपटने के तरीकों के प्रति जागरूक करना जरूरी है। साथ ही, हमें शिक्षा और जागरूकता को केंद्र में रखना होगा। जब तक लड़कियां स्कूल नहीं जाएंगी और महिलाएं अपने अधिकारों और स्वास्थ्य के प्रति सजग नहीं होंगी, तब तक इस संकट को जड़ से समाप्त करना कठिन होगा। एक शिक्षित महिला न केवल अपने लिए, बल्कि अपने पूरे परिवार के लिए जागरूकता और बदलाव की वाहक बन सकती है।